आकार पटेल का लेख: देश में बढ़ते भेदभाव को उजागर करती रिपोर्ट पर आखिर गुस्सा क्यों आता है हमें!

अमेरिका में अल्पसंख्यकों पर हो रहे जुल्मों को लेकर तो हमारी प्रतिक्रिया का स्वागत होता है। एक लोकतंत्र के नाते कहा जाता है कि हम मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं, और यह हमारा फर्ज है कि हम किसी भी देश में सामने आ रही खामियों को उजागर करें।

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आकार पटेल

अभी 28 जून को भारत के विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी विदेश विभाग की उस रिपोर्ट की तीखा खंडन किया जिसमें भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का मुद्दा उठाया गया है। विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया, ‘पूर्व की तरह, यह रिपोर्ट भी पक्षपातपूर्ण हैं, इसमें भारत के सामाजिक तानेबाने की समझ का अभाव है और साफ तौर पर वोट बैंक की सोच और उससे उपजे दृष्टिकोण से प्रेरित है। इसलिए हम इसे खारिज करते हैं।’

हमारे बयान में आगे उस प्राथिक रिपोर्ट को भी निशाना बनाया गया जिसके आधार पर अमेरिकी विदेश विभाग ने अपना नजरिया सामने रखा है। हमने कहा कि यह प्राथमिक रिपोर्ट 'आरोपों, गलत बयानों, तथ्यों के चुनिंदा इस्तेमाल, पक्षपातपूर्ण स्रोतों पर निर्भरता और मुद्दों को लेकर एकतरफा नजरिए का मिश्रण है।'

इसमें कुछ और शब्द भी  जोड़े गए थे जिनमें हमारे कानून और संप्रभुता का जिक्र किया गया है, लेकिन दुखद है कि इनें किसी भी ऐसे विशेष आरोप का जवाब नहीं दिया गया है जिसे अमेरिकी विदेश विभाग ने लगाया है। आखिर ये आरोप क्या हैं?

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने दो बातें कही थीं: ‘भारत में ईसाई समुदाय ने बताया है कि स्थानीय पुलिस उस उन्मादी भीड़ की मदद करती है जो धर्म परिवर्तन का आरोप लगाते हुए प्रार्थना के दौरान हमला करती है और फिर पुलिस पीड़ितों को ही गिरफ्तार कर लेती है।‘ उन्होंने आगे कहा कि, ‘भारत में चिंताजनक रूप से हम बढ़ते धर्म परिवर्तन विरोधी कानूनों, हेट स्पीच, घरों के ध्वस्तीकरण और अल्पसंख्यक समुदायों के इबादत घरों के ध्वस्तीकरण को देख रहे हैं।’

वैसे यह एक तथ्य है। हम ऐसा तो नहीं कर सकते कि बीजेपी की बुलडोज़र संस्कृति पर गर्व करें और जब कोई बात करे तो इससे पल्ला झाड़ लें। अच्छा तो यह होता कि हम इन सब पर विचार करते, लेकिन हमने तो ऐसा नहीं किया। इसके बजाए हमने अपने बयान में कहा कि, ‘2023 में भारत ने अधिकारिक तौर पर अमेरिका में भारतीयों के खिलाफ हुए अनगिनत हेट क्राइम, रंगभेदी हमले और पूजा स्थलों को निशाना बनाए जाने, हिंसा और वहां के कानूनी अफसरों द्वारा भारतीयों और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव के मामलों को उठाया है।’

ये सब क्या हैं इस पर बाद में बात करेंगे, लेकिन सबसे पहले समझते हैं कि आखिर अमेरिकी रिपोर्ट में ऐसा क्या है जिससे भारत को गुस्सा आया है।

यह एक वार्षिक रिपोर्ट है जिसे अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) जारी करता है। दावा किया जाता है कि यह एक स्वतंत्र और निष्पक्ष (यानी इसमें डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों दों के सदस्य होते हैं) सरकारी संस्था है।


बीते पांच साल से हर साल यह आयोग भारतीय नेताओं और संस्थाओं पर पाबंदी लगाने की सिफारिश करता रहा है। हर साल अमेरिकी सरकार (पहले ट्रम्प के समय में और फिर बाइडेन के शासन में) किसी भी तरह के प्रतिबंध लागू करने से बचती रही है। अगर पाठकों को याद हो कि अमेरिका ने 20 साल पहले नरेंद्र मोदी को वीजा देने पर पाबंदी लगा दी थी, क्योंकि उन्हें यूएससीआईआरएफ की प्रतिबंध सूची में शामिल किया गया था, इसके बाद राष्ट्रपति बुश ने गुजरात में हुए नरसंहार के कारण नरेंद्र मोदी पर प्रतिबंध लगा दिए थे।

अमेरिका की 2020 की रिपोर्ट कहती है कि, ‘भारत में इस मोर्चे पर 2019 में जबरदस्त गिरावट आई है। राष्ट्रीय सरकार ने अपने मजबूत संसदीय बहुमत के दम पर करते हुए राष्ट्रीय स्तर की ऐसी नीतियां बनाई हैं जिनसे पूरे भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है और खासतौर से मुस्लिम इसके निशाने पर हैं।’

हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर की इस पर प्रतिक्रिया थी कि यूएससीआईआरएफ का भारत के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया और भारत विरोधी बयान देना कोई नई बात नहीं है।

पिछले साल भारत लगातार चौथे वर्ष ऐसे देशों की सूची में शामिल रहा जहां अल्पसंख्यकों पर ज्यादतियां हो रही है, लेकिन हमारे विदेश मंत्रालय ने इसे भी गलत और पक्षपातपूर्ण बताया और कहा कि आयोग को भारत और उसके संवैधानिक खाके के साथ ही विविधता र लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ नहीं है।

लेकिन यह दावा गलत है। मैंने यूएससीआईआरएफ के साथ काम किया है और मुझे लगा है कि उन्हें भारत के बारे में काफी जानकारियां हैं।

2021 की रिपोर्ट पर यूएससीआईआरएफ के कमिश्नर डॉनी मूर के नोट को देखना चाहिए। उन्होंने लिखा, ‘मुझे भारत से प्यार है। मैंने तड़के उठकर वाराणसी में गंगा में स्नान कर चुका हूं, पुरानी दिल्ली की गलियों में घूमा हूं, आगरा की इमारत को अपलक निहार चुका हूं,  दलाई लामा के आश्रम के पास धर्मशाला में चाय पी चुका हूं, अजमेर की दरगाह का चक्कर लगा चुका हूं और स्वर्ण मंदिर को ताज्जुब से निहार चुका हूं। इस सबके बीच मैं ईसाई भाई-बहनों से भी मिला हूं जो गरीबों की निस्वार्थ भाव से सेवा करते हैं, और कई बार कठिन हालात में ऐसा करते हैं। दुनिया के सारे देशों में भारत किसी खास रूचि का देश नहीं होना चाहिए। यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यहां एक मूल संविधान का शासन है। इसकी विविधता और धार्मिकता इसके लिए ऐतिहासिक आशीर्वाद की तरह हैं। फिर भी ऐसा लगता है कि आज भारत किसी चौराहे पर आ खड़ा हुआ है। बैलट बॉक्स के जरिए बना इसका युवा और स्वच्छंद लोकतंत्र अपने लिए ही कई चुनौतियां पैदा कर रहा है। इसका समाधान, निश्चित रूप से यह है कि भारत की संस्थाएं अपने मूल्यों की रक्षा के लिए अपने समृद्ध इतिहास का सहारा लें। भारत को राजनीतिक और अंतर-सामुदायिक संघर्ष को धार्मिक तनावों से बढ़ने देने से बचना चाहिए। भारत की सरकार और लोगों को सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने और सभी के अधिकारों की रक्षा करने से ही सब कुछ हासिल करना है और कुछ भी खोना नहीं है। भारत ऐसा कर सकता है। भारत को ऐसा अवश्य करना चाहिए।'


यह ऐसे लोगों के विचार हैं जिन्हें हम पक्षपातपूर्ण कहते हुए खारिज कर रहे हैं। एक बार को हम मान भी लें कि यूएससीआईआरएफ पक्षपाती है, जैसा कि जयशंकर और विदेश मंत्रालय दावा करता है, तो भी यह संदर्भहीन है। वे जो कुछ कहते हैं उसका गहरा संदर्भ है। क्या यह सच नहीं है कि बीजेपी राज में भारतीय अल्पसंख्यकों को कानून और नीतियों के जरिए प्रताड़ित किया जा रहा है? कोई भी किसी भी दिन का अखबार खोले या टीवी न्यूज देखे तो उसे इसका साफ जवाब मिल जाएगा।

अमेरिका में अल्पसंख्यकों पर हो रहे जुल्मों को लेकर तो हमारी प्रतिक्रिया का स्वागत होता है। एक लोकतंत्र के नाते कहा जाता है कि हम मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं, और यह हमारा फर्ज है कि हम किसी भी देश में सामने आ रही खामियों को उजागर करें, खासतौर से मित्र देशों में। लेकिन इसके लिए बाकायदा काम करना होगा, जैसा कि यूएससीआईआरएफ करता है, न कि गुस्से से भरे बयान जारी करके जो तथ्यों पर आधारित आरोपों के जवाब के तौर पर सामने आते हैं।

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