खरी-खरीः स्वागत है ‘न्यू इंडिया’ के नये लोकतंत्र में, विरोध तो दूर, किसी तरह की चर्चा की भी इजाजत नहीं

विपक्षी दल अब संसद परिसर में धरना नहीं दे सकते। सदन के भीतर महंगाई जैसे जनता के ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा की अनुमति भी नहीं है। इसके विरोध में गांधी समाधि पर धरना देने की भी इजाजत नहीं। स्पष्ट है मोदी सरकार के न्यू इंडिया में ‘नया लोकतंत्र’ आरंभ हो चुका है।

फोटोः सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

चुप रहो, कुछ न बोलो! जी हां, यही है ‘न्यू इंडिया’ का ‘नया लोकतंत्र’। पहले केवल पत्रकारों को कुछ अधिक बोलने की आजादी पर सजा झेलनी पड़ रही थी। अब विपक्ष की इस आजादी पर रोक लग गई। अरे, आप ने देखा नहीं, विपक्षी दल अब सदन के प्रांगण में धरना-प्रदर्शन नहीं कर सकते। सदन के भीतर यदि वह महंगाई जैसे जनता के ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा की अनुमति मांगें, तो उसकी भी इजाजत नहीं है। यदि इसके विरोध में विपक्ष गांधी समाधि पर धरना देने की कोशिश करे, तो पुलिस उसकी भी इजाजत नहीं दे रही है। बगैर किसी तरह की चर्चा अथवा किसी भी प्रकार के विरोध के भारत में एक ‘नया लोकतंत्र’ आरंभ हो चुका है।

तभी तो भारतीय जनता पार्टी के राज में अब चर्चा रहित अथवा विरोध रहित एक नया लोकतंत्र शुरू हो चुका है। संसद के भीतर और संसद के बाहर कहीं भी जनता को तो जाने दीजिए, विपक्ष भी चर्चा अथवा विरोध नहीं कर सकता है। यदि विरोध की हिम्मत किसी ने की, तो उसके लिए केवल एक ही स्थान है और वह है जेल। यदि किसी को जेल नहीं भेजा जा सकता है, तो उसके लिए ईडी या सीबीआई के दरबार में हाजिरी। कौन नहीं जानता कि आकार पटेल एक सरकार विरोधी पत्रकार हैं। उनको ईडी का नोटिस मिल गया। ऐसे दर्जनों केस खोजे जा सकते हैं।

केवल इतना ही नहीं, विपक्ष के सिर पर तो ईडी की तलवार हर समय है ही। आम आदमी पार्टी के मंत्री जेल में। ममता बनर्जी के मंत्री जेल में। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को आए दिन ईडी के चक्कर लगवाए जा रहे हैं। बात साफ है, चुप बैठो नहीं, तो ईडी झेलो। इसके अलावा विपक्ष के पैसों पर भी नजर है। लोकसभा चुनाव से पूर्व ईडी के माध्यम से विपक्ष को मिलने वाली हर रकम पर रोक लगाने के रास्ते खोज लिए गए हैं। उधर, हर चुनाव में सत्ता पक्ष हजारों करोड़ रुपये खर्च कर रहा है। यह रकम सत्ता पक्ष के पास कहां से आ रही है, इसका कोई जवाब नहीं है। भले ही अडानी जी केवल देश ही नहीं बल्कि बिल गेट्स से भी ज्यादा पैसे वाले क्यों न हो जाएं, ईडी को यह नहीं दिखाई पड़ता है।

इसमें कोई शक नहीं कि भारत एक लोकतंत्र था और रहेगा। हम दुनिया के सबसे बड़़े लोकतंत्र हैं, इस बात पर हम सब को ही गर्व है और होना भी चाहिए। लेकिन अभी कुछ वर्षों पूर्व तक हम जिस प्रकार के लोकतंत्र से परिचित थे, वह लोकतंत्र अब समाप्त होता जा रहा है। एक समय था कि एक पत्रकार इसी देश में प्रधानमंत्री से प्रेस कांफ्ररेंस में कोई भी सवाल पूछ सकता था। मैंने स्वयं पीवी नरसिंह राव से टेढ़़ा सवाल किया था लेकिन मुझ पर किसी प्रकार का दबाव नहीं आया। अब तो छोटी-मोटी बात पर पत्रकार जेल जा रहे हैं। कहा न कि जब विपक्ष नहीं बोल सकता, तो फिर पत्रकार की क्या हैसियत।


आज से कुछ वर्षों पूर्व तक देश यह समझता था कि मीडिया एक वाच डॉग के समान काम करता है। कहते हैं कि लोकतंत्र में मीडिया की यही भूमिका होनी चाहिए। लेकिन न्यू इंडिया के नए लोकतंत्र में मीडिया का भी एक नया स्वरूप है। पिछले सात-आठ सालों में मीडिया इतना बदल गया है कि अभी पिछले सप्तताह चीफ जस्टिस आफ इंडिया एनवी रमना ने मीडिया के बारे में कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर चर्चा के नाम पर ‘कंगारू कोर्ट’ चलाया जा रहा है। जब किसी लोकतंत्र में मीडिया वाच डॉग की भूमिका निभाने की जगह ‘कंगारू कोर्ट’ की भूमिका अपना ले, तो आप उस लोकतंत्र की दशा समझ ही सकते हैं। और मीडिया ही क्या, हमारे लोकतंत्र का कौन-सा स्तंभ है जिस पर अंगुली नहीं उठ चुकी है। हटाइए, उनका जिक्र न ही हो तो अच्छा है क्योंकि अपनी गर्दन शर्म से झुकती है।

कुछ ही समय में हम भारतवासी देश की स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाएंगे। देश भर में घर-घर झंडा फहराया जाएगा। निःसंदेह इस अवसर पर जितना भी हर्ष एवं उल्लास मनाया जाए, कम है। बड़़ी कुर्बानी देकर भारत ने स्वतंत्रता हासिल की है। हमारा लोकतंत्र उन्हीं कुर्बबानियों की एक भेंट है। आजादी और लोकतंत्र का यह अमृत महोत्सव भला सरकार की आलोचना से कैसे मनाया जा सकता है। लेकिन इस शुभ अवसर पर विपक्ष और जनता को यह संकेत दिया जा रहा हैः चुप रहो, कुछ न बोलो! क्या यह कुछ अटपटी- सी बात नहीं है।

सामाजिक परिवर्तन प्रायः समस्याओं की कोख से ही जन्मता है। यदि पिछले तीन दशकों का भारतीय इतिहास देखें, तो यह साफ नजर आता है कि भारतीय मुस्लिम समाज इस अवधि में घोर समस्याओं से जूझता रहा है। सन 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस से लेकर अभी तक कौन-सी ऐसी सामाजिक और राजनीतिक समस्या नहीं थी जो इस अल्पमत समाज को नहीं झेलनी पड़़ी। इसकी मस्जिद गिराई गई और धर्म पर सीधा प्रहार हुआ। सन 1993 में मुंबई के भयंकर दंगों में मौतें झेलीं। गुजरात में 2002 का नरसंहार झेलना पड़़ा। सन 2014 में केन्द्र में भाजपा के उदय से तो यह समाज देश के हाशिये पर पहुंच गया। कभी मॉब लिंचिंग, तो कभी जुमे की नमाज पर पाबंदी, तो कभी सीएए जैसे कानून की तलवार। हिन्दुत्व की राजनीति ने भारतीय मुसलमान को दूसरे दर्जे की नागरिकता की कगार तक पहुंचा दिया। बस यूं समझिए कि इस देश में मुसलमान की क्या गत थी जो कि नहीं बनाई और कौन-सी समस्या थी जो उसने नहीं झेली।

ऐसी घनघोर समस्याओं के बीच भी यदि इस समाज में अपनी समस्याओं के प्रति जागरूकता नहीं उत्पन्न होती, तो और कब होती। हालांकि समाज में ऐसा कोई आंदोलन नहीं दिखाई पड़ता जिसको देखकर कहा जाए कि यह समाज करवट ले रहा है। लेकिन दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षा के नताजे यह बता रहे हैं कि मुस्लिम समाज में कुछ परिवर्तन तो हो रहा है।


तभी तो संभवतः पहली बार सीआईएससीई की बारहवीं कक्षा के नतीजों में इस वर्ष एक मुस्लिम लड़की मुबाशिरा शमीम ने 99.25 प्रतिशत अंकों के साथ टॉप किया है। मुबाशिरा आईएएस में प्रवेश के सपने देख रही है। वह अकेली लड़की नहीं है। सोशल मीडिया देखने से पता चलता है कि केवल सीबीएसई बोर्ड ही नहीं बल्कि कई राज्यों के बोर्डों में बहुत सारे मुस्लिम लड़के और लड़कियों ने 95 प्रतिशत नंबरों से अधिक अंक प्राप्त किए हैं। ऐसा आज से कोई दस वर्ष पूर्व सुनने को नहीं मिलता था। निःसंदेह यह परिवर्तन है। स्पष्ट है कि समाज को यह समझ में आ रहा है कि उसकी मौलिक दुर्दशा का एक बहुत बड़़ा कारण यह है कि मुस्लिम समाज शिक्षा के मैदान में पिछड़ गया। इसलिए तरक्की करनी है, तो बच्चों को शिक्षा दिलाओ। अच्छी बात यह है कि माता-पिता केवल लड़कों की ही तालीम पर नहीं बल्कि लड़कियों की तालीम पर भी जोर दे रहे हैं।

यह तो रहा सामाजिक चेतना का हाल। इसी के साथ-साथ राजनीतिक स्तर पर भी इस समाज में कुछ सूझबूझ के आसार दिखाई पड़ रहे हैं। अब राजनीतिक मामलों में मुस्लिम वर्ग मौलवी-मुल्लाओं और धर्म तथा समाज की आड़ में जज्बाती राजनीति करने वालों की बात पर कान नहीं धर रहा है। तभी तो अभी उत्तर प्रदेश चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को मुंह की खानी पड़़ी। फिर अब बाबरी मस्जिद की मार और तीन तलाक के मुद्दे पर हार से मुल्लाओं की पकड़ भी कमजोर पड़़ी है। लगता है, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी कट्टरपंथी संस्था कमजोर पड़़ी है। यह एक बड़़ा परिवर्तन है।

लेकिन अभी भी समाज में सुधार और परिवर्तन के लिए कोई बड़़ा आंदोलन नहीं दिखाई पड़ता है। दरअसल, यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने जिस आधुनिकता को जन्म दिया, मुस्लिम समाज ने उस आधुनिकता को स्वीकार ही नहीं किया। तभी तो वह स्कूलों से दूर मदरसों तक या फिर मदरसे की सोच तक सीमित रहा। जमाना आधुनिकता को गले लगाकर बहुत आगे निकल गया। इधर मुस्लिम समाज आधुनिकता से कट कर जीवन के हर क्षेत्र में मौलवी की बात पर यकीन करता रहा। एक सर सैयद तहरीक उठी जो मुट्ठी भर लोगों तक सीमित रही। आम मुस्लिम आदमी आधुनिक परिवर्तन से कट कर पिछड़ता चला गया।

अब पहली बार यह लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं कि समाज आधुनिक शिक्षा की ओर मुड़ रहा है। लेकिन अभी भी आधुनिक चेतना की चर्चा नहीं है। केवल स्कूल अकेले किसी समाज को प्रगति नहीं देते हैं। वह तो आवश्यक हैं। लेकिन उसी के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की चेतना भी आवश्यक है। वह चेतना आधुनिकता को गले लगाने से ही उत्पन्न होगी। यह काम मौलवी नहीं कर सकता है। इसके लिए एक आधुनिक नेतृत्व की आवश्यकता है। वह नेतृत्व मुस्लिम समाज में अभी तक नहीं दिखाई पड़ रहा है। इसलिए परिवर्तन तो है लेकिन आधा-अधूरा ही है। केवल शिक्षा ही नहीं, आधुनिक चेतना भी आवश्यक है।

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