इस वजह से ग्रेटा थनबर्ग में हमें दिखते हैं महात्मा गांधी
स्वीडन की 16 वर्ष की ग्रेटा थन्बर्ग ने सिर्फ अपनी पहल से जलवायु परिवर्तन की लड़ाई को बहुत बड़ा बना दिया है। उसकी एक आवाज पर तीन चौथाई वि श्व उसके पीछे खड़ा दिखा है। उसने विश्व में बढ़ते पर्यावरण असंतुलन को खुद के लिए, पूरे समाज के लिए खतरनाक समझा और यही बात वह दूसरों को समझाने निकली है।
पूरी दुनिया गांधी मार्ग के जरिए रास्ता तलाश रही है। लेकिन, अपने ही देश में लोकतंत्र पर जिस तरह से खतरे बढ़ते जा रहे हैं, उसमें महात्मा गांधी के संदेश पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। हमने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र संडे नवजीवन केे दो अंक गांधी जी पर केंद्रित करने का निर्णय लिया। इसी तरह नवजीवन वेबसाइट भी अगले दो सप्ताह तक गांधी जी के विचारों, उनके काम और गांधी जी के मूल्यों से संबंधित लेखों को प्रस्तुत करेगी। पहला लेख यूं तो स्वीडन की 16 साल की बच्ची ग्रेटा थन्बर्ग पर है, लेकिन उसने जिस साहस और धैर्य का परिचय दिया है, उससे हमें बापू सहज ही याद आते हैं।
जिन लोगों ने ग्रेटा थन्बर्ग को सुना है, उन्हें लगा होगा कि एक छोटी सी बच्ची इतनी बड़ी-बड़ी बातें कैसे कर सकती है। ग्रेटा अमेरिकी कांग्रेस के समक्ष गई, तो कह दिया, ‘माफ कीजिए जलवायु परिवर्तन के सवाल पर आपकी कोशिशें पर्याप्त नहीं हैं और अब मुझसे ही इसका समाधान न पूछने लगिएगा। मैं कोई विज्ञानी नहीं हूं। न ही कोई विशेषज्ञ। मुझे बुलाया है, तो मेरी और मेरे जैसे लाखों-लाख बच्चों की पीड़ा देखिए, समझिए और समाधान दीजिए।’
ग्रेटा पोलैंड, इटली सहित कई देशों में वहां के हुक्मरानों और सांसदों को सीधे निशाने पर ले चुकी है। सोचिए, वह अगर भारत में भी वैसे ही सीधे सवाल कर दे, तो क्या किसी राजनेता या नौकरशाह के पास उसके एक भी सवाल का जवाब होगा? इस छोटी सी लड़की ने सिर्फ अपनी पहल से जलवायु परिवर्तन की लड़ाई इतनी बड़ी बना दी है कि शायद किसी देश के लिए अब इसकी अनदेखी संभव न रहे। वह अभी पूरी तरह वयस्क भी नहीं हुई है, लेकिन जिस अंदाज में उसने पूरी दुनिया को झिंझोड़ा है, हम अगर उसमें गांधी को देखने लगें, तो गलत नहीं होगा।
याद दिलाने की जरूरत नहीं कि ‘मोहनदास’ ने विदेश में पढ़ाई के दौरान और पढ़कर वापसी के बाद जब ‘पहली बार’ कुछ कहा, तो उन्होंने भी ऐसे ही चौंकाया था और उन्हें भी ग्रेटा जैसे सवालों का सामना करना पड़ा था।
कौन है ग्रेटा थन्बर्ग!
स्वीडन की ग्रेटा थन्बर्ग 16 साल की एक स्कूली बच्ची है। उसकी एक आवाज पर तीन चौथाई विश्व उसके पीछे खड़ा दिखा है। वह जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चिंता का कोई नतीजा न निकलने से परेशान है। उसने विश्व में बढ़ते पर्यावरण असंतुलन को खुद के लिए, पूरे समाज के लिए खतरनाक समझा और यही बात वह दूसरों को समझाने निकली है। वह छोटी है, लेकिन समय से आगे सोचती है।
और वह अकेले चल पड़ी...
अब से ठीक एक साल पहले सितंबर में ग्रेटा ने आम चुनाव से पहले तय किया कि चुनाव तक वह हर शुक्रवार स्कूल नहीं जाएगी और देश की संसद के सामने लोगों को जलवायु परिवर्तन के खतरे से आगाह करेगी। वह हर शुक्रवार वहां जाती, खुद का बनाया प्लेकार्ड लेकर संसद के खंभे से लगकर खड़ी हो जाती। सांसदों, आम लोगों से अपनी बात कहती। पूछती कि पेरिस समझौते के अनुरूप कार्बन उत्सर्जन कम करने की कोशिश क्यों नहीं हो रही! अपील तो उसने अपने दोस्तों और स्कूल से भी की थी, लेकिन तब समर्थन नहीं मिला। घर वालों ने भी करियर का हवाला देकर रोका, लेकिन धुन की पक्की ग्रेटा तब तक ‘स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट मूवमेंट’ शुरू कर चुकी थी। वही ग्रेटा आज पूरी दुनिया के नेताओं से धरती के सवाल पर सीधा संवाद कर रही है। बता रही है कि इसके लिए किस तरह हमें अपनी जरूरतें कम करनी होंगी। ग्रेटा का आंदोलन हर दिन बड़ा हो रहा है। बीस अगस्त को 160 देशों के स्कूली बच्चों का प्रदर्शन इसी का विस्तार है। सिलसिला जारी है।
यह इस दौर का बड़ा संकट है कि आज विश्व के अधिसंख्य नेता उन कारणों से चर्चा में नहीं आते जिसके लिए वे हैं। कोई ब्लुस्कोनी अपने अवैध संबंधों के लिए, तो कोई ट्रंप बेतुके बयानों और गुस्सैल मिजाज, तो कोई पुतिन इसलिए चर्चा में रहता है कि वह अपनी देह पर यानी बॉडी बिल्डिंग पर कितना ध्यान देता है। लेकिन इनमें से कोई किसी बड़े ‘टकराव’ का हल देने के लिए नहीं जाना जाता। यानी विश्व पटल पर आज कोई नहीं, जिससे किसी अंधेरी सुरंग में उतरने पर रौशनी की उम्मीद की जा सके।
आचरण और विचार के ऐसे वैश्विक संकट में एक ऐसी कच्ची दिखने वाली लेकिन मजबूत आवाज का सामने आना सुखद है। इसलिए भी कि यह ऐसी कच्ची आवाज है, जिसके पास कुछ नहीं, अगर कुछ है तो वह है नैतिक सत्ता। लेकिन इसी कच्ची आवाज से हुई अपील पूरी दुनिया को हिला दिया है। पहली बार ऐसा हुआ कि विश्व के तीन चौथाई देशों के छात्र पर्यावरण के लिए ‘हड़ताल’ पर रहे। इतना सब हुआ लेकिन किसी बड़ी आवाज ने ग्रेटा के लिए ‘ग्रेट गोइंग ग्रेटा’ नहीं कहा।
गांधीवादी आचरण…
ग्रेटा थन्बर्ग अपने इस आंदोलन और अपने आचरण के जरिए महात्मा गांधी के जन्म के डेढ़ सौवें वर्ष में अचानक उनके बगल में खड़ी दिखाई देने लगी है। उसने अपनी बात कहने के लिए अपने आसपास को नहीं चुना। अपने स्कूल का भी सहारा नहीं लिया। उसे पता था कि असर कहां से होगा! शुरुआती प्रयासों के बाद वह अकेले चल पड़ी और प्रतिरोध के लिए संसद की दीवार को चुना। यह मुद्दे के प्रति उसकी स्पष्टता, जिद और आत्मबल था। वैसी ही जिद और आत्मबल, जो गांधी के पूरे जीवन और कर्म में सबसे अहम दिखता है। वहां नैतिकता पर इतना ज्यादा जोर था कि पहले उन्हें अव्यावहारिक ही कहा गया, लेकिन बाद में समझा गया। इस बार भी वैसा ही हुआ।
ग्रेटा की बातें भी तो पहले नहीं सुनी गईं। लेकिन वह रुकी नहीं। आज जो कुछ सामने है, वह गांधी की बातों का विस्तार ही तो है। यानी गांधी एक बार फिर साबित हुए हैं। उस क्रूर समय में जब हमारे नेताओं के पास ‘जेट विमान’, ‘परमाणु’ और ‘नाइट्रोजन बम’ हैं, बाजार की बड़ी-बड़ी बातें हैं, लेकिन मुंबई की ‘आरे कालोनी’ के हजारों पेड़ बचाने पर कोई साफ राय नहीं है। ऐसे शून्य होते समय में ग्रेटा ने बड़ा विकल्प दिया है। दुश्वारियों को प्राथमिकता में लेने और समय रहते उनके समाधान के प्रति सचेत किया है।
‘ग्रेटा’ एक नए और युवा विकल्प की भी शुरुआत है। यह याद दिलाती हुई कि वक्त इंतजार नहीं करता। ग्रेटा की उपस्थिति और उसकी बात मासूम भले हो, बचकानी नहीं हैं। याद करें कुछ दिन पूर्व अपने ही देश की वह खबर जब किसी राज्य में विकास के नाम पर पेड़ कट रहे थे, तो एक बच्ची अचानक रोने लगी थी। कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था। पता चला कि इसलिए रो रही थी कि वह पेड़ भी काट दिया गया था जिसे कभी उसने खुद रोपा था। यह कटना उसके लिए किसी सगे की हत्या जैसा था। इस घटना के बाद उस बच्ची को पर्यावरण संरक्षण का ब्रांड एंबेसडर तो बना दिया गया, लेकिन क्या पेड़ काटने की मुहिम भी रुकी? यह बड़ा सवाल है। लैपटॉप, मोबाइल पर बच्चों के उलझे होने की उलाहना के दौर में यह संवेदना का एक नया स्तर भी है, जिसे समझना होगा।
गांधी की राह और पश्चिम
ग्रेटा ने जो तरीका अपनाया, यह तो कहा ही जा सकता है कि इससे ज्यादा ‘अहिंसक’ तरीका कुछ और नहीं हो सकता। यह गांधी की ओर फिर से देखने जैसा है। वैसे भी पश्चिम ने हमारे गांधी को बार-बार याद किया है। 1960 में नाश्वेले (टेनेसी) में अश्वेत छात्रों का अहिंसा की राह सफल हुआ आंदोलन रहा हो, 1985 में केपटाउन शहर में अश्वेतों की श्वेत भेदभाव के खिलाफ अहिंसक जीत हो, पोलैंड में अस्सी के दशक की शुरुआत में शुरू हुई श्रमिकों के शांतिपूर्ण संघर्ष की 1989 में ‘सॉलिडेरिटी’ के रूप मिली परिणति हो या फिर 1983 के चिली में पिनोशे की सैन्य क्रूरता के खिलाफ श्रमिकों के अहिंसक विद्रोह की विजय, सब हमारे सामने हैं।
हांगकांग की ताजा घटना तो याद ही होगी, जहां एक खतरनाक कानून, जो आम नाागरिकों के खिलाफ था, को हटवाने के लिए जनता न सिर्फ सड़कों पर आ गई, बल्कि उसने प्रतिरोध के कई नए तरीके भी इजाद किए। इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल तो हुआ, इनके विकल्प भी तलाश लिए गए थे ताकि प्रतिबंध की स्थिति में कोई बाधा न हो। स्वतः स्फूर्त-शांतिपूर्ण तरीके से हुई यह शुरुआत जिस तरह अपने सुखद अंजाम तक पहुंची वह एक उदाहरण है। सच तो यही है कि नेल्सन मंडेला के नस्लभेद विरोधी आंदोलन से लेकर हाल- फिलहाल के अरब स्प्रिंग तक गांधी की ‘अहिंसा’ और ‘सविनय अवज्ञा’ ने वैश्विक स्तर पर बार-बार अपने होने का अहसास कराया है। जलवायु परिवर्तन पर स्वीडन की इस बच्ची की पहल से खड़ा हुआ यह आंदोलन उसी की ताजा कड़ी है और गांधी जी के डेढ़ सौवें वर्ष में उनके प्रति सही श्रद्धांजलि भी।
सवालों का क्या...
संभव है ग्रेटा थन्बर्ग के इस प्रयास या अनूठी मुहिम के पीछे कोई हो, जैसा कि मलाला युसूफजई के मामले में भी हुआ। बनारस में ग्यारहवीं के छात्र आयुष चतुर्वेदी के गांधी वाले अद्भुत तार्किक भाषण के ‘पीछे’ भी तो झांका ही गया। लेकिन आज यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ग्रेटा क्या बोल रही है, कैसे बोल रही है, कौन बुलवा रहा है। महत्वपूर्ण वह सवाल और सरोकार है, जो सबके हित का है, सबके सामने है। और यह कि एक बच्ची ही सही, किसी ने बोला तो! चलिए उस राजा को याद करें, जो ‘दिव्य परिधान’ में ‘सज्जित’ हो जुलूस में नंगा चला जा रहा था। सब देख रहे थे राजा नंगा है, लेकिन सारे समझदारों की जुबान बंद थी। सब चुप थे, पर एक बच्चे ने कह ही दिया, ‘...राजा तो नंगा है।’ अब कोई लाख कहे कि बच्चे ने किसी के इशारे पर कहा, आखिर तो उसने सच ही बोला। तो आज के दौर में ये जो बच्चे आ रहे हैं, इन्हें खारिज करने की नहीं, सुने जाने की जरूरत है। गांधी भी पर्यावरण की चिंता में शाकाहार की बात बोले तो विदेश में पढ़ते वक्त ही, लेकिन उनकी सुनी गई बाद में ही। जब सुनी गई, तो पूरे विश्व ने सुनी और आज तक दोहराई जा रही है।
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