जब चुनाव आयोग खुद ही बन जाए पक्ष तो किसे याद दिलाएं 'राजधर्म'
संविधानिक व्यवस्था में संस्थाएं स्वतंत्र और निष्पक्ष रहने के धर्म से बंधी हैं। अगर कभी सत्तारूढ़ नेता रास्ते से भटक जाए तो संविधान बचाने की जिम्मेदारी इन्हीं संस्थाओं पर होती है। लेकिन आज समय बदल चुका है। चुनाव आयोग तो जैसे खुद एक पक्ष ही बन गया है।
लोकतंत्र तभी अच्छा हो सकता है जब लोकतांत्रिक प्रशासन की संस्थाएं ठीक से काम करें। तब लोकतंत्र बेमानी हो जाता है जब न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सीबीआई, सीवीसी और सीआईसी-जैसी जांच और देखरेख करने वाले निकाय की प्रतिबद्धता संविधान के प्रति न रहकर सत्तारूढ़ दल या इसके नेता के प्रति हो जाती है। इनमें हर का धर्म होता है। धर्म यानी कर्तव्य। गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को उसी ‘राजधर्म’ के पालन की नसीहत दी थी। लेकिन आज जैसे नेता से लेकर संस्थाएं तक- सभी अपने-अपने धर्म से विमुख हो गए हैं। इनमें भी धर्म के रास्ते से सबसे ज्यादा विमुख होने वाली संस्था शायद चुनाव आयोग है।
भारत की संविधानिक व्यवस्था में संस्थाएं भी स्वतंत्र और निष्पक्ष रहने के धर्म से बंधी हैं। अगर कभी सत्तारूढ़ नेता रास्ते से भटक जाए तो संविधान की आत्मा को बचाने की जिम्मेदारी इन्हीं संस्थाओं पर होती है। लेकिन आज घड़ी की सुइयां जैसे उल्टी घूम रही हैं। चुनाव आयोग तो जैसे आदर्श व्यवस्था को परे खिसकाकर एक पक्ष ही बन गया है। इस संदर्भ में चुनावी बॉन्ड अपने आप में एक ऐसा विषय है जिसने बहुत कुछ शीशे की तरह साफ कर दिया है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने 8 अप्रैल, 2021 को एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित अपने लेख में सही ही कहा है, “ जिस दिन चुनावी बॉन्ड का जन्म हुआ, पारदर्शिता की मौत हो गई।” कुरैशी कहते हैं, “पहले 20 हजार से अधिक के हर चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती थी। अब तो 20 या 200 करोड़ का चंदा भी गुमनाम रहकर दिया जा सकता है। इसकी वजह बताई गई कि दान देने वाला गोपनीयता चाहता है। आखिर किसी दान देने वाले को गोपनीयता क्यों चाहिए? .. ताकि इसके बदले में मिलने वाले फायदे को छिपाया जा सके। वे इसके बदले ठेके, लाइसेंस और बैंक लोन ले लें और कुछ तो इन्हीं के बूते देश छोड़कर भाग सकें।” कुरैशी कहते हैं कि इसमें एक और खतरा है, “अगर कोई और देश हमारे चुनाव के लिए पैसे मुहैया कराने लगे तो भी अब यह एक सामने न आ सकने वाली गोपनीयता होगी।”
इन सबके अलावा, चुनावी बॉन्ड के जरिये आया पैसा कहां इस्तेमाल होगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं होगी। कुरैशी भी इस आशंका से इनकार नहीं करते। वह कहते हैं कि “इस पैसे का इस्तेमाल चुनाव परिणाम आने के बाद विधायकों को खरीदकर जनमत को पलटने में भी किया जा सकता है।” जरा सोचिए, कौन पार्टी है जो चुनाव-दर-चुनाव अन्य दलों के विधायकों को खरीद रही है? यह प्रधानमंत्री मोदी की ही पार्टी तो है जिसने चुनावी बॉन्ड के जरिये अकूत धनराशि इकट्ठी कर ली है। इस बात को भी समझना चाहिए कि सत्ता में जो भी दल होता है, उसके पास बिना हिसाब- किताब वाली नकदी के रूप में मोटा पैसा होता है।
कुरैशी की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को ऐसी सलाह दी जिस पर किसी भी सही सोचने वाले भारतीय को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। कुरैशी की सलाह हैः “अगर आप चुनावी बॉन्ड को बंद नहीं करना चाहते हैं तो यही सही। बस इतना करें कि लेने और देने वाले के नाम सार्वजनिक करने को कह दें। यह ऐसा काम है जिसे सरकार 30 सेकंड में कर सकती है। चूंकि सरकार से इसकी उम्मीद करना बेमानी है, सुप्रीम कोर्ट इस तरह का आदेश देकर बड़ी आसानी से छेद को बंद कर सकता है। उम्मीद ही की जा सकती है कि देश की सर्वोच्च अदालत इस मामले को राष्ट्रीय महत्व का विषय मानते हुए तत्काल इस पर कदम उठाए।”
मौजूदा सरकार के दौरान चुनाव आयोग अपना धर्म निभाने में पीछे ही रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कई मौकों पर आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन किया लेकिन चुनाव आयोग ने उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने की जहमत नहीं उठाई। 2019 चुनाव से पहले झारखंड में बीजेपी की रैली में मोदी की उस दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी पर गौर करें जिसमें उन्होंने कहा था कि संशोधित नागरिकता कानून का विरोध कर रहे लोगों को उनके “कपड़ों से पहचाना जा सकता है”। एक अन्य चुनावी रैली में उन्होंने कहा था कि राहुल गांधी केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ रहे हैं क्योंकि “उन्हें बहुसंख्यक आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने में डर लग रहा था”। मोदी और उनकी पार्टी के नेताओं के भाषणों में खुलकर सांप्रदायिक बातें कहीं गईं लेकिन चुनाव आयोग ने कार्रवाई तो दूर की बात, उन्हें चेतावनी देने की भी जरूरत नहीं समझी।
बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुडुचेरी के वर्तमान चुनावों में भी चुनाव आयोग का वही आचरण रहा। आम समझ की बात है, बंगाल में चुनाव को आठ चरणों में कराने का फैसला उसने बीजेपी के कहने पर ही किया होगा। इससे प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को हर हफ्ते प्रचार में शामिल होने और इस तरह बीजेपी के लिए संभावनाओं को बेहतर करने का मौका मिला। तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए बीजेपी की सबसे बड़ी रणनीति बंगाल के वोटरों को हिंदू-मुसलमान के आधार पर गोलबंद करने की है। इसी उद्देश्यसे बीजेपी ने ‘जय श्रीराम’ नारे का राजनीतिकरण कर दिया। तभी तो एक रैली में अमित शाह कहते हैं, “ममता दीदी, अगर जय श्रीराम का नारा यहां नहीं तो क्या पाकिस्तान में लगेगा?”
पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री मोदी बांग्लादेश की यात्रा करते हैं। मौका था बांग्लादेश की आजादी की 50वीं सालगिरह का। यहां तक तो ठीक था। लेकिन वह वहां मतुआ समुदाय के संस्थापक हरिश्चंद्र ठाकुर के मंदिर जाकर पूजा-अर्चना करते हैं। मतलब बड़ा सीधा है- पश्चिम बंगाल में रह रहे मतुआ समुदाय के वोटरों को अपनी ओर खींचना। गौरतलब है कि मतुआ समुदाय के लोग कई विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक स्थिति में हैं। आजाद भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ कि किसी प्रधानमंत्री ने विदेशी धरती से अपनी पार्टी के लिए प्रचार किया हो। लेकिन चुनाव आयोग इस अनैतिक कदम पर मौन ही रहा।
तृणमूल कांग्रेस से बीजेपी में आए सुवेंदु अधिकारी नंदीग्राम विधानसभा क्षेत्र में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ चुनाव मैदान में हैं। वह कहते हैं, “अगर बेगम (ममता) सत्ता में दोबारा आईं तो पश्चिम बंगाल मिनी पाकिस्तान बन जाएगा।” एक अन्य रैली में वह कहते हैं, “टीएमसी सोच रही है कि इस बार वह 30 फीसदी वोट (बंगाल में मुस्लिम वोट प्रतिशत) से सत्ता में आ जाएगी लेकिन मैं उन्हें कहना चाहताहूं कि हमारे पास 70 फीसदी वोट (हिंदू वोट) हैं।” धर्म के आधार पर लोगों को गोलबंद करने वाले इन बयानों में से किसी पर भी चुनाव आयोग का ध्यान नहीं गया। क्यों?
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