आकार पटेल का लेख: आखिर क्या खामी है 'मोदीनॉमिक्स' में जिससे बीजेपी समर्थक भी हुए निराश
बीजेपी अब भारतीय राजनीति में स्थापित हो चुकी है, और मतदाताओं को लगता है कि कुछ बड़ी रणनीति बनाई जा रही है या कम से कम मोदीनॉमिक्स में कुछ तो बुनियादी दर्शन या फलसफा होगा जो बजट में भी नजर आएगा। मगर यह हो न सका।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक इस साल पेश हुए बजट को लेकर अपनी निराशा खुलकर व्यक्त कर रहे हैं। खासतौर से ऐसे मुद्दों को लेकर जो सीधे मध्य वर्ग से जुड़े हैं, और टैक्स और संपत्ति की बिक्री से संबंधित हैं। पीएम के समर्थकों का इस तरह मुखर होकर शिकायत करना आम बात नहीं है क्योंकि वे आम तौर पर हर मामले में उनका समर्थक करते रहे हैं, भले ही मुद्दा कोई भी हो। मणिपुर या लद्दाख जैसे मामलों पर विरोधी या असंतुष्ट तो आवाज उठाते रहे हैं लेकिन ऐसे मुद्दे उन लोगों को प्रभावित नहीं करते जिन्हें ‘भक्त’ कहा जाता है।
ये सरकार द्वारा उठाए गए सनकी कदमों की भी तारीफें करते हैं। इंटरनेट पर एक मीम है, जिसमें कहा जाता है, 'मोदीजी ने किया है तो सोच समझ कर ही किया होगा।‘ यही कारण है कि बजट पर उनकी नाराजगी दिलचस्पी का विषय है। सवाल यह है कि क्या उनके नाराज होने का कोई ठोस कारण है? मैं बजट के बारे में बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि बजट से जुड़ी उम्मीदों के बारे में बात कर रहा हूँ। अगर कोई सोचता है कि उसकी पार्टी किसी खास मकसद के लिए प्रयासरत है और फिर वह कुछ अलग करती है, तो उसका नाराज होना स्वाभाविक है।
बीजेपी के समर्थक और उसे वोट देने वाले देश की अर्थव्यवस्था के मामले में क्या सोचते हैं?
इसे समझने के लिए दशकों से बनाए जा रहे पार्टी के मेनिफेस्टो यानी घोषणापत्र को देखना होगा। तथ्य यह है कि 1951 में अपनी गठन के बाद से इसके घोषणापत्र में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें एकरूपता हो या आर्थिक विचारधारा के रूप में कुछ भी स्पष्ट हो या फिर इस बारे में कोई विचार हो कि हिंदुत्व देश को कैसे प्रभावित करेगा। इसका घोषणापत्र केवल अस्पष्ट और अधूरी घोषणाओं का संग्रह भर है।
अर्थव्यवस्था को लेकर जनसंघ ने कभी किसी विशेष बात पर जोर नहीं दिया, यहां तक कि सबसे बुनियादी स्तर पर भी वह खामोश है। पार्टी का घोषणापत्र कहता है कि वह एक आर्थिक प्रणाली विकसित करेगा जिससे सरकारी उद्यमों, यानी सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को खत्म नहीं करेगी, बल्कि निजी उद्यमों को उनका उचित स्थान देगी। यहां ध्यान रखना होगा कि पार्टी के संविधान (अनुच्छेद 2) में कहा गया है कि बीजेपी समाजवाद की हितैषी है यानी उसकी कसम खाती है।
स्वदेशी का अर्थ स्थानीय उद्योगों को सब्सिडी देना और टैक्स आदि का टैरिफ संरक्षण देना था। दरअसल यह खुले बाजार या मुक्त अर्थव्यवस्था का तरीका नहीं है, जिसके बारे में मोदी समर्थक मानते हैं कि वह इसके पक्ष में हैं। घोषणापत्र में कहा गया था कि उपभोक्ता वस्तुओं और ऐशो आराम की वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित किया जाएगा। हड़ताल और तालाबंदी सहित श्रम अधिकारों को भी हतोत्साहित किया जाएगा।
पार्टी ने 1957 में ऐलान किया था कि वह अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाएगी जो ‘भारतीय जीवन मूल्यों के मुताबिक होगा।’ हालांकि, इस बारे में विस्तार से चर्चा नहीं की गई और न ही आने वाले वर्षों के किसी घोषणापत्र में इस क्रांतिकारी परिवर्तन के विषय को फिर से उठाया गया।
इसी तरह 1967 में पार्टी ने कहा कि वह नियोजित अर्थव्यवस्था की पक्षधर है, लेकिन योजना में बदलाव करेगी और ‘क्षेत्रवार और परियोजनावार सूक्ष्म आर्थिक नियोजन की प्रणाली को अपनाएगी।’ पार्टी ने सरकारी हस्तक्षपे की मांग तो की, ल किन सभी क्षेत्रो में नहीं। इसने निजी निवेश को प्रोत्साहित किया, लेकिन रक्षा क्षेत्र को इससे अलग रखा।
पार्टी ने कहा कि बिना सरकारी नियंत्रण के निजी उद्यमों को विकसित होने देने की नीति' सिर्फ कृत युग' (जिसे सत युग भी कहा जाता है, यानी ऐसा पहला आदर्श युग जब देवता स्वयं पृथ्वी पर शासन करते थे) में हो सकती है। इसलिए सरकार को अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में स्वामित्व और प्रबंधन की जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए।'
जनसंघ ने 1954 और फिर 1971 में भारतीयों की अधिकतम आमदनी को 2000 रुपए और न्यूनतम आमदनी 100 रुपए प्रति माह तक सीमित करने का संकल्प सामने रखा, यानी 20:1 का औसत बनाया। पार्टी ने कहा कि वह अंतर को कम करने के लिए निरंतर काम करेगी जब तक कि यह औसत 10:1 का नहीं हो जाता, जोकि पार्टी के मुताबिक भारतीयों की अमदनी इसी सीमा के अंदर हो सकती थी। इस सीमा के ऊपर होने वाली आमदनी को योगदान, टैक्स, आवश्यक कर्ज और निवेश जैसे विकास कामों के लिए सरकार ले लेगी।
पार्टी ने रिहायशी मकानों के आकार की भी सीमा तय की थी जिसके तहत शहरों में 1000 वर्ग गज से अधिक बड़े भूखंडो (प्लॉट) की इजाजत नहीं दी जानी थी। लेकिन पार्टी के न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन के नारे के उलट पार्टी ने इसका कोई तर्क या कारण नहीं पेश किया कि उसका रुख लगातार क्यों बदलता रहा है।
जनसंघ पहले तो कृषि के मशीनीकरण के पक्ष में था, लेकिन फिर 1954 में लगभग तुरंत ही इसका विरोध भी करने लगा (क्योंकि ट्रैक्टर के इस्तेमाल का मतलब होगा कि बैलों की हत्या होगी)। यह चाहता था कि उद्योग ऑटोमैटिक मशीनों (स्वचालन) का इस्तेमाल अपने उपयोग की दक्षता के आधार पर नहीं बल्कि इस आधार पर मापें कि वह कितने अधिक लोगों को काम पर रख सकता है। इसने यह स्पष्ट नहीं किया कि एक व्यवसायी को लागत कम करने के बजाय उसे क्यों बढ़ाना चाहेगा या उसे ऐसा क्यों करना चाहिए।
1971 में उसने कहा था कि वह रक्षा और एयरोस्पेस को छोड़कर किसी भी उद्योग में ऑटोमेशन (स्वचालन) नहीं चाहता। मुझे यह इसलिए याद आया जब मैंने इस सप्ताह वित्त सचिव के साथ हुए इंटरव्यू की हेडलाइन देखी। हेडलाइन थी 'उद्योग को कम स्वचालन अपनाने और अधिक श्रम का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है'।
हमें यही बताया जाता रहा है कि 1991 के बाद से हम इसी नीति से दूर हो रहे हैं, लेकिन अगर हम जनसंघ-बीजेपी के घोषणापत्र देखें, तो हमें ताज्जुब नहीं होगा।
1950, 1960, 1970 और 1980 के दशकों के दौरान पार्टी मात्र कांग्रेस घोषणापत्रों पर ही प्रतिक्रिया देती रही और उसने मूलरूप से अपनी तरफ से कुछ भी पेशकश नहीं की। न ही उन्हें ऐसा करने की जरूरत महसूस हुई। 1989 तक बीजेपी का राष्ट्रीय मत प्रतिशत एक अंक में ही रहा था, और उसे पता था कि वह सत्ता में तो आएगी नहीं, इसलिए उसे अपनी नीतियों लागू करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी, ऐसे में उसके दिमाग में जो भी आता था वह कह देती थी। और ऐसा ही उसने किया भी।
लेकिन अब जबकि वह मजबूती के साथ भारतीय राजनीति में स्थापित हो चुकी है, तो लोग उसे गंभीरता से लेते हैं। मतदाताओं को लगता है कि कुछ बड़ी रणनीति बनाई जा रही है या कम से कम मोदीनॉमिक्स (मोदी की अर्थ नीति के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द) में कुछ तो बुनियादी दर्शन या फलसफा होगा ही, और यह बजट में भी नजर आएगा। मगर यह हो न सका। लेकिन फिर भी बीजेपी समर्थक और वोटर होने के नाते आप ऐसा मानते हैं तो फिर इसमें नेता की तो कोई गलती नहीं है।
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