जातीय जनगणना की मांग से उत्साही मंडल के सामने आखिर क्यों छूट रहे हैं कमंडल के पसीने!

बीजेपी 2011 जनगणना में इकट्ठा किए गए जातियों के आंकड़े जारी करने से कतराने के साथ जातीय जनगणना कराने को भी टालती रही है। कांग्रेस ने मंडल वाली पार्टियों के साथ मिलकर इसे हवा देना आरंभ किया है। यह इस दफा बीजेपी के लिए भारी पड़ेगा।

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अनुराधा रमन

जातीय जनगणना के लिए शोर को नया सहारा मिला है जब कांग्रेस ने पहली दफा इस मांग को सुस्पष्ट तरीके से समर्थन दिया है। राहुल गांधी ने कर्नाटक के कोलार में आयोजित सभा में दावा किया कि केंद्र सरकार के सिर्फ सात प्रतिशत सचिव अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग समुदायों से हैं। उसके अगले ही दिन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर 2011 जनगणना में इकट्ठा किए गए जातियों के आंकड़े जारी करने, आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा हटाने और जातीय जनगणना कराने की मांग की।

'उच्च जाति के कुलीन', आरएसएस और बीजेपी यह कहते हुए आरक्षण और जाति के विरोध में हैं कि 'जाति नहीं, विकास का मतलब है', लेकिन आंकड़े कुछ दूसरी ही कथा कहते हैं। सरकारी नौकरियों में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण के बावजूद उच्च जातियों के लोगों का असंगत प्रतिनिधित्व है, जबकि दूसरे समुदायों के लिए कोटे तक नहीं भर पाते। 2019 में द हिन्दू ने रिपोर्ट दी कि केंद्र सरकार के 82 सचिवों में से सिर्फ 4 ही एससी और एसटी से थे। कार्यरत 457 सचिवों, संयुक्त सचिवों और अतिरिक्त सचिवों में सिर्फ 12 प्रतिशत ही एससी और ओबीसी से थे।

वैसे, केंद्र सरकार और बीजेपी भाजपा- दोनों ने इस मांग पर अब तक ठंडा रुख ही रखा है। 2021 में जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य की 10 पार्टियों के प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात की थी, तो प्रधानमंत्री ने अपनी राय नहीं बताई थी। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिए शपथ पत्र में 'जातीय जनगणना' को 'अव्यावहारिक' बताया था और प्रशासनिक कठिनाइयां बताई थीं। आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि यह 'आरक्षण' की समीक्षा का समय है। उन्होंने जोड़ा कि जाति कोई मायने नहीं क्योंकि हर व्यक्ति हिन्दू है। 2011 जनगणना से पहले उच्च जाति के कुछ वर्गों ने लोगों को अपनी जाति 'हिन्दुस्तानी' बताने के लिए प्रेरित करने की आधी-अधूरी कोशिश की थी। लेकिन भाजपा सोशल इंजीनियरिंग को लेकर शेखी बघारती है और हर चुनाव से पहले पार्टी अपने उम्मीदवारों का जातीय विवरण नियमित तौर पर जारी करती है।

राहुल गांधी ने 'जितनी आबादी, उतना हक' का जो नारा दिया है, वह 1960 के दशक में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के नारे 'संसोपा ने बांधी गांठ/पिछड़े पावे सौ में साठ' और 1970 के दशक में कांशीराम के नारे 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' की याद दिलाता है। कांग्रेस नेता कन्हैया कुमार कहते भी हैं कि राहुल गाधी ने जो कहा है, वह कोई नई बात नहीं है और किसी-न-किसी वक्त ब्राह्मणों, जाटों और मराठाओं समेत सभी समुदाय ने आरक्षण की मांग की है। और तब भी, नौकरशाही में असंगत संख्या तक नौकरियां उच्च जातियों के पास हैं। यही नहीं, आर्थिक तौर पर कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण के बाद उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए स्थिति साफ करना और जातीय जनगणना कराना महत्वपूर्ण है।

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प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कांग्रेस अध्यक्ष ने रेखांकित किया कि पहली बार 'यूपीए ने 25 करोड़ से अधिक परिवारों को शामिल करते हुए 2011-12 के दौरान आर्थिक और जातीय जनगणना करवाई... कई कारणों से यह प्रकाशित नहीं हो सकी... सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण कार्यक्रमों के लिए विश्वसनीय आधारभूत आंकड़े अतिआवश्यक हैं... यह जनगणना केन्द्र सरकार की जवाबदेही है।' उससे एक ही दिन पहले राहुल गांधी ने ट्वीट किया था कि 'प्रधानमंत्री जी, सुविधा से वंचित लोगों को आर्थिक और राजनीतिक शक्ति की जरूरत है, महज खाली शब्द नहीं।' महामारी के बहाने 2021 में नहीं हुई दसवार्षिकीय जनगणना की गणना सुनिश्चित करने का प्रधानमंत्री से अनुरोध करते हुए खरगे के पत्र में कहा गया कि 'नवीनतम जातीय जनगणना के अभाव में, मैं चिंतित हूं कि, अर्थपूर्ण सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण कार्यक्रमों के लिए विश्वसनीय आधारभूत आंकड़े अपूर्ण हैं।'

द वायर में अजय आशीर्वाद महाप्रशस्त ने लिखा कि 'पिछले दो दिनों में शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व ने जातीय जनगणना की जिस तरह समन्वित मांग की है, वह इस पुरानी महत्वपूर्ण पार्टी की राजनीतिक रणनीति में उल्लेखनीय परिवर्तन का प्रतीक है जो वह कल्याणकारी और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के अर्थपूर्ण कार्यान्वयन के लिए जातीय जनगणना को बेहतर माप के तौर पर पेश कर रही है।' महाप्रशस्त ने जोड़ा कि कांग्रेस सैद्धांतिक तौर पर उन मंडल आधारित राजनीतिक दलों के और निकट बढ़ गई है जिन्होंने स्पष्ट तौर पर मांग की है कि नौकरियों और कल्याणकारी योजनाओं में समुदाय की हिस्सेदारी उतनी होती दिखनी चाहिए जितनी उनकी संख्या है।

2011-12 के एनएसएस आंकड़े में आबादी में दलितों का प्रतिशत लगभग 19, आदिवासियों का करीब 9 और ओबीसी का लगभग 44 दिखाया गया है- मतलब, यह सैंपल का कुल 72 प्रतिशत है। अशोका यूनिवर्सिटी के त्रिवेदी सेंटर के अध्ययन में पिछले तीन संसदीय चुनावों में जातियों के बीच शक्ति का असमान वितरण ही सामने आया है- उच्च जातियों की संख्या 29 प्रतिशत है, ओबीसी और मध्यवर्ती जातियों के सांसद 37 प्रतिशत हैं।

पूर्व लोकसभा महासचिव पीडीटी आचार्य कहते हैं कि संविधान में जाति को खत्म नहीं किया गया है और इसलिए यह इस तरह जारी है कि शक्ति संरचना से कोई भी जातियों को अलग नहीं कर सकता। वह इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि 'ऐसा क्यों है कि संसद और विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण है लेकिन स्थानीय नगर निकायों में ओबीसी के लिए इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है।'

अंतिम जाति-आधारित जनगणना अंग्रेजों ने 1931 में करवाई थी और अंग्रेजों से भारत की आजादी के बाद निर्वाचित सरकारों ने जाति के बंधन से भारतीय समाज को मुक्त करने के अपने लक्ष्य के तहत इस तरह की जनगणना नहीं कराई। लेकिन जाति के अफसाने का दूसरा पक्ष भी है। मंडल के बाद ओबीसी साफ तौर पर पहचाने जाने वाले समूह हैं जो सब दिन राजनीतिक तौर पर शक्तिशाली रहते आए हैं। जैसा कि आचार्य कहते हैं, शक्ति उच्च जाति की तरफ से दूर होती लग रही है; वह इस बात पर आश्चर्य जताते हैं कि आखिर, राज्य विधानसभाओं ने ओबीसी के लिए कोटा का प्रावधान करने वाले कानून क्यों नहीं बनाए हैं।

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2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) से देश में जातियों पर व्यापक डेटा उपलब्ध कराने की अपेक्षा थी। लेकिन जब 2015 में इस सर्वेक्षण को जनता के सामने लाने का वक्त आया, तो नरेन्द्र मोदी सरकार ने पारदर्शिता पर अधिकार को चुना।

2015 में एसईसीसी के गरीबी और अभाव के डेटा में पाया गया कि गोत्र के नाम, उपनाम और ध्वन्यात्मक भिन्नताओं समेत लगभग 40.6 लाख विशिष्ट जाति नाम वापस हो गए हैं जिससे परिणामों की विवेचना असंभव है। तब से एसईसीसी जाति आंकड़े के बारे में कुछ भी नहीं सुना गया है। नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया को उसी साल एसईसीसी डेटा का उपयोग करते हुए जाति वर्गीकरण को स्पष्ट करने के लिए समिति की अध्यक्षता करने को कहा गया।

इसकी जगह यह है कि राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 50 प्रतिशत की सीमा के उल्लंघन के प्रयास पर बल दिया। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु एक उदाहरण है जिसका अन्य राज्यों ने अनुकरण करने का प्रयास किया है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के शिक्षक रेहिमोल रवीन्द्रन ने इंडियन एक्सप्रेस में रेखांकित किया कि ओबीसी आरक्षण को तब बल मिला जब 2018 में भाजपा के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने ओबीसी श्रेणी के अंतर्गत मराठा समुदाय को आरक्षण का विस्तार किया। ऐसा तब भी किया गया जबकि राज्य को ओबीसी आरक्षण को बढ़ाने के अधिकार नहीं हैं। सिर्फ केन्द्र ही इस तरह का काम कर सकता है।

फिर, संसद ने राज्यों को अपनी ओबीसी सूची बनाने की अनुमति देने वाला 105वां संविधान संशोधन किया। सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत की सीमा भंग करने के लिए और इसलिए भी की कि तिहरी जांच मानदंड पूरा न करने के लिए इसे रद कर दिया जिसमें ओबीसी के लिए अनुभवजन्य डेटा की मांग की गई थी जिसे देने में राज्य सरकार विफल रही। बाद में, मध्य प्रदेश नगर और पंचायत चुनावों में सीटों के आरक्षण के लिए सर्वेक्षण डेटा देने में सक्षम रहा।

आरक्षण के लिए मराठाओं की मांग गुजरात में पाटीदारों और हरियाणा में जाटों द्वारा की गई मांग की तरह थी। पीछे छोड़ दिए जाने की चिंता और आगे बढ़ने में अक्षमता ने आरक्षण के लिए उनकी मांग को तेज किया और इसके साथ ही यह सकारात्मक कार्यवाही की भावना के विपरीत था।

रवीन्द्रन कहते हैं कि अगर राजनीतिक प्रतिनिधित्व आरक्षण का लक्ष्य है, तो ओबीसी न सिर्फ सरकारी संस्थानों में बल्कि राजनीति में भी कम प्रतिनिधित्व वाले हैं। यही नहीं, उच्च जातियों के लिए आरक्षण ने जातीय जनगणना और आरक्षण के लिए मांग को नए सिरे से शक्ति दी है।

यूपी योजना आयोग के पूर्व सदस्य और शिक्षक सुधीर पंवार कहते हैं कि किसी भी अन्य पार्टी से अधिक भाजपा ने अपने हिन्दुत्व लक्ष्य की कोशिश के लिए धर्म के साथ आरक्षण की बात का बराबर विरोध किया है। वह कहते हैं कि 'देखें कि भाजपा ने किस तरह अयोध्या के जरिये मंडल का प्रतिकार करने की कोशिश की।' वह जोड़ते हैं कि ओबीसी की गिनती से हिन्दुत्व योजना का क्षरण होगा।

यह बात आश्चर्य की तरह है जो कहते हैं कि यह संख्या का भय है जिस वजह से भाजपा ओबीसी की संख्या को पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग में कमजोर करने के लिए उकसाती है। कई राज्यों में उच्च जातियां 10 से 15 प्रतिशत हैं जिनके समर्थन से वह 2024 आम चुनावों में सत्ता में वापसी की उम्मीद नहीं कर सकती। सामाजिक न्याय और बढ़ती असमानता कल्याणकारी योजनाओं को पूरा करने और राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अशंकित नीतियों की जरूरत हैं, जातीय जनगणना की मांग पर जोर को चुनावों और चुनावी रणनीति के चश्मे से देखा जा रहा है।

वैसे, मीडिया में आए लोकनीति-सीएसडीएस के आंकड़े में कहा गया है कि 2019 लोकसभा चुनावों में भारत भर में एनडीए को उच्च जातियों के 59 प्रतिशत, ओबीसी वोटों का 54 प्रतिशत, आदिवासी वोटों का 46 प्रतिशत और दलित वोटों का 41 प्रतिशत हिस्सा मिला। लेकिन यूपीए को मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, गुजरात, झारखंड और पंजाब में एनडीए की तुलना में अधिक दलित वोट मिले जबकि यह हरियाणा और बिहार में पीछे रहा।

साफ तौर पर, संख्याएं एक कहानी बताती हैं और राजनीतिक लड़ाई के मैदान में संख्याओं को अलग नहीं किया जा सकता।

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