किस रंग से खेलें होली, असली रंग तो बसंती है, जो न लाल है, न केसरिया...

रंगों में भी बंटवारा हो गया। केसरिया- जो विराग का रंग माना जाता है, अब सत्ता का रंग बन गया, हरा एक समुदाय विशेष से जुड़ गया, गहरा नीला दलितों और पिछड़ों, लाल वामपंथियों का, गुलाबी लड़कियों का

फोटो : IANS
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प्रगति सक्सेना

वसंत ख़त्म होने को है। होली के बाद से अभिमानी गर्मियों की औपचारिक शुरुआत हो जाती है। लेकिन फिलहाल, वसंत- सेमल और पलाश के फूलों से सराबोर आसमान को छूता भावनाओं का उद्दाम ज्वार। आसपास की हर चीज़ हर शख्स अपने प्रिय से मिलने की बेताब चाहत से लबरेज़- जहनी तौर पर, जैविक और रूहानी तौर पर भी। और इंतज़ार, बेकरारी और तड़प। इसकी भी अपनी ख़ूबसूरती है, दर्द है, ख़ुशी भी...

इस कदर प्यार से

ऐ जान-ए जहां रखा है

दिल-ए रुखसार पे इस वक्त

तेरी याद ने हाथ

यूं गुमां होता है

गरचे है अभी शब्-ए-फिराक़

ढल भी गया हिज्र का दिन

आ भी गयी वस्ल की रात

दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ

लरजाँ है

होली एक बार फिर दिल में इस कसक को, चाहत को, तड़प को कौंधा जाती है। हलके से गर्मी में घुलते वसंत की हलकी सी खुशबू जो हमें इस वक्त अपने आगोश में बाँध लेती है, उससे कोई भी अनछुआ, अनजान और बेरूख नहीं रह सकता। क्या आपने महसूस की है- वो हलकी सी खुशबू? आप देश में कहीं भी हों, बदलते मौसम की यह खुशबू इन दिनों आपको खुद में समो लेती है। और पत्ते वसंती हवा में गिरते, लहराते फिरते हैं। क़दमों के तले चरमराती पत्तियों से आप उदासीन नहीं रह सकते। ध्यान से, ये सूखी, पेड़ से जुदा पत्तियां आपको उन यादों के समंदर में बहा ले जा सकती हैं जिन्हें आपने बहुत शिद्दत से कहीं भीतर छिपा कर रखा था, इतनी दूर कि आपका आज और मौजूदा से नाता ही टूट जाए!

और फिर रंग! यहाँ तक कि नाउम्मीदी की हद तक कुम्हलाये तने पर भी हलकी सी चमकती हरी कोंपल फूट पड़ती है- नाज़ुक, चमकदार और इतनी निर्मल- खुद जीवन की मानिंद। वसंत का सफ़र ख़त्म होता है होली पर और शुरुआत होती है बेरहम गर्मियों की। इसलिए, होली। इसीलिए, रंगों का, चाहत, इंतज़ार और प्रेम का उत्सव।

मुझे याद है, बचपन में इस मौसम के दौरान शरारत करने का वो उत्साह। होली में आपको शरारत करने, शोर करने यहाँ तक कि उच्छृंखल और ढीठ होने की भी। मुझे याद है ख़ास तौर पर एक होली जब एक टीनएजर के आतुर पर मैं अपनी एक दोस्त के साथ घंटों तमाम फूलों पर रंग डाल डाल कर चिल्लाती रही थी- हंसो! हंसो! तुम हमारी तरह क्यों नहीं हंस सकते!

उस वक्त हमें ये एहसास नहीं था कि रंग फूलों के ज़रिये हमेशा हँसते-मुस्कुराते रहते हैं, कभी शरारत से , कभी प्यार से, कभी दर्द और उदासी से। फूलों के ये रंग धीरे धीरे कारोबार का हिस्सा बन गए और बड़े होने का मतलब हो गया ज़िन्दगी को काले-सफ़ेद में देखना-समझना; इस दौरान कई होलियाँ आयीं और गुज़र गयीं। त्यौहार और शोरगुल से भरा, भोंडा और भड़कीला हो गया।

रंगों में भी बंटवारा हो गया। केसरिया- जो अमूमन विराग का रंग माना जाता है, अब बहादुरी, विजय और सत्ता का रंग बन गया, हरा एक समुदाय विशेष से जुड़ गया, गहरा नीला दलित और पिछड़ी जातियों का, लाल वामपंथियों का, गुलाबी लड़कियों का तो नीला लड़कों का वगेरह, वगेरह। यहाँ तक कि रंगों का भी राजीतिक और सामाजिक तौर पर बंटवारा हो गया।

और मुझ जैसे लोग उस रंग की तलाश में घूमते रहे जिस पर बंटवारे का दाग ना हो; किस रंग से होली खेलें हम?

देस बिदेस में ढूंढ फिरी हूँ

तोरा रंग मन भयो निजामुद्दीन

ऐसो रंग और नहीं देक्खी कहीं भी मैं तो

मोहे अपने ही रंग में रंग ले ख्वाजा जी

मोहे रंग बसंती रंग दे ख्वाजा जी

जीवन और मौत, आस्था और अनास्था और आध्यात्मिकता के तमाम रंगों के खेल का नाम है होली। यह महज़ एक त्यौहार नहीं है, यह तमाम इंसानी जज्बातों और सहअस्तित्व के रंगों के निरंतर अन्वेषण का उत्सव है। इसमें खिलंदड आक्रामकता और हिंसा भी है जो होली का अभिन्न अंग है। (होली पर लगभग सभी बरसाने की लट्ठमार होली और वहां की महिलाओं के ‘गारी गायन’ का ज़िक्र ज़रूर करते हैं।) लेकिन सबसे अहम् ये कि ये सभी मनोभाव और जूनून प्यार और लगाव में पगे होते हैं;

होली खेलूंगी मैं कर बिस्मिल्लाह,

नाम नबी की रत्न चढ़ी, बूँद पड़ी अल्लाह,अल्लाह

रंग रंगीली ओही खिलावे, जिस सीखी हो फनाफी अल्लाह।

बिलकुल यही। आज जिस रंग से होली खेलने की ज़रुरत है वो है बसंती रंग ( जिसे ना हम नारंगी कह सकते हैं, ना ही वो ठीक ठीक केअरिया होता है, ना लाल, या गुलाबी -। ज्यादा से ज्यादा इसे वसंत का रंग ही कह कर समझाया जा सकता है ) और उस रंग का एहसास करने उसे समझने के सफ़र की तो अभी हमने शुरुआत भी नहीं की है।

फ़िलहाल, आइये हम प्रेम के रंग से होली खेलें, वह रंग जिसमे सभी रंगों का मेल होता है, और तमाम अच्छे -बुरे रंगों में घुल कर वह शांति के रंग में तब्दील हो जाता है।

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