सत्ता मिलना ही जब बन जाए सफाई, तो गांधी जी का चश्मा भी कैसे ला पाएगा स्वच्छता
दिवाली पर सफाई की बात पर स्वच्छता के विज्ञापन में दिखने वाला गांधी का वह चश्मा नजर आता है, जिसके एक शीशे पर लिखा है ‘भारत’ और दूसरे पर लिखा है ‘स्वच्छ’। लेकिन जिधर ‘भारत’ लिखा है, उधर ‘स्वच्छता’ नहीं दिखती और जिधर ‘स्वच्छता’ लिखा है उधर ‘भारत’ नहीं दिखता।
दीपावली आती है तो हम रोशनी की बात करते हैं और अंधकार को दुत्कारते हैं। दीपावली आती है तो हम नये कपड़ों और नई मिठाइयों की बात करते हैं, पुराना सबकुछ ठेल कर बाहर कर देते हैं। दीपावली आती है तो हम सफाई की, धूल झाड़ने की और घर का बेकाम-बेकार-बेइस्तेमाल सारा कूड़ा-कचरा बाहर निकालने की बात करते हैं।
दीपावली फिर आ गई है। लेकिन अब करें क्या, सारा देश इस कदर साफ और धुला-पुता है कि हम यही सोच कर परेशान हैं कि अब साफ क्या करें और पोछें क्या ! दीपावली आने से बहुत पहले जिनकी दीपावली आ गई थी उन्होंने साफ-सफाई का काम पहले ही शुरू कर दिया। सत्ता मिलना ही जब दीपावली बन जाती है तब ऐसा ही होता है। स्वच्छता अभियान का यह दूसरा चरण है। पहला चरण पूरा हुआ था जब सरकार पूरी हो गई थी। दूसरा चरण शुरू हुआ जब सरकार फिर से आ गई।
सत्ता में ऐसी ही रौशनी होती है। सभी कह रहे हैं, देश पहले से साफ हो गया है। जैसे चोर साफ करता है न, वैसी सफाई की बात यह नहीं है। यह तो देश के प्रति जो सम्मान जागा है, उस सफाई की बात है। मैं सरकारी स्वच्छता की ओर जब भी देखता हूं, मुझे गांधी का वह चश्मा सफाई के हर विज्ञापन के साथ दिखाई देता है, जिसके एक शीशे पर लिखा है ‘भारत’ और दूसरे पर लिखा है ‘स्वच्छ’। मैं यह भी देखता हूं कि जिधर ‘भारत’ लिखा है उधर ‘स्वच्छता’ नहीं है और जिधर ‘स्वच्छता’ लिखा है उधर ‘भारत’ नहीं है। यह देश और उसकी सफाई का एकदम सही और सच्चा प्रतीक है।
मैं चाहता हूं कि जिस सूचना अधिकार की सरकार ने अब तक पूरी तरह सफाई कर दी है, उसी अधिकार के तहत कोई यह भर पूछे कि भाई, इस सरकार ने स्वच्छता का न सही, स्वच्छता-अभियान का जैसा जुनून देश में रचा है, क्या उससे अनुप्राणित हो कर प्रधानमंत्री और उनके दूसरे मंत्रियों ने अपने चपरासियों की बटालियन में से एक उस चपरासी को भारत सरकार को वापस कर दिया है कि जिसका काम साहब के आने से पहले उनकी टेबल-कुर्सी झाड़-पोंछ कर रखने का था ?
गांधी का चश्मा जिनके पास है वे लोग इतना तो देख पाते होंगे कि अपनी और अपने परिवेश की साफ-सफाई स्वंय करना गांधीजी का उपदेश नहीं, स्वत:सिद्ध जिम्मेवारी थी। हम सफाई के सेनापति भी हैं और हमारा टेबल झाड़ने-पोंछने का काम किसी नौकर का है तो टेबल जरूर साफ होगा, दिमाग गंदा ही रह जाएगा। इसलिए महात्मा गांधी के सेवाग्राम आश्रम में आने और रहने वाले सारे राजा-रंक, ब्राह्मण-कायस्थ सबको सुबह की सफाई में, जिसमें मैला उठाकर फेंकने वाले शौचालय की सफाई भी शामिल थी, करनी पड़ती थी और अक्सर गांधी इस सफाई टोली के मुखिया होते थे। गांधी का झाड़ू बाहर की सड़क और भीतर का नरक, सबकी सफाई करता था क्योंकि उसके बिना गांधी की सफाई पूर्णता तक पहुंचती ही नहीं थी।
बेचारे कविगुरु रवींद्रनाथ भी इस गांधी-झाड़ू की चपेट में आए थे और उन्होंने ही जिसे महात्मा घोषित किया था, उसने ही उनसे कहा कि गुरुदेव, आपकी कविता की सुगंध बढ़ जाएगी अगर उसका नाता श्रम से जुड़ जाएगा। आप बगीचे की सफाई करने के बाद ही कविता लिखा करें! तो हुआ यूं कि शांति निकेतन की एक सुबह आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने हिंदी भवन से निकले और पहुंचे गुरुदेव के पास कि कुछ पूछ-कह लें, क्योंकि फिर गुरुदेव कविता लिखने में डूब जाएंगे तो मुश्किल होगी। तेजी से पहुंचे तो वह आसन खाली पड़ा था, जिस पर सुबह गुरुदेव को विराजमान देखना प्रात: का सबसे दिव्य दृश्य हुआ करता था। द्विवेदी हैरान हुए कि ऐसा तो कभी हुआ नहीं, तो गुरुदेव गये कहां ? तभी देखा, बगीचे की एक झाड़ी के पीछे गुरुदेव की देवतुल्य छवि हिल रही है। पूछा, गुरुदेव, वहां क्या कर रहे हैं ? सूखे पत्तों को अपनी अंजली में संभालते गुरुदेव खड़े हुए और स्मित मुस्कान के साथ बोले- नहीं, कुछ नहीं, महात्माजी का कर्ज उतार रहा हूं। अब आप कहें कि यह सफाई मन में जड़ जमा कर बैठी अभिजात्य की जड़ता तोड़ रही थी कि बगीचे की सफाई कर रही थी? यह गांधी की दीपावली थी।
बेचारे राजकुमार शुक्ल लंबी मान-मनुहार के बाद दक्षिण अफ्रीका से कोई कमाल कर लौटे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को लेकर, 1917 में चंपारण आए थे कि जरा हमारा शोषण, हम पर होता अन्याय देख तो लीजिए! बैरिस्टर साहब आए भी, देखा भी और लिखा कि वहां पहली नजर में जो दिखाई दिया वह तो थी वहां फैली अथाह, अकल्पनीय गंदगी! ऐसी गंदगी जो वहां की संस्कृति में समा गई थी. फिर उन्हें दिखी वहां की दूसरी गंदगी- अशिक्षा; ऐसी अशिक्षा जो आपको अपना आपा भुला देती है। फिर तीसरी गंदगी दिखाई दी उन्हें वहां फैला अंतहीन भय! ऐसा भय कि कोई अपनी व्यथा-कथा कहने का कलेजा भी न जुटा पाता था।
ये तीनों गंदगी थी जो आदमी को आदमी नहीं रहने देती है। गांधी ने इन तीनों के खिलाफ ही काम शुरू किया। जो वहां नहीं था वह स्कूल खोला- एक नहीं, कई ! शिक्षा की जो संस्कृति थी ही नहीं उसके शिक्षक कहां से आते ? सो, बा को और बेटे देवदास को चंपारण बुला लिया; गुजरात से और भी शिक्षक बुलाए। एक स्कूल की जिम्मेवारी महाराष्ट्र से औचक बुलाए गये युवक पुंडलीक कातगडे को सौंपी। अब वह बेचारा हैरान कि बच्चों को पढ़ाऊं कैसे- न किताबें हैं, न नोटबुक, न ब्लैकबोर्ड, न चौक-डस्टर! हिचकते-हिचकते पूछा तो गांधी ने गंभीरता से कहा- “तुमसे किसने कहा कि यह स्कूल किताब पढ़ाने के लिए खोला गया है! यहां एक ही पढ़ाई पढ़ानी है- भयमुक्ति की पढ़ाई! गांव के सारे बच्चों को जमा करो और उन्हें गीत सिखाओ, और शाम में नारे लगाते, गीत गाते उनका जुलूस गांव में निकालो! हमें यहां छाया भय का कूड़ा साफ करना है।”
और वही हुआ भी। भय का कूड़ा ऐसा साफ हुआ कि नील के किसानों ने ठठ-के-ठठ बाहर निकल कर अपना बयान दर्ज करवाना शुरू किया। चंपारण के सत्याग्रह में न धरना-प्रदर्शन हुआ, न जेल-गोली-लाठी हुई और लड़ाई जीत ली गई ! आतंक के जोर पर दनदनाने वाले निलहा बाबू लोग अपना धंधा समेट कर चंपारण से विदा हो गए। यह कैसे हुआ ? भय की, झूठ की, अहंकार की गंदगी साफ हुई तो वहां बहुत कुछ साफ हो गया- चंपारण की सड़कें भी, कस्बे भी !
दरअसल यही गांधी की दीपावली है। क्या आप इस दीपावली पर जब बाहर एक दीप जलाएंगे तो अपने भीतर भी एक दीप की बाती रौशन करेंगे कि अब से डर का, अज्ञान का, स्वार्थ का, संकीर्णता का , उन्माद का कूड़ा अपने भीतर जमने नहीं देंगे हम ? आप ऐसा करेंगे और ऐसा निभाएंगे तो आप पाएंगे कि गांधी आपके साथ दीपावली मना रहे हैं।
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