नीतीश की तरह विचलित क्यों है उनकी पार्टी जेडीयू, BJP को सहारा देने वाले 'सुशासन बाबू' खुद इतने डरे हुए क्यों हैं?

केंद्र सरकार उनकी बैशाखी के सहारे चल रही है। लेकिन, सहारा देने वाले नीतीश कुमार खुद इतने डरे हुए क्यों हैं? वह विचलित रहते हैं, यह कई मौकों पर दिखता रहा है।

फोटो: Getty Images
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शिशिर

लोकसभा चुनाव 2024 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में बनी सरकार के बैशाखी हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। मतलब, केंद्र सरकार उनकी बैशाखी के सहारे चल रही है। लेकिन, सहारा देने वाले नीतीश कुमार खुद इतने डरे हुए क्यों हैं? वह विचलित रहते हैं, यह कई मौकों पर दिखता रहा है। लेकिन, उनकी पार्टी- जनता दल यूनाईटेड इस हद तक विचलित क्यों हैं? नरेंद्र मोदी के साथ जाने का फैसला भी जनवरी में जिस तरह लिया गया, वह अस्वाभाविक जैसा था। फर्म डिशिज़न जैसा तब भी नहीं था। लोकसभा चुनाव के पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सीट बंटवारे के समय भी नहीं। केंद्र सरकार में शामिल होते समय भी नहीं। और, अब जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी यह विचलित भाव साफ झलक रहा है।

बीजेपी के साथ भी, उसी के कारण डर भी

29 जून को दिल्ली में जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का मसला ही लें तो पता चल जाता है कि पिछले साल दिसंबर अंत में तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को हटाकर नीतीश कुमार वापस पार्टी के अध्यक्ष बने। छह महीने गुजरते-गुजरते उन्हें अपने पर ही भरोसा नहीं रहा क्या, जो कार्यकारी अध्यक्ष की बात सामने आ गई? राज्यसभा भेजे गए जेडीयू सांसद संजय झा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने की नौबत आ गई तो क्यों? इसके लिए थोड़ा पीछे चलें। 28 जनवरी को जब नीतीश वापस एनडीए में जा रहे थे तो बीजेपी ने उन्हें पहले भरोसा हासिल करने के लिए खुद को भरोसेमंद साबित करने कहा। नीतीश ने इस्तीफा दिया, फिर संजय झा बीजेपी दफ्तर पहुंचे… तब जाकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की हरी झंडी पर पार्टी ने जेडीयू को समर्थन पत्र सौंपा। बीजेपी से जदयू में आने वाले संजय झा ही दोनों दलों के बीच कड़ी हैं, इसलिए नीतीश ने भी उन्हें ही भेजा। संजय झा सीएम नीतीश के बेहद करीबी भी हैं।

लोकसभा चुनाव से पहले राज्यसभा भेजे भी जा चुके थे। तब, केंद्र की नई एनडीए सरकार में जेडीयू ने मंत्री के रूप में उनका नाम क्यों नहीं भेजा? जब यह सवाल आता है तो आरसीपी सिंह याद आते हैं और वही फॉर्मूला संजय झा पर भी बैठता नजर आता है। आरसीपी मंत्री बने और बीजेपी के ही होकर रह गए। संजय झा तो भाजपाई रह चुके हैं। वह मंत्री बनते और नरेंद्र मोदी या अमित शाह के करीब आते तो नीतीश को झटका लग सकता था। संजय झा के केंद्र में मंत्री नहीं बनने की कोई एक वजह पूछी जाए तो यही नजर आती है। मतलब, बीजेपी पर भरोसा करने के लिए नीतीश अंदर से राजी नहीं हैं। यही संजय झा के जेडीयू में कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचने की वजह भी है। 29 जून को अगर संजय झा की इस तरह से ताजपोशी होती है तो यह मानना पड़ जाएगा कि नीतीश लव-कुश समीकरण से आगे की सोच रहे हैं। संदेश दे रहे हैं कि जेडीयू अगड़ों की भी पार्टी है। और, इस तरह वह बीजेपी के आधार वोट में सेंध लगाने वाला तीर भी छोड़ जाएंगे।

ललन सिंह पर अविश्वास भी, भरोसा भी

नीतीश कुमार की पार्टी ‘लव-कुश’ समीकरण, यानी कुर्मी-कोइरी समीकरण पर चलती रही है। नीतीश-आरसीपी इसकी मिसाल थे। बीच में नीतीश कुमार ने बीजेपी से दूरी बनने पर अगड़ा कार्ड खेला था और भूमिहार जाति के ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया। वह कुर्सी पर आए, लेकिन इससे अगड़े साथ नहीं आ सके। वह कुर्सी पर रहते तो बीजेपी के साथ जाने का विकल्प नहीं बनता, इसलिए दिसंबर में उन्हें चलता किया गया। फिर जनवरी में बीजेपी के साथ वापसी भी हो गई। लेकिन, गतिरोध की तमाम बाहरी खबरों के बीच नीतीश ने ललन सिंह को न केवल साथ रखा, बल्कि केंद्र में मंत्री भी बनवा दिया। उन्होंने संजय झा को नहीं बनाया, क्योंकि उन्हें लेकर बीजेपी पर भरोसा नहीं कर सकते थे। ललन सिंह को इसलिए बनाया, क्योंकि वह दिसंबर तक नरेंद्र मोदी और अमित शाह को ठोककर जवाब दे रहे थे। ललन सिंह जदयू को तोड़ने के लिए बीजेपी में नहीं जाएंगे, यह भरोसा नीतीश आंख बंद कर कर रहे हैं। यह अलग बात है कि वह पार्टी के मामले में संजय झा जितना भरोसा ललन सिंह पर नहीं कर सके।

मनीष वर्मा का इस्तेमाल करने की मजबूरी

मनीष वर्मा- टाइटल देखकर कायस्थ नहीं समझें। यह नीतीश कुमार की जाति से हैं और नालंदा के ही रहने वाले हैं। जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से पहले इनका नाम भी तेजी से उभरा। इन्हें भी कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चा इसलिए उठी, क्योंकि यह भारतीय प्रशासनिक सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर आरसीपी सिंह की तरह नीतीश के साथ न केवल आए बल्कि जेडीयू में सक्रिय भी तुरंत हो गए। लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं देकर हर सीट पर इन्हें सक्रिय रखा गया। ऐसे में संभव है कि नीतीश कुमार बीजेपी का डर समझते हुए संजय झा की जगह या उनके समानांतर मनीष वर्मा को भी जेडीयू में जगह दे दें। जिस संसदीय बोर्ड अध्यक्ष पद से उपेंद्र कुशवाहा को ललन सिंह ने चलता किया था, वह जगह देकर भी मनीष वर्मा को इस काम में नीतीश कुमार लगा सकते हैं। मतलब, बीजेपी से अपनी पार्टी को बचाने के लिए नीतीश कुमार मजबूरी का कोई भी फैसला ले सकते हैं

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