छवि कुछ भी बना ले मीडिया, लेकिन नाकामियों और शासन की कमजोरियों से भरा पड़ा है मोदी का दूसरा कार्यकाल

मोदी के दूसरे कार्यकाल के रिकॉर्ड से छवि और वास्तविकता के बीच विरोधाभास का पता चलता है। लेकिन मीडिया और खासतौर से सोशल मीडिया में छवि एक ऐसे व्यक्ति की बनाई गई है जो अपनी सत्ता और ताकत के चरम पर है, और अजेय है।

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आकार पटेल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अजेय न भी समझा जाए, तो भी वे राजनीतिक रूप से एक प्रभावी व्यक्तित्व हैं, और इसके कई कारण भी हैं। हालांकि, उनके एजेंडे और शासन के इतर इस बात पर कोई खास नहीं दिया गया है कि उनका दूसरा कार्यकाल बेशुमार कमियों और यहां तक कि कई बड़ी नाकामियों से भरा रहा है।

आर्थिक मोर्चे पर देखें तो देश की जीडीपी 2019 से पहले ही कमजोर होने लगी थी और 3.7 फीसदी पर पहुंच गई थी। 2020 में तो कोविड और खासतौर पर देश भर में लगे लॉकडाउन के चलते 40 साल में पहली बार देश की अर्थव्यवस्था निगेटिव में पहुंच गई थी। अगर हम उन आंकड़ों को अलग भी कर दें जिनसे बहुत ही कम बेस के चलते छेड़छाड़ की गई है, तो भी वर्तमान विकास दर 4 फीसदी के ही आसपास है, जिसे सामान्य मान लिया गया है।

रोजगार के मोर्चे की बात करें तो, 2019 के चुनाव से ठीक पहले एक सरकारी सर्वेक्षण से पता चला था कि देश में बेरोजगारी दर दोगुनी होकर 6 फीसदी हो गई थी और तब से यह उससे ऊपर ही बनी हुई है। एक अन्य सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार पिछली तिमाही में यह दर 7 फीसदी से अधिक थी। इसी सर्वे से यह भी सामने आया कि कॉलेज की डिग्री के साथ 30 वर्ष से कम उम्र के युवाओं के लिए बेरोजगारी दर 29 फीसदी थी। वैसे तो इस साल भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है लेकिन इसका कोई जनसांख्यिकीय लाभ नहीं मिलने वाला।

कोविड को लेकर बीजेपी ने फरवरी 2021 में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें इस महामारी को मात देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की गई थी। इसके कुछ सप्ताह बाद ही कोविड की दूसरी लहर ने तबाही मचाई थी और बिना दवा और ऑक्सीजन के मरते लोगों की तस्वीरों ने देश को हिलाकर रख दिया था। इस लहर ने दिखा दिया था कि भले ही कोविड ने भारत पर सर्वाधिक आघात नहीं किया हो लेकिन जो तबाही दिखी थी वह भयावह थी। श्मशान घाटों पर कतार में रखे शव और नदियों में तैरती लाशों से हाहाकार मच गया था। यह नहीं पता चला कि उस साल 25 अप्रैल से अगले 20 दिन तक मोदी कहां लापता हो गए थे। इस सबके बाद बीजेपी के उस प्रस्ताव को बीजेपी की वेबसाइट से हटा दिया गया था।

महंगाई की बात करें तो पेट्रोलियम कीमतों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नर्मी से भारत को जो फायदा मिलना चाहिए था नहीं और देश में पेट्रोल के दाम 100 रुपए प्रति लीटर पहुंच गए। खुदरा महंगाई यानी रिटेल इंफ्लेशन रिजर्व बैंक की बरदाश्त से बाहर के स्तर पर पहुंच चुकी है, लेकिन इसका सामना करने या इससे निपटने के कोई उपाय नहीं दिख रहे।


2020 में ही बीजेपी सरकार की अलिखित राष्ट्रीय सुरक्षा दस्तावेज को रद्द कर देना पड़ा था। कश्मीर और पाकिस्तान में आतंकवाद विरोधी कार्रवाई से हटकर भारत को अपना ध्यान लद्दाख और चीन की तरफ करना पड़ा था। पाकिस्तान की तरफ डटी सेना की 4 डिवीजन (हर डिवीजिन में करीब 18,000 सैनिक) को चीन की तरफ मोड़ना पड़ा था।

संसद को अभी तक सरकार ने यह नहीं बताया है कि भारतीय सेना लद्दाख के कुछ हिस्सों में अभी गश्त कर सकती है या नहीं। बीते 3 साल से इस मुद्दे पर न तो सेना ने कुछ बताया है और न ही संसद में इस पर कोई चर्चा हुई है। यहां तक कि इस बारे में सरकार ने बीजेपी सांसद तक के सवालों को राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा कहकर टाल दिया।

सिविल सोसायटी के विरोध के चलते मोदी के एजेंडे की कुछ चीजें रुकी हैं। एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) ऐसा ही एजेंडा था जो पार्टी के घोषणापत्र में शामिल था, इसे सरकार लागू नहीं कर पाई। वैसे इसे असम में लागू करने के बाद चरणबद्ध तरीके से देश भर में लागू किया जाना था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। असम में 31 अगस्त 2019 को जो एनआरसी प्रकाशित हुआ उसमें राज्य के 19 लाख नागरिक रजिस्टर से बाहर हो गए थे। इसके बाद अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इसे कब लागू किया जाएगा क्योंकि असम की बीजेपी सरकार अब इस मामले में झिझक रही है।

इसी तरह सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) को दिसंबर 2019 में पास करा दिया गया, लेकिन तीन साल तीन महीने बाद भी इसे अभी तक लागू नहीं किया गया है। इसका सबसे बड़ा कारण मुस्लिम महिलाओं द्वारा निडरता से इसका विरोध करना रहा है।

इसी प्रकार कृषि कानूनों को बिना संसद में चर्चा के एक अध्यादेश के जरिए कोविड काल में ही पास कर दिया गया था और इसे कृषि क्षेत्र के एक महान सुधार के तौर पर प्रचारित किया गया था। किसानों ने इससे असहमति जताते हुए बगावत कर दी। और जैसे ही देशभर की किसान यूनियनें इसके विरोध में सड़कों पर उतरीं और दिल्ली की दहलीजों पर हजारों किसान जम गए, सरकार को इन्हें वापस ही लेना पड़ा। हालांकि इसके लिए उन्हें साल भर तक सड़कों पर रहना पड़ा और आखिरकार प्रधानमंत्री ने माफी मांगते हुए इन्हें वापस ले लिया। लेकिन किसानों की आमदनी दोगुनी करने पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है।

सीएए की नाकामी और कृषि कानूनों की वापसी के बाद सरकार ने आर्थिक ‘सुधारों’ से जैसे तौबा कर ली है। इतना ही नहीं इसने जनगणना करवाने का इरादा भी लगता है छोड़ ही दिया है, जोकि देश में एक सदी में पहली बार ऐसा हो रहा है।


बीजेपी के शासन वाली सरकारों में अंतर-धार्मिक विवाह और बीफ रखने को लेकर बनाए गए कड़े कानूनों के आधार पर अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न जारी है। हरियाणा में एक निश्चित और तय जगह पर जुमे की नमाज पढ़ने की अनुमति दिसंबर 2021 में वापस ले ली गई। कर्नाटक में फरवरी 2022 में छात्राओं के हिजाब पहनने पर पाबंदी लगा दी गई। कर्नाटक में ही चर्चों पर एक खास तरह से हमले हो रहे हैं।

कश्मीर से उसका राज्य का दर्जा छीनकर उसे दो हिस्सों में बांट दिया गया, लेकिन इस सबके बाद भी वहीं के लिए प्रधानमंत्री के पास कोई योजना नहीं है। आज कश्मीर पूरे दक्षिण एशिया में ऐसी जगह बना हुआ है जहां लोकतांत्रिक शासन नहीं है। यह तक साफ नहीं है कि वहां चुनाव कब होंगे और वहां सेना की भारी मौजूदगी किसी योजना का संकेत भी नहीं देती।

और अंत में, भ्रष्टाचार.. इस मोर्चे पर तो इस साल जनवरी से ही अडानी मामले को लेकर बीजेपी बैकफुट पर है। बीजेपी की इस मामले में खामोशी, खुलकर अरबपति का पक्ष लेना, मुद्दे को संसद में उठाए जाने से इनकार करना और जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने की तिकड़म से साफ है कि यह परेशान और घबराई हुई है।

शायद प्रधानमंत्री को लगता है कि यह मुद्दा अपने आप ही ठंडा पड़ जाएगा। लेकिन दुर्भाग्य है कि इस मामले में रोज कोई न कोई नई जानकारी सामने आती है जिससे आरोप पुख्ता होते हैं और इसके चलते यह कहानी न सिर्फ नई बनी हुई है बल्कि वैश्विक स्तर पर इसके चर्चे हैं क्योंकि वहां भारत की तरह मीडिया को दबाया नहीं जाता है। अडानी मामले में एजेंसियों को जांच शुरु करने का आदेश न देने का अर्थ यही है कि आने वाले दिनों में ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ का नारा खोखला साबित हो जाएगा।

राजनीतिक तौर पर इन सालों में बीजेपी ने मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सरकारे छीनी हैं। उत्तर पूर्ण में उसकी स्थिति ठीक रही है लेकिन बिहार और बंगाल जैसे अहम राज्यों में उसे हार का सामना करना पड़ा है।

कुल मिलाकर स्थिति यह बनती है कि मोदी के दूसरे कार्यकाल के रिकॉर्ड से छवि और वास्तविकता के बीच विरोधाभास का पता चलता है। लेकिन मीडिया और खासतौर से सोशल मीडिया में छवि एक ऐसे व्यक्ति की बनाई गई है जो अपनी सत्ता और ताकत के चरम पर है, और अजेय है। लेकिन शासन के मोर्चे पर इस व्यक्ति की वास्तविकता यह है कि जो योजनाओं कार्यकर्मों को लागू नहीं कर पाया और आगे क्या होगा इसका भी उसे अनुमान नहीं है।

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