अमेरिकी संसद से लेकर इंग्लैंड की सड़कों तक उठ रही आवाज, आखिर पश्चिम में क्यों खराब हुई भारत की छवि?

बीते 19 नवंबर को काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के एक विमर्श में कश्मीर के बरक्स भारतीय लोकतंत्र से जुड़े सवालों पर विचार किया गया। उसके पहले अमेरिकी कांग्रेस के मानवाधिकार संबंधी एक पैनल ने जम्मू-कश्मीर से विशेष दर्जा समाप्त करने के बाद की स्थिति पर सुनवाई की।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

जम्मू-कश्मीर में जबसे अनुच्छेद 370 और 35 ए निष्प्रभावी हुए हैं, पश्चिमी देशों में भारत की नकारात्मक तस्वीर को उभारने वाली ताकतों को आगे आने का मौका मिला है। ऐसा अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के दूसरे देशों में भी हुआ है। 21 नवंबर को अमेरिका की एक सांसद ने प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव पेश किया। इस प्रस्ताव में जम्मू-कश्मीर में कथित मानवाधिकार उल्लंघन की निंदा करते हुए भारत-पाकिस्तान से विवादित क्षेत्र में विवाद सुलझाने के लिए बल प्रयोग से बचने की मांग की गई है। कांग्रेस सदस्य रशीदा टलैब (या तालिब) ने यह प्रस्ताव दिया। इलहान उमर के साथ कांग्रेस के लिए चुनी गईं पहली दो मुस्लिम महिला सांसदों में एक वह भी हैं, जो फिलिस्तीनी मूल की हैं।

सदन में 21 नवंबर को पेश प्रस्ताव संख्या 724 में भारत और पाकिस्तान से तनाव कम करने के लिए बातचीत शुरू करने की मांग की गई है। प्रस्ताव का शीर्षक है- ‘जम्मू- कश्मीर में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन की निंदा और कश्मीरियों के स्वयं निर्णय को समर्थन।’ इस प्रस्ताव का विशेष महत्व नहीं है, क्योंकि इसका कोई सह-प्रायोजक नहीं है। इसे सदन की विदेश मामलों की समिति को आगे की कार्रवाई के लिए भेजा जाएगा, जहां से कोई बड़ी कार्रवाई या बयान की आमतौर पर उम्मीद नहीं है।

लेकिन अमेरिकी संसद और मीडिया में पिछले तीन महीनों से लगातार ऐसा कुछ न कुछ जरूर हो रहा है, जिससे भारत की छवि को धक्का लगता है। सामान्यतः पश्चिमी देशों में भारतीय लोकतंत्र की प्रशंसा होती है, पर इन दिनों भारतीय व्यवस्था को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। बीते 19 नवंबर को काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के एक विमर्श में कश्मीर के बरक्स भारतीय लोकतंत्र से जुड़े सवालों पर विचार किया गया। उसके एक हफ्ते पहले अमेरिकी कांग्रेस के मानवाधिकार संबंधी एक पैनल ने जम्मू-कश्मीर से विशेष दर्जा समाप्त करने के बाद की स्थिति पर सुनवाई की।

अमेरिकी कांग्रेस की गतिविधियों पर निगाह रखने वाले पर्यवेक्षकों का कहना था कि इसके पीछे पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिकों और पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के करीबी लोगों का हाथ है और उन्होंने इस काम के लिए बड़े पैमाने पर धन मुहैया कराया है। टॉम लैंटोस आयोग के वास्तविक इरादों पर सवाल उठाते हुए कुछ पर्यवेक्षकों ने कहा कि इसने नोटिस के बिना सुनवाई की घोषणा की और ऐसा पैनल चुना, जो भारत का विरोधी है। उन्होंने पैनल में शामिल लोगों की मंशा पर भी संदेह जताया। इसमें एक मात्र भारतीय हिंदू और कश्मीरी पंडित सुनंदा वशिष्ठ थीं, जिन्होंने अपनी बात रखी। सोशल मीडिया में उनका वक्तव्य वायरल भी हुआ।


लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि पिछले तीन हफ्तों के छोटे से अंतराल में अमेरिकी संसद में कश्मीर को लेकर यह दूसरी सुनवाई थी। अमेरिकी सरकार का रुख भारत के पक्ष में जरूर है, पर जनता के बीच एक वर्ग भारत के खिलाफ माहौल बना रहा है। उसके पीछे भारतीय राजनीति के आंतरिक कारणों को उभारा जा रहा है। हाल में एक भारतीय अखबार में इस आशय की रिपोर्ट थी कि भारत के सामने अमेरिका और ब्रिटेन के नव-वामपंथ ने चुनौती पेश की है। इसमें कहा गया है कि न केवल भारत के विरोधियों ने पूरे वेग से हमले किए, वहीं भारत समर्थक राजनेताओं ने हाथ खींच लिए। साथ ही यह भी बताया कि पाकिस्तान के आक्रामक प्रहारों के बाद अब कुछ भारत समर्थक राजनेता सामने आए हैं। इनमें पीट ओलसन, फ्रांसिस रूनी और जॉर्ज होल्डिंग के नाम मुख्य रूप से हैं।

21 नवंबर को फ्रांसिस रूनी ने संसद में कहा कि इस्लामिक आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर समेत शेष भारत में खतरा पैदा कर रखा है और हमें आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में भारत का समर्थन करना चाहिए। एक लंबे अर्से से भारत विरोधी वक्तव्यों के बाद अमेरिका से भारत के पक्ष में यह एक वक्तव्य सुनाई पड़ा है। रूनी ने यह भी कहा कि भारत के सामने चीन की चुनौती भी है।

अमेरिका में अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनावों की तैयारी है। राजनेता अपने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए भी बयान देते हैं। अगस्त के आखिरी दिन वरिष्ठ सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने कहा कि कश्मीर के हालात को लेकर उन्हें चिंता है। अमेरिकी मुसलमानों की संस्था इस्लामिक सोसायटी ऑफ नॉर्थ अमेरिका के 56वें अधिवेशन में उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिकी सरकार को इस मसले के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव के समर्थन में खुलकर समर्थन करना चाहिए।

अमेरिकी राजनीति में डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद खासतौर से भारत के विरोध में बोल रहे हैं। अक्टूबर के महीने में ‘दक्षिण एशिया में मानवाधिकार’ विषय पर अमेरिकी संसद में हुई सुनवाई में भारत की खासी फजीहत की गई। इस सुनवाई में डेमोक्रेटिक पार्टी के कुछ सांसदों की तीखी आलोचना के कारण भारत के विदेश मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी। मोदी सरकार के मित्र रिपब्लिकन सांसद या तो इस सुनवाई के दौरान हाजिर नहीं हुए और जो हाजिर हुए उन्होंने भी भारतीय व्यवस्था की आलोचना की।


भारत की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी व्यवस्था को लेकर उन देशों में सवाल उठाए जा रहे हैं, जो भारत के मित्र समझे जाते हैं। डेमोक्रेटिक पार्टी को लगता है कि भारत में ‘मेजोरिटेरियन और संकीर्ण’ राजनीतिक धाराएं बह रही हैं, संस्कृति की उदात्त परंपराएं टूट रही हैं और सेक्युलर लोकतांत्रिक ढांचा टूट रहा है। डेमोक्रेट सांसद ब्रैड शर्मन की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस की एशिया सबकमेटी में केवल सांसदों ने ही भारत की फजीहत नहीं की, बल्कि अध्यक्ष ने ‘दर्शकों’ को भी अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया। ब्रैड शर्मन अमेरिकी कांग्रेस के इंडिया कॉकस के को-चेयरमैन हैं। यानी भारत-समर्थक भी इस बार भारत के खिलाफ खड़े नजर आए। अमेरिका के प्रतिनिधि सदन में भारतीय मूल की पहली महिला सदस्य प्रमिला जयपाल ने भी भारत की आलोचना की।

बहरहाल पिछले एक-दो हफ्तों में अमेरिकी राजनीति में भारत समर्थक तबका फिर से सक्रिय हुआ है। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के समर्थन में पीट ओलसन ने कहा कि 70 साल तक संविधान की इस अस्थायी व्यवस्था से जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को शेष भारत के कानूनों से अलग रहना पड़ा। अब इस राज्य के नागरिकों को भी वही अधिकार मिले हैं, जो शेष भारत के नागरिकों को प्राप्त हैं। इसी तरह जॉर्ज होल्डिंग ने भारत की कश्मीर नीति का समर्थन करते हुए कहा कि 370 एक निरुपयोगी व्यवस्था थी। उसका हटना अच्छा ही हुआ। रूनी, ओलसन और होल्डिंग तीनों रिपब्लिकन पार्टी के सांसद हैं।

इन बातों से क्या यह माना जाए कि अमेरिका की राजनीति में भारत की आंतरिक राजनीति के छींटे पड़ेंगे? रिपब्लिकन पार्टी का झुकाव भारत की ओर माना जाता रहा है, फिर भी बराक ओबामा के दौर में भारत-अमेरिका रिश्ते बेहतर ही हुए थे। क्या अब हालात बदलेंगे? अनुमान है कि आगामी चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रतिनिधि सदन में ताकत और बढ़ जाएगी। अमेरिकी संसद बहुत से मामलों में महत्वपूर्ण होती है।

जिस तरह अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी का वामपंथी रुझान बढ़ा है, उसी तरह ब्रिटेन में लेबर पार्टी का रुझान भी कठोर वामपंथी हुआ है। सितंबर के महीने में ब्रिटेन के मुख्य विरोधी दल लेबर पार्टी ने कश्मीर पर एक आपात प्रस्ताव पारित करते हुए पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन से कहा था कि वह कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को भेजकर वहां की स्थिति की समीक्षा करने की मांग करें और वहां की जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग करें। इस प्रस्ताव के बाद राजनीतिक सरगर्मियां तेजी से बढ़ीं। अगस्त के महीने में लंदन स्थित भारतीय उच्चायोग के बाहर हुए प्रदर्शन में लेबर पार्टी के सदस्य भी शामिल हुए।

उस प्रदर्शन में हुई हिंसा ने भारतीय नागरिकों के कान खड़े कर दिए। लेबर पार्टी के विरोध में भी माहौल बना। ब्रिटेन में अगले महीने चुनाव होने वाले हैं। वहां के भारतीय समुदाय के बीच लेबर पार्टी के बहिष्कार की बातें हो रही हैं। लेबर पार्टी बचाव की मुद्रा में आ गई है। हाल में एक अखबार की रिपोर्ट थी कि बीजेपी के विदेशी दोस्त उन जगहों पर लेबर पार्टी को वोट न देने को प्रोत्साहित करेंगे जहां कांटे की टक्कर होगी, इसका असर 12 दिसंबर को ब्रिटेन में होने वाले मध्यावधि आम चुनावों पर पड़ सकता है।

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