आकार पटेल का लेख: आदिवासियों के विरोध को नजरंदाज़ करता मीडिया और सिविल सोसायटी की जिम्मेदारियां
इस माह कम से कम दो जगहों पर आदिवासी विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। गुजरात में 11 आदिवासियों को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के पास प्रस्तावित पार्किंग स्थल के विरोध में गिरफ्तार किया गया था। उनका कहना है कि विकास परियोजना के लिए अधिग्रहीत जमीन अवैध रूप से ली गई थी।
देश मौजूदा केंद्र सरकार के शासन के तीसरे साल में प्रवेश कर चुका है और आने वाले समय में जल्द ही चर्चा का केंद्र 2024 के चुनाव हो जाएंगे। हाल में उत्तर प्रदेश में हुए कुछ राजनीतिक घटनाक्रमों को इसी कड़ी से जोड़कर देखा जा रहा है। भारत में सरकारें क्या करती हैं इसे मोटे तौर पर राजनीतिक दलों पर छोड़ दिया जाता है, खासतौर से मध्यवर्ग, वोच देने के बाद सरकार से किसी भी स्तर पर जुड़ा नहीं रहता। लेकिन फिर भी देश में कुछ लोग हैं जो लगातार सरकार के संपर्क में रहते हैं और कुछ गलत होता है उसे नजरंदाज नहीं करते।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, सिविल सोसायटी यानी नागरिक समाज शब्द का अर्थ संगठनों की एक विस्तृत श्रृंखला से है जिसमें सामुदायिक समूह, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ), श्रमिक संघ, स्वदेशी समूह, धर्मार्थ संगठन, विश्वास-आधारित संगठन, पेशेवर संगठन और फाउंडेशन आदि शामिल हैं।
भारत में हम आम तौर पर गैर सरकारी संगठनों और कार्यकर्ताओं के लिए नागरिक समाज या सिविल सोसायटी शब्द का प्रयोग करते हैं, क्योंकि जो पेशेवर या प्रोफेशनल एसोसिएशन हैं वे सरकार का सामना करने से खासा डरते हैं। लेकिन ये अपवाद हैं और इनकी संख्या बहुत कम है। सिर्फ गैर सरकारी संगठन, कार्यकर्ता और कुछ स्वदेशी समूह हैं जो राजनीति के ढांचे के बाहर लोगों और उनके हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत में जब हम स्वदेशी समूहों की बात करते हैं तो हमारा मतलब आदिवासी होता है। भारत ने विकास का जो मॉडल अपनाया है वह आदिवासी भूमि से उन संसाधनों को निकालना है जो देश के बाकी हिस्सों के लिए उपयोग किए जाते हैं। आप और मैं अपने घरों से सरकार द्वारा विस्थापित नहीं होते हैं। यह आदिवासी हैं जिन्हें अपना वह स्थान छोड़ना होता है जहां उसके पूर्वज हजारों वर्षों से रह रहे हैं। लेकिन हम बांध बनाने या किसी अन्य प्रयोजन के लिए या कोयला निकालने के लिए उन्हें विस्थापित कर देते हैं।
आदिवासियों ने एक सदी से अधिक समय से भारत सरकार का विरोध किया है। वही बिरसा मांडा जिनकी प्रतिमा पर अमित शाह एक बार माल्यार्पण करना चाहते थे लेकिन किसी और की प्रतिमा पर उन्होंने माला चढ़ा दी थी, उन्हीं बिरसा मुंडा के विद्रोह के कारण ही अंग्रेजों को छोटानागपुर किरायेदारी अधिनियम पेश करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इस अधिनियम के बाद आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर प्रतिबंध लग गया था। बीजेपी मुंडा को माला तो पहनाना चाहती थी लेकिन उसने 2016 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को पूर्ववत करने के लिए एक कानून भी पारित किया। इसने आदिवासियों से ऐसी प्रतिक्रिया पैदा की कि बीजेपी को इस कानून से कदम पीछे खींचने पड़े और वह अगला विधानसभा चुनाव भी हार गई। यही कारण है कि शाह 2020 में मुंडा की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर रहे थे।
आदिवासियों द्व्रारा भारत सरकार के प्रतिरोध को न तो समझा जाता है और न ही इसे मीडिया में व्यापक रूप से जगह मिलती है। इस माह कम से कम दो जगहों पर आदिवासी विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। गुजरात में 11 आदिवासियों को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के पास प्रस्तावित पार्किंग स्थल के विरोध में गिरफ्तार किया गया था। उनका कहना है कि विकास परियोजना के लिए सरदार सरोवर नर्मदा निगम द्वारा अधिग्रहित भूमि उनकी थी और उनसे अवैध रूप से ली गई थी।
इनके विरोध और इसमें शामिल भावनाओं की तपिश इसी से समझी जा सकतीहै कि प्रदर्शन करने वालों में शामिल महिलाओं ने अपनी बात सुनाने के लिए सार्वजनिक रूप से अपने कपड़े तक उतार दिए। पुलिस ने इन प्रदर्शनकारियों में से 20 के खिलाफ 143 (गैरकानूनी सभा) और 294 (सार्वजनिक स्थान के पास अश्लील गीत, गाथागीत या शब्द गाना) सहित धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की है। दूसरीतरफ कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ में भी हजारों आदिवासी विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं क्योंकि सीआरपीएफ यानी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल ने उनकी अनुमति के बिना उनकी जमीन पर कैंप लगा लिए हैं। पुलिस ने बल प्रयोग किया है लेकिन आदिवासी डिगे नहीं हैं और अभी बस्तर में सीआरपीएफ कैंप हटाने की मांग कर रहे हैं।
दिल्ली के बाहरी इलाके में, हजारों किसान महीनों से विरोध कर रहे हैं। इका आंदोलन नवंबर में शुरु हुआ था और इन्होंने पूरी सर्दी का मौसम झेला है और अब तपती गर्मी में भी हाईवे के किनारे जिंदगी गुजार हे हैं। किसान जिन कानूनों का विरोध कर रहे हैं, उन्हें राज्यसभा में बिना किसी मत विभाजन के पारित कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित कर दिया है और मोदी सरकार ने खुद उन्हें 18 महीने के लिए निलंबित करने की पेशकश की है। इन कानूनों के खिलाफ ऐसे समूहों में भी गुस्सा है और वे विरोध कर रहे हैं जो उत्तर प्रदेश में भाजपा का समर्थन करते हैं। और अब ऐसी कोई संभावना नहीं लगती कि इन कानूनों को वास्तव में कभी लागू भी किया जाएगा। मोदी सरकार की खुद की रुचि भी इन कानूनों में खत्म हो चुकी है और वह अब इन कानूनों को लागू करने के बारे में कुछ नहीं बोलती, लेकिन फिर भी किसान आंदोलन खत्म कराने की कोई पहल उसने नहीं की है। क्योंकि वह ऐसा नहीं दिखाना चाहती कि वह अपने बनाए कानूनों को लागू करने से पीछे हट रही है। इसी तरह, करीब डेढ़ साल पहले पारित सीएए कानून को सरकार ने लागू नहीं किया है। इसके पीछे एक कारण तो भारत में इसके खिलाफ जबरदसत् विरोध प्रदर्शन है, और दूसरा यूरोपीय संसद सहित विश्व स्तर पर इस कानून के खिलाफ व्यापक निंदा है।
गुजरात में नागरिक समाज यानी सिविल सोसायटी की कोशिशों के परिणामस्वरूप दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना हुई है। ऐसा उना में एक गाय के कथित कंकाल को लेकर दलितों पर हमले के विरोध के बाद हुआ है। नागरिक समाज की कार्रवाई का नेतृत्व एक पूर्व पत्रकार जिग्नेश मेवानी ने किया था, जो तब गुजरात विधानसभा के लिए चुने गए थे।
2014 के बाद से नागरिक समाज या सिविल सोसायटी ने बहुत किया और सहा है। एक कमजोर होती सरकार का अर्थ है कि किसी एक दल को बहुमत न हो या फिर सरकार में बदलाव हो, इससे ही सिविल सोसायटी को अतिरिक्त लाभ मिलेगा। क्योंकि ऐसे कानून जो नागरिक समाज समूहों को मंजूर नहीं हैं उन्हें पास करना और लागू करना मुश्किल होगा। और ऐसे कानून जो अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का खुलेआम उल्लंघन करते हैं, उन्हें निरस्त करने का दबाव बढ़ेगा। लेकिन तब तक के लिए 2024 का रास्ता काफी दिलचस्प होगा।
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