राम पुनियानी का लेखः प्रेम की खुशबू की जरूरत है हमें, नफरत की आग तो सबको झुलसा देगी
हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा में सने हजारों प्रशिक्षित लोगों की एक विशाल सेना लंबे समय से मुसलमानों की नकारात्मक छवि गढ़ने और उनके खिलाफ नफरत फैलाने में जुटी हुई है। लेकिन दुखद है कि कोरोना वायरस से आए संकट में विभाजन को और गहरा करने की कोशिश जारी है।
हमारी दुनिया पर कोरोना वायरस के हल्ला बोलने के बाद सभी को उम्मीद थी कि इस अदृश्य शत्रु से लडाई हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी और इस लडाई को नस्ल, धर्म आदि की दीवारों से ऊपर उठ कर लड़ा जाएगा। परन्तु यह दुखद है कि भारत में स्थितियां इतनी खराब हो गईं कि संयुक्त राष्ट्रसंघ तक को यह कहना पड़ा कि इस वैश्विक आपदा से लड़ाई में नस्ल और धर्म की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। इसके बाद पीएम नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा कि कोरोना वायरस धर्म या जाति की दीवारों को नहीं देखता और फिर आरएसएस प्रमुख ने भी कहा कि कुछ लोगों की गलतियों के लिए पूरे समुदाय को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। परन्तु तब तक जो नुकसान होना था, वह हो चुका था।
भारत में सबसे पहले तबलीगी जमात पर निशाना साधा गया। इस संस्था की कुछ भूलों को कोरोना के प्रसार के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। यही नहीं, इनको लेकर कई तरह की झूठी खबरें भी प्रचारित की गईं। कहा गया कि जमात के सदस्य डॉक्टरों और नर्सों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं और इस रोग को फैलाने के लिए सब्जियों और फलों पर थूक रहे हैं। सांप्रदायिक तत्वों को इससे भी संतोष नहीं हुआ तो मुसलमान व्यापारियों और दुकानदारों का बहिष्कार करने का आव्हान किया गया और आवासीय परिसरों में ठेले पर सामान बेचने वाले मुसलमानों के प्रवेश पर रोक लगाने की बात कही गई।
एक अन्य घटना में लॉकडाउन के बावजूद मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर हजारों लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई। इसका कारण थी यह अफवाह कि वहां से कुछ ट्रेनें रवाना हो रही हैं, जो प्रवासी मजदूरों को उनके गृह प्रदेशों तक ले जाएंगी। संयोगवश, यह स्टेशन एक मस्जिद के पास है और इसका लाभ उठाते हुए गोदी मीडिया ने इस घटना का भी सांप्रदायिकीकरण कर दिया। इससे फिजा में घुली नफरत का रंग और गहरा हो गया।
तीसरी बड़ी घटना थी महाराष्ट्र में पालघर के नजदीक दो साधुओं और उनके ड्राईवर की लिंचिंग। इन तीनों को इस शक में मार डाला गया कि वे बच्चे चुराने वाली गैंग के सदस्य हैं। इस घटना के बारे में भी कहा गया कि इसे मुसलमानों ने अंजाम दिया। यह सफेद झूठ है। इस मामले में रिपब्लिक टीवी के अर्नब गोस्वामी ने ‘नीचता’ की सारी हदें पार कर दी और यहां तक कह डाला कि सोनिया गांधी इस घटना से खुश हुई होंगीं। गोस्वामी ने सोनिया गांधी के इतालवी मूल का हवाला भी दिया। गोस्वामी को अपनी इस बेजा टिप्पणी के लिए कानूनी कार्यवाही का सामना करना पड़ रहा है। परन्तु यह एक अलग कहानी है।
देश में जिस तरह से मुसलमानों से दूर रहने और उनका बहिष्कार करने की बातें कही जा रही हैं, उनसे जर्मनी में यहूदी व्यापारियों के बहिष्कार के आव्हान की याद आना स्वाभाविक है। इस आव्हान के बाद ही जर्मनी में ‘फाइनल सोल्यूशन’ का नारा दिया गया था। हमारे समाज में मुसलमानों और कुछ हद तक ईसाईयों के बारे में तरह-तरह के मिथकों और पूर्वाग्रहों का बोलबाला है।
इन समुदायों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली एक बहुत बड़ी मशीनरी देश में सक्रिय है। यह मशीनरी पिछले कुछ सालों में और मजबूत हुई है। इस सोच की जड़ें काफी गहरी हैं और इसे सांप्रदायिक तत्वों ने काफी मेहनत से खाद-पानी दिया है। हमारे लिए यह कल्पना करना ही मुश्किल था कि कोविड-19 जैसे मानवीय त्रासदी का उपयोग भी विभाजनकारी रेखाओं को और गहरा करने के लिए किया जा सकता है।
हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा में रचे-बसे हजारों प्रशिक्षित लोगों की एक विशाल सेना मुसलमानों की नकारात्मक छवि गढ़ने और उनके बारे में पूर्वाग्रहों का प्रचार-प्रसार करने में जुटी हुई है। इस सेना ने हमारे समाज के सभी वर्गों में अपनी पैठ बना ली है। बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ के मोरारजी देसाई के नेतृत्व और जयप्रकाश नारायण के संरक्षण में गठित जनता पार्टी सरकार में शामिल होने के बाद, बाबरी मस्जिद के विध्वंसक लालकृष्ण आडवाणी को केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री की जिम्मेदारी दी गई थी। तभी से मीडिया में सांप्रदायिक तत्वों का बोलबाला बढ़ना शुरू हुआ।
शाहबानो मामले में मुस्लिम नेतृत्व के एक तबके की भारी भूल ने इन तत्वों को मसाला दिया। इसके बाद तो फिरकापरस्तों ने मुड़कर नहीं देखा। देश के मध्यकालीन इतिहास को तोड़मरोड़ कर उसका इस्तेमाल आज के मुसलमानों का दानवीकरण करने के लिए किया गया। फिर आए लव जिहाद, घरवापसी और पवित्र गाय जैसे मुद्दे। मुसलमानों को समाज के हाशिये पर धकेल दिया गया और उनके विरुद्ध हिंसा का ग्राफ ऊपर जाने लगा।
मुसलमान अपने मोहल्लों में सिमटने लगे और उनमें बढ़ते असुरक्षा के भाव ने उन्हें मौलानाओं की गोदी में बैठा दिया। मौलानाओं ने इस्लाम की शिक्षाओं की संकीर्ण और पुरातनपंथी व्याख्या करनी शुरू कर दी और इससे गोदी मीडिया को पूरे मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने का अवसर मिल गया। जो मुसलमान इस्लाम की सच्ची शिक्षाओं की बात करते थे, जो मुसलमान मानवीय मूल्यों के हामी थे, जो मुसलमान उदारवादी थे, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई।
फिर आया सोशल मीडिया, ट्रोल आर्मी और फेक न्यूज़। आज मुसलमानों के खिलाफ नफरत भड़काना इसलिए आसान हो गया है क्योंकि उनके प्रति पूर्वाग्रह पहले से ही लोगों के दिमागों में भरे हुए हैं। इसी पृष्ठभूमि में कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने एक थिंकटैंक का गठन किया है। इसका नाम है ‘इंडियन मुस्लिम्स फॉर प्रोग्रेस एंड रिफॉर्म्स’। वे एक साथ कई स्तरों पर काम करने का इरादा रखते हैं। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि वे इस समुदाय को सुधार की दिशा में ले जाएंगे और मुस्लिम युवकों के लिए रोजगार के अवसरों का सृजन करने में मदद करेंगे। इसके साथ ही वे मीडिया द्वारा मुसलमानों का दानवीकरण करने के प्रयासों का मुकाबला भी करेंगे।
हम उनसे यह अनुरोध भी करना चाहेंगे कि वे समाज में व्याप्त नफरत की नींव पर भी प्रहार करें। इस सन्दर्भ में लब्धप्रतिष्ठ अध्येताओं जैसे डॉ. असगर अली इंजीनियर, के.एन. पणिक्कर और अनेक इतिहासविदों, जिन्हें वामपंथी इतिहासविद कहा जाता है, ने अत्यंत उपयोगी काम किया है। उन्होंने इतिहास के वैज्ञानिक और तार्किक अध्ययन पर जोर दिया है- उस इतिहास पर जो विविधता का उत्सव मनाता है।
उन्हें गांधी के विचारों और कार्यों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गांधीजी ने इस देश में अंतरसामुदायिक रिश्तों को प्रेम और सौहार्द पर आधारित बनाने में महती भूमिका अदा की थी। इस काम में जवाहरलाल नेहरु की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और उस पर आधारित ‘भारत एक खोज’ नामक टीवी धारावाहिक भी मददगार हो सकता है। कुछ और पीछे जाने पर हम भक्ति (कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता आदि) और सूफी (निजामुद्दीन औलिया, गरीब नवाज़ ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती आदि) संतों से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं, जिन्होंने सांझा धार्मिक परम्पराओं पर जोर दिया था।
इस थिंक टैंक को देश में काम रहे ऐसे संगठनों की मदद भी लेनी चाहिए जो इस दिशा में विचार और काम कर रहे हैं। बंधुत्व को बढ़ावा दिए बगैर हमारे देश में प्रजातंत्र जिंदा नहीं रह सकेगा। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अगर अल्पसंख्यकों का दानवीकरण रोका नहीं गया तो यह नफरत हमें किसी दिन हिंसा के ऐसे दावानल में झोंक देगी, जिसमें हमारा बुरी तरह से झुलसना अपरिहार्य होगा।
(लेख का हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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