देश भर में लागू हैं रॉलेट एक्ट जैसे कानून, तो फिर हम जलियांवाला बाग जैसा प्रतिरोध क्यों नहीं करते!

क्या अब हम अत्याचार और कानून के पालन में उचित प्रक्रिया और व्यक्तिगत अधिकारों की परवाह नहीं करते हैं? या फिर ये सब इसलिए सही है कि अब हमारे ऊपर विदेशी राज नहीं कर रहे हैं?

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आकार पटेल

पिछले हफ्ते मेरी नई किताब प्रकाशित हुई जिसका विषय लोगों का शांतिपूर्ण विरोध है। सवाल यह है कि आखिर लोकतंत्र में विरोध क्यों करना चाहिए। इसके कई कारण हैं। आइए आज इनमें से एक कारण पर नजर डालते हैं। 1919 में महात्मा गांधी ने रॉलेट एक्ट के खिलाफ देशव्यापी हड़ताल का नेतृत्व किया था। इस हड़ताल के समर्थन में पंजाब के जलियांवाला बाग में विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए भीड़ जमा हुई थी। उस समय पंजाब के गवर्नर रहे माइकल ओ'डायर को लगा कि इस भीड़ के जमा होने से ब्रिटिश शासन पर खतरा आ गया है और उन्होंने इससे निपटने के लिए हिंसा का सहारा लिया। उन्होंने ब्रिटिश सेना की गोरखा और बलूच रेजिमेंट को हमला करने का आदेश दिया, जिसमें 300 से ज्यादा लोग मारे गए।

रॉलेट एक्ट को ब्रिटिश सरकार ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सभी भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद पारित किया था। अंग्रेजों का दावा था कि इस कानून का बहुत कम भारतीयों पर प्रभाव पड़ेगा। लेकिन महात्मा गांधी ने इस एक्ट को "राष्ट्र के लिए अपमान" करार दिया था।

 तो आखिर रॉलेट एक्ट ( जिसे ठीक से समझाया जाए तो अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम, 1919) में ऐसा क्या था जिससे भारतीयों को गुस्सा था? भारतीय इससे इतने नाराज क्यों थे कि वे सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे थे और परिषद में इसका विरोध कर रहे थे?

दरअसल इस अधिनियम ने कानून के शासन के मूलभूत सिद्धांतों को समाप्त कर दिया था। यह बिना किसी आरोप या मुकदमे के लोगों को हिरासत में लेने का सरकार को अधिकार देता था और इसके तहत ज्यूरी ट्रायल को हटाकर बंद कमरे में जजों द्वारा मुकदमे की सुनवाई का प्रावधान कर दिया था। इस कानून के तहत हिरासत में लिए जाने को प्रशासनिक हिरासत कहा जाता था, जिसका अर्थ था कि बिना अपराध किए किसी को केवल इस संदेह पर जेल में डाल दिया जाए कि वे भविष्य में कोई अपराध करेंगे।

अब हम आज के भारत पर एक नजर डालते हैं, जहां हम घोषित तौर पर आजाद हैं। 2015 में, भारत में 3200 से अधिक लोगों को 'प्रशासनिक हिरासत' में लिया गया था। गुजरात में एंटी-सोशल एक्टिविटीज प्रीवेंशन एक्ट 1984 है। इसके तहत एक साल के लिए बिना किसी आरोप या मुकदमे के किसी को भी नजरबंद किया जा सकता है।


उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) है, जिसके तहत बिना किसी आरोप या मुकदमे के किसी को एक वर्ष के लिए हिरासत में रखने की अनुमति है ताकि सरकार के विचार में "किसी व्यक्ति को "भारत की रक्षा, विदेशी शक्तियों के साथ भारत के संबंधों, या भारत की सुरक्षा के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से" या " राज्य की सुरक्षा के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से या किसी भी तरीके से कार्य करने से सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए या किसी भी तरह से कार्य करने से समुदाय के लिए आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के रखरखाव के लिए पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने से रोका जा सके।"

हाल ही में इस कानून का इस्तेमाल मध्य प्रदेश में पशु तस्करी और पशु हत्या के आरोपी मुसलमानों को जेल में डालने के लिए किया गया है। तमिलनाडु में मादक पदार्थों का कारोबार करने वाले, ड्रग-अपराधियों, वन-अपराधियों, गुंडों, मानव तस्करी में लगे अपराधियों, रेत माफिया, यौन अपराधियों, झुग्गी-झोपड़ियों और समुद्री डाकू और वीडियो पाइरेसी निरोधक अधिनियम, 1982 लागू है।

इस कानून के तहत सरकार को बिना किसी मुकदमे या आरोप के किसी भी व्यक्ति को मादक पदार्थों को बेचने, ड्रग का कारोबार करने या वन अपराध, अनैतिक मानव तस्करी, रेत माफिया आदि को बिना कोई कारण बताए सिर्फ सार्वजनिक कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर हिरासत में लेने का अधिकार है।

कर्नाटक में भी ऐसा ही कानून है जिसमें एसिड अटैकर्स, बूटलेगर्स, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले, डिजिटल ऑफेंडर्स, ड्रग ऑफेंडर्स, जुआरी, गुंडे, आदि के खिलाफ  1985 का एक एक्ट है। इसमें भी किसी व्यक्ति को बिना आरोप बताए  मुकदमा चलाए 12 महीने तक जेल में डाला जा सकता है।

कुछ अय राज्यों में इनसे कुछ नर्म कानून हैं जिनकी व्याख्या कुछ अलग है। मसलन असम में 1980 का प्रीवेंटिव डिटेंशन एक्ट है जिसके तहत किसी को भी बिना आरोप या मुकदमे के 2 साल के लिए जेल में डाला जा सकता है।

बिहार में कोफेपोसा यानी कंजर्वेशन ऑफ फॉरेन एक्सचेंज एंड प्रीवेंशन ऑफ स्मगलिंग एक्ट 1984 है। इसके तहत बिना मुकदमे और आरोप के किसी को भी 2 साल के लिए जेल में लगा जा सकता है। यह कानून उन पर लागू होता है जो किसी सामान की तस्करी करते हैं, तस्करी करने में मदद करते हैं, अपने वाहन में तस्करी का सामाना ले जाते हैं, तस्करी के सामान की खरीद-फरोख्त करते हैं या उसे छिपाने में मदद करते हैं, तस्करी करने वाले लोगों को प्रश्रय देते हैं आदि आदि।

कश्मीर में इस किस्म के तीन कानून हैं। एक में बिना किसी आरोप या मुकदमे के 6 महीने की सजा होती है। दूसरे में एक साल की और तीसरे में 2 साल की सजा का प्रावधान है। पश्चिम बंगाल में भी प्रीवेंशन ऑफ वायलेंट एक्टिविटीज एक्ट 1970 लागू है।  छत्तीसगढ़ में भी पत्रकारों को उनकी खबरों के लिए आमतौर पर एनएसए के तहत गिरफ्तार कर एक साल के लिए जेल भेज दिया जाता है।


अगर हम इन कानूनों के अस्तित्व में आने की तारीखें देखें तो स्पष्ट होता है कि इनमें से कोई भी कानून अंग्रेजों को जमाने का नहीं है। बल्कि इन कानूनों को हमने खुद अपने लिए बनाया है। हर राज्य इन कानूनों का अपनी मर्जी से इस्तेमाल करता है और न्यायपालिका इसका किसी किस्म का प्रतिरोध नहीं करती है। इन दिनों भारतीयों को कई किस्म के वर्गों में बांट दिया गया है जिनमें एंटी-नेशनल जैसी संज्ञाओं का इस्तेमाल कर लोगों को देश का दुश्मन बताया जाता है।

रॉलेट एक्ट कभी भी पूरे देश में लागू नहीं किया गया था। लेकिन आज के दौर के रॉलेट एक्ट हर राज्य में भारतीयों के खिलाफ इस्तेमाल हो रहे हैं। तो फिर हम जलियांवाला बाग जैसे विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं कर रहे हैं।? आखिर हमारे सासंद-विधायक सरकार द्वारा नागरिकों के खिलाफ इन कानूनों का उसी तरह विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं जैसै कि इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के भारतीय सदस्यों ने किया था? क्या अब हम अत्याचार और कानून के पालन में उचित प्रक्रिया और व्यक्तिगत अधिकारों की परवाह नहीं करते हैं? या फिर ये सब इसलिए सही है कि अब हमारे ऊपर विदेशी राज नहीं कर रहे हैं?

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