मामूली बारिश में ही दरिया-दरिया क्यों हो जाते हैं ये शहर? स्मार्ट सिटी के दावे करने वाली सरकार इस मोर्चे पर पूरी तरह फेल!

लगभग हर शहर में सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सब-वे हलकी-सी बरसात में जलभराव के स्थायी स्थल बन जाते हैं लेकिन कभी इस पर कोई चर्चा नहीं होती कि आखिर, निर्माण की डिजाईन में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में और जो कमी सामने आती है, उसे आगे के निर्माण में सुधारा क्यों नहीं जाता।

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पंकज चतुर्वेदी

इस बार नंबर लखनऊ और गुरुग्राम, नोएडा का था। जब तक आप इसे पढ़ रहे होंगे, यह भी हो सकता है कि, किसी दूसरे शहर या आपके शहर का ही नंबर आ जाए। इस बार जाती बरसात ने दिल्ली, चेन्नई, हैदराबाद, बेंगलुरु, लखनऊ, भोपाल, पटना, रांची, कानपुर, गोरखपुर, बलिया, जबलपुर, बिलासपुर - सबको तर-ब-तर ही नहीं किया, लबालब भी कर दिया। इस बारिश ने एक यह बात भी सामने ला दी कि नए बने-बसे इलाके और निर्माण भी जरा-सी बारिश में डूबने लगते हैं।

मामूली बारिश में ही दरिया-दरिया क्यों हो जाते हैं ये शहर? स्मार्ट सिटी के दावे करने वाली सरकार इस मोर्चे पर पूरी तरह फेल!

सोचना यह चाहिए कि आबादी बढ़ने के ख्याल से बसाए जाने वाले नए इलाकों में यह हाल क्यों हुआ। इन इलाकों को बनाते समय तो हर जगह वादा यह किया गया था कि यहां बेहतर नागरिक सुविधाएं होंगी- कि यहां सड़कें चौड़ी होंगी; चकाचक होंगी; पानी ज्यादा बरसे, तब भी पानी नहीं भरेगा क्योंकि सीवर की व्यवस्था बेहतर होगी; जाम नहीं लगेंगे आदि-इत्यादि। लेकिन ज्यादा जोर इस बात पर है कि आपके फ्लैट में खिड़कियां कितनी हैं, कारपेट कैसा है, किचेन में क्या सुविधाएं हैं आदि। आदमी जैसे ही फ्लैट से नीचे उतरकर अपार्टमेंट से बाहर निकलता है, वैसे ही समस्याओं से रू-ब-रू होने लगता है जिनसे जूझकर वह छोटे-अनियोजित शहरों से आकर बेहतरी के लिए कथित बड़े शहरों-महानगरों और उनके नए बसे इलाकों में रहने आया है। दफ्तरी कामकाज बाधित न हो, इसका एक हल कोरोना ने सुझा दिया है- वर्क फ्रॉम होम। लेकिन यह स्थायी समस्या का तात्कालिक हल भी नहीं है। बड़े शहरों में स्मार्ट सिटी के नाम पर हम अरबों-खरबों खर्च कर जो कुछ कर रहे हैं, वह भी हमें कहीं नहीं ले जा रहा।


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एक बात तो साफ है और इस पर सभी नगर विकास योजनाकार सहमत हैं कि भारी बारिश-जैसी प्राकृतिक आपदा अब हर जगह गंभीर समस्या पैदा कर रही है क्योंकि हमने पारंपरिक तालाब-सरोवर-जोहड़ खत्म कर दिए, शहर के पास की बड़ी-छोटी नदी तक पानी पहुंचने के रास्ते बंद कर दिए, उन सभी जगह पर अतिक्रमण कर लिया और उनकी जगह अट्टालिकाएं खड़ी कर लीं। इलाके के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ इसकी बड़ी वजह है। बेंगलुरु समेत तमाम दक्षिणी राज्यों के महानगर तो कभी ऐसी नदियों-तालाबों की नैसर्गिक सौगातों से संपन्न रहे हैं जो हर तरह की बरसात को अपने में समा लेने में सक्षम थे। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा। ये तालाब-सरोवर पहले के समय हमारे पीने के पानी की समस्या ही दूर नहीं करते थे, बारिश के दिनों के पानी का संग्रहण भी करते थे और जमीन के अंदर पानी की कमी भी पूरी करते थे जिससे हमें सालों साल पानी की दिक्कत नहीं होती थी। लेकिन अब हम पुरानी स्थिति तो ला नहीं सकते क्योंकि जो था, उसे हमने नष्ट कर दिया और छोटे से लेकर बड़े शहरों का बसाव ऐसा हो गया कि पुरानी स्थिति अब नहीं आ सकती। इसलिए अब बात उससे आगे की करनी होगी।

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यह हम सभी जानते हैं कि कहीं भी जल जमाव इसलिए हो रहा क्योंकि निकासी की व्यवस्था दुरुस्त नहीं है- यह हाल हमारे-आपके अपार्टमेंट-मुहल्ले से लेकर शहर तक के बाबत है। छोटे-बड़े निकास के जो भी थोड़े-बहुत इंतजाम हैं, उनकी सफाई नहीं होती और उसमें मिट्टी, कीचड़, पॉलीथीन आदि का कूड़ा गहरे तक जमा होता है जबकि इस काम के लिए हर शहर में हर महीने हजारों वेतन वाले स्थायी-अस्थायी कर्मचारी और उनके सुपरवाईजर पहले से तैनात हैं। इस बात का भी जवाब कोई नहीं दे पाता कि नालों की सफाई के लिए बरसात से पहले के समय- अलग-अलग शहरों में अनुमान के अनुसार, अमूमन अप्रैल से लेकर जून तक का इंतजार क्यों किया जाता है, सफाई सालभर क्यों नहीं होती। हमने विदेशों की देखादेखी भूमिगत सीवर तो बना लिए लेकिन इनके रखरखाव और सफाई की कोई व्यवस्था ही नहीं है। महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। इस पर कैसे रोक लग सकती है, यह देखना दिनोंदिन जरूरी होता जा रहा है क्योंकि जिन पर इन्हें रोकने का दायित्व है, वे ही इसमें लिप्त नजर आते हैं।

इसमें मोदी सरकार की स्वच्छ योजना को बड़ा कदम बनाया जा सकता था। लेकिन नदियों की सफाई से लेकर घर-घर में शौचालय बनाने के काम में वेस्ट डिस्पोजल पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा जिससे समस्या घटने की जगह बढ़ती ही जा रही और यह बढ़ती ही जाने वाली है। घरों से लेकर नालों-नहरों से गाद निकालने का अभियान तो चलता रहता है, पर उसके डिस्पोजल को लेकर उचित नीति ही अपनाई नहीं जा रही। पॉलीथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा कुछ ऐसे कारण हैं जो कि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं और यह हमारे घरों से ज्यादा मात्रा में निकलते हैं। इसके लिए हमें-आपको प्रयास करना होगा, सिर्फ सरकार और व्यवस्था को दोष देने से काम नहीं चलने वाला। सरकार के स्तर पर यह करना जरूरी है कि जल जमाव वाले स्थानों पर पानी की आवक को स्टॉर्म वाटर ड्रेन बना कर नदी-तालाब की तरफ मोड़ना होगा। यह नई योजनाओं के संदर्भ में ही नहीं, पुरानी योजनाओं में इस तरह तरमीम करने की भी जरूरत है।


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यही नहीं, लगभग हर शहर में सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सब-वे हलकी-सी बरसात में जलभराव के स्थायी स्थल हैं लेकिन कभी इस पर कोई चर्चा नहीं होती कि आखिर, निर्माण की डिजाईन में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में और जो कमी सामने आती है, उसे आगे के निर्माण में सुधारा क्यों नहीं जाता। नए मार्ग निर्माण के समय दोनों तरफ जल निकासी मार्ग और उसे भूजल रिचार्ज से जोड़ना जरूरी है।

दरअसल, आने वाले दिनों में जलभराव ही नहीं, पेयजल समस्या से निबटने के लिए भी वाटर हावेस्टिंग जरूरी है। नए बस रहे अपार्टमेंट और मुहल्लों में वाटर हारवेस्टिंग को अनिवार्य किए हुए एक दशक से ज्यादा हो चुके हैं लेकिन इन्हें सुनिश्चित किए जाने पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा। नई बसाहट में इसे सुनिश्चित करने के साथ पुराने अपार्टमेंट और मुहल्लों में भी इसे लागू करने की जरूरत है। इस पर ज्यादा खर्च नहीं होता और हम जलभराव और पेयजल- दोनों समस्याओं से इससे निबट सकते हैं। इसके साथ ही अरावली पहाड़ जैसी संरचनाओं से निकली सरिताओं को वहीं जोहड़-तालाब बना के इकट्ठा करना भी जरूरी है।

अब तक का अनुभव यही बता रहा कि स्मार्ट सिटी बनाए जा रहे शहरों में भी जलभराव से निजात नहीं मिलने वाली क्योंकि भोपाल, नागपुर, कानपुर आदि में भी बारिश के दौरान सड़कें स्वीमिंग पूल के माफिक हो गईं।

(पंकज चतुर्वेदी पर्यावरण विषयों पर नियमित तौर पर लिखते हैं)

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