बादशाह खान मुसलमान थे, बीजेपी राज में भारत को यह बताना जरूरी क्यों लगा?
बादशाह खान तब क्या थे? तब वे राष्ट्रवादी थे। अब वे केवल मुसलमान रह गए, जब उनका नाम अस्पताल से हटाया गया। इस तरह राष्ट्रवाद के एक पुराने विशेषण को ढोने वाले को हटाकर राष्ट्रवाद के नये धारक अटल बिहारी वाजपेयी को तैनात कर दिया गया।
हरियाणा में बादशाह खान के नाम से एक अस्पताल का नाम बदलकर अटल बिहारी वाजपेयी अस्पताल कर दिया गया। हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और अंग्रेजी की पत्रकारिता में बीजेपी को नेशनलिस्ट कहा जाता है और हिन्दी में उसका अनुवाद राष्ट्रवादी के रुप में प्रचारित किया जाता है। विशेषण का बड़ा काम यह होता है कि वह सच को झूठ के रुप में स्थापित कर सकता है और झूठ को एक मात्र सच के रुप में महानता दिलवा सकता है।
लिहाजा समाज में विशेषण से कौन खेलता है, इसका अन्वेषण विश्लेषण के उपभोक्ताओं के लिए जरूरी हो जाता है। भारतीय समाज तो विशेषणों पर ही चल रहा है। लेकिन वह अपनी चाल चलन के लिए विशेषण में भी विशेष लगाता रहता है। जैसे पहले हम जब बड़े हो रहे थे तो वीआईपी नागरिक समाज में सबसे ऊंचे वर्ण के लिए इस्तेमाल किया जाता था। धीरे से उसमें एक और वी जुड़ गया। उसे वीवीआईपी कहा जाने लगा। जैसे उच्च वर्ण से लेकर निचले वर्ण तक में जब जाति की बात की जाती है कि हर वर्ण में यह संघर्ष दिखता है कि उस वर्ण की कौन जाति, किस जाति से ऊंची है।
वीवीआईपी का मतलब यह हुआ कि भारतीय समाज पुराने विशेषणों में कुछ नया जुड़ने की जरूरत महसूस कर रहा है, वरना समाज में कोई ऊंचा है, यह उच्चता का बोध खतरे में पड़ जा सकता है और यह भारतीय समाज की अपनी एक सांस्कृतिक पूंजी है, जिसे पूरे विश्व में अनूठा होने का दावा किया जाता है। इस विविधता और उसके बने रहने की महानता पर गर्व किया जाता है। इसी तरह एक नया शब्द जुड़ गया- महा। महाशक्ति, महानायक, महारैली, महादलित, महापंडित।
राष्ट्रवादी की अदला-बदली
बादशाह खान के नाम से अब तक अस्पताल क्यों था? बल्कि यह कहा जाए कि 2020 के बाद बादशाह खान के बारे में भारत में किसी को किसी से क्यूं पूछने की जरूरत ही होनी चाहिए कि बादशाह खान कौन थे। अस्पताल का नाम बादशाह खान रहेगा तो लोग पूछेंगे। लोगों को अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में पूछना चाहिए। ब्रिटिश गुलामी के खिलाफ लड़ने वाले बादशाह खान गांधी के हम सफर थे। पूरा जीवन अपने साथ एक पोटली में बंधे सामानों पर आश्रित रहे। गांधी जैसे लंगोटी पहनते थे। जब भारत बंटा तो वे पाकिस्तान की तरफ ही ठहर गए। वे बंटवारे की गति में शामिल ही नहीं दिखना चाहते थे। वे राष्ट्रवादी कहलाते थे। अटल बिहारी वाजपेयी अंग्रेजी गुलामी के खिलाफ लड़ने वालों के साथ नहीं थे, यह जगजाहिर है।
बादशाह खान ने विभाजन की गति को स्वीकार नहीं किया तो उन्हें अब क्या कहा जाए। यह जटिल प्रश्न बादशाह खान ने पूरे समाज के सामने छोड़ दिया। जो अब तक नहीं सुलझाया जा सका। राष्ट्रवाद का विशेषण का लगना कैसे तय होगा। अंग्रेजी गुलामी के खिलाफ लड़ने की वजह से तय होगा या विभाजन की गति को स्वीकार नहीं करने के कारण अपने गांव की तरफ ही रुक जाने की वजह से होगा, जो गांव पाकिस्तान के नक्शे में दिखाया जाता है। राष्ट्रवाद शायद नक्शे का ही होता है। क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी ने अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी के खिलाफ नहीं लड़ाई लड़ी, लेकिन वे राष्ट्रवादी नेता कहलाने लगे, क्योंकि उस पार उनकी विचारधारा के समानांतर दूसरी टोपी वाली विचारधारा ने अपना राष्ट्र का नक्शा तैयार कर लिया।
शब्द का मुंह और पीठ
राष्ट्रवाद दरअसल एक ऐसा हथियार है, जो उनके खिलाफ सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है जो कि मानवता और मानवीयता के सबसे करीब होते हैं। जैसे-जैसे मानवीयता और मानवता से दूरी हटती जाती है, राष्ट्रवाद का हथियार उसके खिलाफ अपेक्षाकृत कम हमलावर होता जाता है। भारत में जो राष्ट्रवादी के विशेषण से विभूषित किए गए, उन्होंने उनकी पहचान शुरू की है कि विशेषण का हकदार कौन हो सकता है। उसमें उन्होंने सबसे पहले पहचान कराई नये मुसलमानों से कि किन मुसलमानों को राष्ट्रवादी कहा जाए। मुसलमान सिर्फ मुसलमान नहीं रह गया।
जब मुसलमानों में राष्ट्रवादी की पहचान की जाने लगी तो जाहिर है कि उनके बीच में राष्ट्रविरोधी, राष्ट्र द्रोही की मौजूदगी का खाका खींचा जा चुका है। दरअसल शब्द अपने चेहरे से ज्यादा अपने चाल से समाज को संचालित करते हैं। शब्द का मुंह जो बोल रहा है, उससे ज्यादा उसकी पीठ पर यह देखना होता है कि वह क्या ढो रहा है। समाज में जो सांस्कृतिक वर्चस्व रखता है, वह एक शब्द को तैयार करता है और वह तैयारी करते हुए दिखता है। लेकिन वह एक शब्द की वर्ण व्यवस्था तैयार करता है। या फिर कह सकते हैं कि एक श्रृंखला तैयार करता है। यह समाज की दिशा और दशा को सुनिश्चित करता है।
बुद्धि की व्यायामशाला
बादशाह खान तब क्या थे? तब वे राष्ट्रवादी थे। अब वे केवल मुसलमान रह गए, जब उनका नाम अस्पताल से हटाया गया। इस तरह राष्ट्रवाद के एक पुराने विशेषण को ढोने वाले को हटाकर राष्ट्रवाद के नये धारक अटल बिहारी वाजपेयी को तैनात कर दिया गया। इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि मुसलमानों के साथ राष्ट्रवादी विशेषण का इस्तेमाल एक वक्त की राजनीतिक जरूरत थी और है। तो वह किस राजनीति की जरूरत थी?
हर मुसलमान के बादशाह खान दिखने और दिखाने की राजनीति का ही वह हिस्सा था। दरअसल वर्चस्व किसी भी वैसे समूह और समुदाय को भ्रमित रहने की राजनीति में उलझाकर रखता है जो कि उसके मातहत है। और खासतौर से तब जब वर्चस्व की संस्कृति के वाहक केवल बुद्धि की व्यायाम शाला के नाम मात्र सदस्य हो। राष्ट्रवाद शब्द भर को हम हथियार क्यों मानें, क्योंकि एक मुसलमान के साथ लग जाने के साथ ढेरों मुसलमानों पर वार करने लगता है। इस शब्द की राजनीतिक यात्रा को हम इस रूप में देखें कि मौजूदा दौर में वह मुसलमानों के बड़े हिस्से पर तलवार की तरह लटका रहता है।
राजनीति के लिए शब्द हथियार भी होते हैं और फूल पौधे भी लगा सकते हैं। भारतीय समाज को जिन शब्दों और खासतौर से विशेषणों से संचालित होते हम अनुभव करते हैं, वह शब्द वर्चस्व के हैं। वर्चस्व अपनी आड़ के लिए विशेषणों का एक जखीरा तैयार कर लेता है, जिसके ऊपर मलमल बिछा लेता है। इस बात का अध्ययन किया जा सकता है कि प्रगतिशीलता शब्द को किसने सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया।
क्या वह पतनशील मूल्यों की सुरक्षा की आड़ के लिए ज्यादा इस्तेमाल हुआ या फिर प्रगतिशील मूल्यों को विकसित करने के लिए हुआ। जो वास्तव में प्रगतिशील थे, उन्हें कट्टर कहा जाने लगा। जैसे कम्युनिस्टों में एक विशेषण जोड़ दिया गया। कट्टर कम्युनिस्ट हैं। बाद में कट्टर में भी एक जाति विकसित की गई। उन्हें अव्यवहारिक कहते सुना गया। व्यवहार में ढल जाने का मतलब क्या होता है? इसके सिवाय व्यवहारिक होना और कुछ नहीं होता कि व्यवहारिक व्यक्ति ने वर्चस्व की संस्कृति का वाहक होने की स्वीकृति दे दी है। अस्वीकृत करने वाला कट्टर कहलाता है और वह कट्टर महान विशेषणों के खाने से बाहर होता है।
सत्ता के शब्द हिन्दुस्तानी सत्ताधारियों को हस्तांतरित हो गए
भारतीय समाज में एक संस्कृति की तरह यह विकसित की गई है कि एक विशेषण को सुनने वाला उस विशेषण से गदगद होकर उसमें बहुत सारे महान विशेषण खुद जोड़ देता है। जैसे कोई खुद को केवल ईमानदार साबित कर दे तो वह अपने जातिवादी, साम्प्रदायिक, महिला विरोधी छवि आदि को ढंक सकता है। इसीलिए हम अनुभव करते हैं कि वर्चस्व की संस्कृति में यकीन रखने वाले लोग कोई एक विशेषण हासिल करने की जुगत में रहते हैं और फिर उससे पूरे भारतीय समाज के बहुत सारे विशेषणों के साथ पूजने लगता है।
जिस तरह से राष्ट्रवादी शब्द मारने और फलने-फूलने का हथियार बन गया। उसी तरह जब ब्रिटिश हुकूमत थी तब उसकी गुलामी से लड़ने वाले भगत सिंह को आंदोलन करने वाले क्रांतिकारी कहते थे, लेकिन ब्रिटिश सत्ता उन्हें आतंकवादी कहती थी। अंग्रेजों के जाने के बाद जो क्रांतिकारी कहलाते थे, वे सब आतंकवादी कहलाने की राह पर खड़े कर दिए गए। भारतीय समाज में आंदोलन द्वारा जिन शब्दों की खोज की गई, उन्हें सत्ता के शब्दों से विस्थापित कर दिया गया।
पहले सत्ता ने कई शब्द गढ़े थे, लेकिन धीरे-धीरे कई शब्दों के बदले एक शब्द स्थापित कर दिए गए। कम्युनिस्ट क्रांतिकारी, उग्रवादी, अलगाववादी, हथियारबंद वगैरह-वगैरह। लेकिन अब एक शब्द से काम चल सकता है- आतंकवादी। दरअसल आजादी से पहले जो भी शब्द सत्ता के थे, वे सत्ता के लिए हिन्दुस्तानी सत्ताधारियों को हस्तांतरित हो गए। आजादी के बाद आंदोलन भी सत्ता के शब्दों के साथ होते हैं।
हरियाणा के अस्पताल से बादशाह खान का नाम हटा क्योंकि हरियाणा के सत्ताधारियों ने बादशाह खान को एक शब्द में तब्दील करने की राजनीति की। बादशाह खान मतलब मुसलमान शब्द हटा है। जिन्हें पहले राष्ट्रवादी मुसलमान कहा जाता था। उस राजनीति का दूसरा चरण जारी है। मुसलमानों के लिए राष्ट्रवादी आजादी के पहले की साम्प्रदायिक राजनीति का विशेषण था। अब मुसलमान शब्द ही काफी है।
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