आगामी दशकों में किसका आधिपत्य तेजी से बढ़ेगा, युद्ध की बढ़ती संभावनाओं से कैसे बचे विश्व?
मौजूदा राजनीतिक विश्लेषण में प्रायः यह सवाल उठाया जाता है कि आगामी दशकों में किसका आधिपत्य अधिक तेजी से बढ़ेगा? संयुक्त राज्य अमेरिका का या चीन का? क्या रूस एक बड़ी ताकत बना रह सकेगा? क्या किसी अन्य बड़ी शक्ति का उभार होगा?
वर्ष 1990 के आसपास सोवियत संघ विघटन के आसपास संयुक्त राष्ट्र संघ की अनेक रिपोर्टों में कहा गया था कि अब शीत युद्ध समाप्त हो रहा है, अतः सैन्य खर्च कम होने के साथ विश्व में गरीबी और अभाव दूर करने के लिए और पर्यावरण की रक्षा के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध होंगे।
यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है और विश्व एक के बाद एक दूसरे ऐसे युद्ध से त्रस्त होता गया जिनसे आसानी से बचा जा सकता था। इस समय विश्व में 50 से अधिक युद्ध और गृह युद्ध चल रहे हैं जिनसे भयंकर तबाही हो रही है।
अनेक राजनीतिक विश्लेषकों ने कुछ समय पहले कहना आरंभ किया कि विश्व में नए शीत युद्ध के समीकरण तैयार हो रहे हैं। पिछले शीत युद्ध में एक ओर संयुक्त राज्य अमेरिका के नेत्तृत्व में मुख्य पूंजीवादी देश थे और दूसरी ओर सोवियत संघ और उससे जुड़े अनेक साम्यवादी देश थे। परमाणु हथियारों से लैस यह दोनों गुट अनेक दशकों तक परस्पर बहुत संदेहों, प्रतिस्पर्धा और तनावों के दौर में रहे। कभी-कभी वास्तविक युद्ध के नजदीक आए पर उनकी और विश्व की खुशकिस्मती रही कि उनमें परमाणु हथियारों के उपयोग वाला कोई खुला युद्ध नहीं हुआ। अलबत्ता पूरी तैयारी की स्थिति में परमाणु हथियारों को तैयार जरूर रखा गया। इन दो गुटों में प्रत्यक्ष खुला युद्ध न होने पर भी अनेक क्षेत्रों में इन गुटों के बीच ‘प्राक्सी’ युद्ध होते रहे यानि कि दोनों गुटों का शक्ति परीक्षण अन्य देशों की धरती पर होता रहा। इन प्राक्सी युद्धों में भी लाखों लोग मारे गए और भयंकर तबाही हुई।
मौजूदा राजनीतिक विश्लेषण में प्रायः यह सवाल उठाया जाता है कि आगामी दशकों में किसका आधिपत्य अधिक तेजी से बढ़ेगा? संयुक्त राज्य अमेरिका का या चीन का? क्या रूस एक बड़ी ताकत बना रह सकेगा? क्या किसी अन्य बड़ी शक्ति का उभार होगा? पर इन सबसे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि आधिपत्य की इस होड़ को समाप्त कर, इससे जुड़े तनावों को समाप्त कर, स्थाई अमन-शांति की स्थापना कब हो सकेगी। विश्व की अन्य बड़ी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी इस समय अमन-शांति की जितनी जरूरत आज है उतनी पहले कभी नहीं थी।
व्यापार के नियम ऐसे होने चाहिए जो किसी के आधिपत्य को न बढ़ाएं अपितु न्यायसंगत हों, सभी देशों के वहां के जनसाधारण की रोजी-रोटी के हित में हों। अन्तर्राष्ट्रीय करेंसी या मुद्रा का सवाल और भी महत्त्वपूर्ण है। इस समय एक कृत्रिम स्थिति है कि किसी एक देश की मुद्रा (संयुक्त राज्य अमेरिका के डॉलर) को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा की मान्यता प्राप्त है। यह निर्णय द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की विशेष स्थितियों में लिया गया। उस समय भी यह विवादास्पद था, पर बाद में रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रपति काल में जब अमेरिका ने एक तरफा ‘गोल्ड स्टैंडर्ड’ से हटने का निर्णय लिया तो इस पर और भी सवालिया निशान लग गए। पहले संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की ओर से औपचारिक गारंटी थी कि अमेरिकी डालर के बदले में सोना उपलब्ध है। पर इस गारंटी को एकतरफा निर्णय से हटा लिया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका के कर्ज बढ़ने से भी अमेरिकी डॉलर की सर्वमान्यता पर सवाल लगे। केवल अमेरिका की सैन्य शक्ति के बल पर अमेरिकी डॉलर की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में सर्वमान्यता कब तक टिकेगी, इसके बारे में सवाल हैं। अतः विभिन्न देश कुछ हद तक वैकल्पिक व्यवस्थाओं की ओर बढ़ने लगे हैं, पर इस बड़े मुद्दे का अमन-शान्ति के माहौल में समाधान प्राप्त करना जरूरी है।
यह समाधान ऐसा होना चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था में कोई बड़ा भूचाल न आए। साथ में समाधान ऐसा होना चाहिए कि संयुक्त राज्य अमेरिका को भी संभलने का और अपनी अन्तर्राष्ट्रीय साख बचाने का पूरा अवसर मिले। यह एक बड़ा सवाल है कि क्या ऐसे बड़े व जरूरी बदलाव अमन-शांति के माहौल में लाए जा सकते हैं? इस तरह की क्षमता विकसित करना आज विश्व के लिए बहुत जरूरी हो गयी है।
सोवियत संघ का विघटन एक दिन होना ही था तो अच्छा हुआ कि वह बिना किसी बड़े युद्ध के हो गया। पर उसके बाद शीत युद्ध समाप्त कर अमन-शांति का नया दौर आरंभ करने का जो बड़ा अवसर विश्व को मिला था वह उसने खो दिया। वजह वही थी कि मूल प्रवृत्ति आधिपत्य की थी। बड़े पूंजीवादी देशों ने सोचा कि यह समय रूस को दबाने का है। पर रूस ने अपनी सामरिक शक्ति की एक सीमा तक रक्षा की और फिर नए शीत युद्ध की स्थिति उत्पन्न हुई।
अब तो बस यही उम्मीद है कि निकट भविष्य में तेजी से बढ़ते तनावों का संतोषजनक समाधान अमन-शांति के माहौल में प्राप्त कर लिया जाए। पर केवल उम्मीद करना निश्चय ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ विश्व स्तर पर अमन-शांति के जन-आंदोलन को मजबूत करना बहुत जरूरी है।
जलवायु बदलाव जैसी विभिन्न गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं हों या अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा और व्यापार की समस्याएं हों, उनके समाधान के लिए निरंतरता से अमन-शान्ति का ऐसा माहौल चाहिए जिसमें बड़े अन्तर्राष्ट्रीय समझौते हो सकें।
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