आकार पटेल का लेख: सिविल सोसायटी को लेकर कुछ तो खोट है सरकार की नीति में, तभी तो कसना चाहती है एनजीओ पर नकेल

आज भारत हथियारों और गोला-बारूद से लेकर पेट्रोलियम और फार्मास्यूटिकल्स और ऐसी सभी चीजों में विदेश निवेश को बढ़ावा देता है जिनकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते। लेकिन स्वास्थ्य, शिक्षा और मानवाधिकारों पर निवेश को प्रतिबंधित करता है। सरकार की ऐसी नीति और नीयत में निश्चित रूप से कोई तो खोट है।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम या फॉरेन कंट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट एक अजीब पुराना कानून है। यह कानून 1976 में भारत की चुनावी प्रक्रिया और लोकतंत्र में बाहरी हस्तक्षेप को रोकने के लिए बनाया गया था। इस कानून के आने से राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों, पत्रकारों और समाचार पत्रों के प्रकाशकों, न्यायाधीशों, नौकरशाहों और संसद के सदस्यों के विदेशी धन हासिल करने पर रोक लग गई थी।

वक्त के साथ जब उदारीकरण का दौर शुरु हुआ तो इनमें से कई श्रेणियों को कानूनी रूप से विदेशी धन हासिल करने की अनुमति मिल गई और भारत सरकार ने भी इस तरह के धन को लाने को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया। आखिरकार, यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है जिसके आंकड़े मौजूदा सरकार नियमपूर्वक गर्व के साथ बताती है। उदाहरण के लिए मीडिया, प्रिंट और टेलीविजन दोनों और निश्चित रूप से ऑनलाइन (जो आज का सबसे प्रमुख प्रभावशाली मीडिया है) न केवल विदेशी निवेश प्राप्त कर सकता है, बल्कि इस पर विदेशी निवेश हावी भी हो सकता है। भारत में सबसे बड़ी मीडिया कंपनियां फेसबुक और गूगल हैं, जो पूरी तरह से विदेशी स्वामित्व वाली और प्रबंधित हैं। समाचार पत्र और समाचार चैनल विदेशी कंपनियों से इक्विटी निवेश प्राप्त कर सकते हैं।

यहां तक ​​कि राजनीतिक दल भी एफसीआरए से बचते हुए निवेश हासिल करते रहे हैं। जनवरी 2013 में, दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी जिसमें दावा किया गया था कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को एक ही कंपनी वेदांता/स्टरलाइट से दान मिला था, जो एफसीआरए अधिनियम का उल्लंघन था। 28 मार्च 2014 को, अदालत ने कहा कि बीजेपी और दोनों कांग्रेस एफसीआरए उल्लंघन के दोषी हैं। अदालत ने मोदी सरकार और चुनाव आयोग को दोनों पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया।

2015 के दिसंबर में, खबर आई कि सरकार कानून में संशोधन कर रही है जिससे दोनों पार्टिंयो को इससे मोहलत मिल जाएगी। इस तरह 2016 के बजट में विदेशी स्रोतों की परिभाषा को बदल दिया गया और इस तरह दोनों राजनीतिक दलों को मिला दान वैध हो गया। दुर्भाग्य से, यह बदलाव काफी भौंडेपन के साथ किया गया, जिससे राजनीतिक दलों को दिक्कत होने लगी, इसलिए 2018 में फिर से संशोधन किया गया ताकि राजनीतिक दलों को पूर्ण मोहलत मिल जाए। आखिरकरा मार्च 2018 में एक बेहद हास्यास्पद तरीके से इस कानून में संशोधन कर दिया गया।


एफसीआरए की यह राजनीतिक पृष्ठभूमि है, कि इस कानून की आखिर मंशा क्या थी। पिछले कुछ वर्षों में दरअसल हुआ यह है कि राजनीति दलों पर विदेशी प्रभाव को कम करने के लिए बनाए गए कानून को तोड़मरोड़कर गैर-लाभकारी संगठनों के खिलाफ एक हथियार का रूप दे दिया गया। वैसे तो कोई भी सरकार सिविल सोसाइटी नाम के क्षेत्र को पसंद नहीं करती है, लेकिन बीजेपी की तो सिविल सोसायटी से जैसे दुश्मनी ही है। इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक (पीएम नरेंद्र मोदी का कहना है कि वह एनजीओ की साजिश का शिकार है, 21 फरवरी 2016) भुवनेश्वर में एक भाषण में प्रधानमंत्री ने इस विषय पर अपने विचार रखे थे। लेकिन मोदी इस बात का कोई सबूत सामने नहीं रख पाए कि एनजीओ विदेशी एजेंट हैं, लेकिन फिर भी वह इस बात पर अडिग थे कि एनजीओ उनकी सरकार गिराने की कोशिश कर रहे हैं।

पूरे मोदी युग में, केंद्र सरकार सक्रिय रूप से एनजीओ क्षेत्र के पर कतरने की कोशिश करती रही है। भारत में 30 लाख से अधिक ऐसे संगठन हैं, जिनमें छोटे-मोटे संगठनों से लेकर दुनिया के सबसे शक्तिशाली एनजीओ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक शामिल हैं। ये संगठन शिक्षा, आपदा राहत, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, मानव अधिकार, आपराधिक न्याय प्रणाली, पर्यावरण, कृषि और तमाम इसी तरह के मुद्दों पर काम करते हैं। एक रिपोर्ट का अनुमान है कि 2014 और 2018 के बीच इन समूहों की विदेशी फंडिंग में लगभग 40% कटौती हुई है।

और अब फिर इस महीने एफसीआरए में किए गए एक और संशोधन ने इन संगठनों पर शिकंजा कसने की कोशिश की है। इस संशोधन को बिना किसी अग्रिम सूचना या सलाह-मशविरे पेश किया गया और बिना किसी बहस के पारित कर दिया गया। इस संशोंधन के बाद स्थिति यह बनी है कि गैर-सरकारी संगठनों के लिए भारत में कार्य करना और भी कठिन हो जाए गा और नौबत ऐसी आ सकती है कि वे काम ही करना बंद कर दें।

मैंने कुछ वर्षों तक इस क्षेत्र में काम किया है और यह कह सकता हूं कि इस में बेहद उच्च प्रतिबद्धता वाले लोग काम करते हैं। ये लोग ऐसे कई क्षेत्रों में काम करते हैं जिन्हें सरकार नहीं कर सकती। ये वह काम हैं जो दुनिया के बड़े हिस्सों में और लोकतांत्रिक दुनिया के सभी हिस्सों में बिना किसी रुकावट के होते हैं। भारत के एनजीओ सेक्टर को धीरे-धीरे जो नुकसान पहुंचाया जा रहा है उसके पीछे बीजेपी की वह सोच है कि इन संगठनों का कोई बहुत बड़ा छिपा हुआ एजेंडा है। लेकिन इन सगंठनों में कुछ बेहद प्रतिष्ठित संगठन हैं, और मैंने जिस संगठन के लिए काम किया है उसे तो नोबेल शांति पुरस्कार तक मिल चुका है। इन संगठनों को सताना और परेशान करना भारत या उसके लोगों, यहां तक ​​कि सरकार के हित में नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा ही रहा है और वास्तविकता यह है कि उनमें से कई, जो पहले से ही सरकार के हमले झेल रहे हैं अपना कामकाज बंद कर देंगे और जो बचेंगे वे अपने काम का दायरा समेट लेंगे।


सिविल सोसायटी प्रतिबद्ध लोगों से भरी हुई है और उनके बहुत से काम जारी रहेंगे क्योंकि ये ऐसे लोग हैं पैसे के लिए यह काम नहीं कर रहे हैं। मैंने इन्वेस्टमेंट बैंकिंग, कानून और मीडिया की पृष्ठभूमि वाले लोगों के साथ काम किया है, जिन्होंने अपनी कॉर्पोरेट नौकरी की तुलना में बहुत कम आमदनी पर एनजीओ में काम करना चुना है। ऐसे भारतीय अपना काम जारी रखेंगे और यह शर्म की बात है कि अब इनके लिए रुकावटें खड़ी की जा रही हैं।

आज भारत हथियारों और गोला-बारूद और बमों और बंदूकों और शराब और तंबाकू, और पेट्रोलियम और फार्मास्यूटिकल्स और अन्य सभी चीजों, जिनकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते, उनमें विदेशी निवेश को आमंत्रित करता है। लेकिन, यह स्वास्थ्य, शिक्षा और मानवाधिकारों पर भारत में निवेश को प्रतिबंधित करता है। सरकार की ऐसी नीति और नीयत में निश्चित रूप से कोई तो खोट है।

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