आकार पटेल का लेख: सबसे बड़ी आबादी तो बन गए हम, पर क्या जमीनी हकीकत भी समझते हैं!
हम दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश तो बन गए, लेकिन क्या हकीकत को समझते हैं हम? आज हम कहां खड़े हैं और भविष्य को लेकर क्या उम्मीदें हैं।
न्यू इंडिया एक बार फिर दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन गया है। 1947 तक ओल्ड इंडिया भी दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश था, इसलिए यह कोई नई बात नहीं है। वैसे भी अगर यह विचार कि राजनीतिक सीमाएं ऐतिहासिक तौर पर देशों को प्रभावित नहीं करती हैं, तो भारत हमेशा से ही सबसे ज्यादा लोगों वाला देश रहा है।
लेकिन राजनीतिक सीमाएं तो वास्तविकता हैं और बाकी सब कपोल-कल्पित, तो भी चलिए मान लेते हैं कि ऐसा पहली बार हुआ है। कोई दो दशक पहले भारत ने ऐलान किया कि उसकी आबादी 100 करोड़ के आकंड़े को पार कर गई है। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। तब यूं ही किसी एक बच्चे को चुनकर कहा गया कि वह देश का 100 करोड़वां नागरिक है, (हालांकि इसका प्रचार बहुत मामूली स्तर पर किया गया, फिर भी कुछ शोर-शराबा तो किया ही गया था।) और इसे देश के एक नए दौर का आगाज बताया गया।
यह उन दिनों की बात है जब भारत में जनगणना होती थी, इसलिए बाहर की दुनिया को हमें यह बताने की अलग से जरूरत नहीं पड़ती थी कि हम आबादी में चीन को पार कर चुके हैं। लगभग उसी समय, एपीजे अब्दुल कलाम ने इंडिया 2020 नामक एक किताब लिखी थी कि कैसे हम 2020 तक एक विकसित राष्ट्र बन सकते हैं और इसकी कितनी अधिक संभावना है। इसमें कई अध्याय थे जिनमें बताया गया था कि इस मुकाम को हासिल किया जा सकता है। मैंने हाल ही में इस किताब को फिर से देखा और पाया इसमें कितनी मासूमियत से बातें कही गई हैं। इन दिनों हम अपने आसपास जो देख रहे हैं उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसका उस किताब में पूर्वानुमान या उम्मीद की गई हो। हम हमेशा की तरह लड़खड़ाते ही रहे हैं, हालांकि नारे और जुमले बदलते रहे हैं।
अब हम अमृतकाल में हैं और अगर आज किसी बच्चे को हम चुनते हैं और बताते हैं कि हमने चीन को पीछे छोड़ दिया है तो हमें इसका आकलन भी करना होगा कि हम कहां खड़े हैं।
पहला मुद्दा तो जनसांख्यिकीय लाभ का है, लेकिन यह तब आता है जब अधिकांश आबादी कामकाजी उम्र की होती है। हमने कुछ साल पहले इस अवधि में प्रवेश किया था, लेकिन हमें इसका लाभ नहीं मिला है। कारण यह है कि जो काम करने के लिए उपलब्ध हैं उनके लिए नौकरियां नाकाफी हैं। लेकिन काम के लिए उपलब्ध, यानी 15 वर्ष से अधिक वाले लोगों की संख्या आबादी का केवल 40 फीसदी है। विशेष रूप से भारतीय महिलाएं पाकिस्तानी और बांग्लादेशी महिलाओं की तुलना में बड़ी संख्या में कार्यबल से बाहर हो गई हैं। वैसे यह बात सिर्फ महिलाओं के बारे में ही नहीं बल्कि पूरी आबादी के लिए दुरुस्त है।
अभी कुछ दिन पहले वॉल स्ट्रीट जर्नल ने एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था, ‘भारत ने दुनिया के गुरुत्वाकर्षणीय केंद्र को बदलते हुए चीन को आबादी के मामले में पीछे छोड़ा’। इस लेख में बताया गया था कि कैसे भारत ने बीते एक दशक के दौरान कोई भी नई नौकरी सृजित नहीं की है, जबकि इस दौरान कम से कम 10 करोड़ नए लोग कार्यबल में शामिल हुए हैं।
आंकड़ों से पता चलता है कि 2022 में भारत में नौकरी या रोजगार करने वाले लोगों की संख्या 40.2 करोड़ थी, जोकि 2017 के 41.3 करोड़ से कम थी। यानी हमने इस दौरान कोई नई नौकरी तो नहीं ही सृजित की बल्कि जो पहले से नौकरियां थीं, उनमें भी कमी की।
इसका एक कारण है कि भारतीय उतना निवेश नहीं कर रहैं जितना वे पहले करते थे। द इकोनॉमिक टाइम्स ने सिंतबर 2022 में ‘भारत में निवेश की दर जीडीपी के 39 फीसदी से घटकर 31 फीसदी पर पहुंची’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। विश्व बैंक के आंकड़े भी बताते हैं कि भारत में ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन यानी सकल निश्तित पूंजी निर्माण में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 2011 के 31 फीसदी से गिरकर 2022 में 22 फीसदी पर पहुंच गई है।
हम पूछ सके हैं कि आखिर क्यों? इसका जवाब है कि भविष्य को लेकर आशावाद और आत्मविश्वास की कमी है। तो हम पूछेंगे कि आखिर ऐसा क्यों है, तो इसका जो जवाब मिलेगा हमें वह पसंद नहीं आएगा, क्योंकि इसका नाता सामाजिक संघर्ष और सरकार के कामकाज से जुड़ा है। जिन भारतीयों को हम धमका रहे हैं और परेशान कर रहे हैं, उनमें से बड़ी संख्या में भारतीय ऐसे भविष्य में निवेश नहीं करेंगे जहां उन्हें लगता है कि वह अंधकारमय है। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि बड़ी संख्या में भारत के करोड़पति देश छोड़ रहे हैं, और अमेरिकी या यूरोपीय पासपोर्ट लेकर विदेश से ही यहां के राष्ट्रवाद की गर्मी को बढ़ा रहे हैं।
एक और बड़े वैश्विक बिजनेस दैनिक फानेंशियल टाइम्स ने 20 अप्रैल 2023 को ‘भारत में फिसलन पर लोकतंत्र’ शीर्षक से संपादकीय लिखा। इस संपादकीय में भारत की आबादी का जिक्र भी था, लेकिन अखबार का संपादकीय प्रबंधन इस बहाने कुछ और भी कहना चाहता था जिसे हमारा मीडिया हमें नहीं बताता है।
भारत के पास या यूं कहें कि सरकारों के पास जो मौका है वह यह कि मानो सभी देश जब अंतरराष्ट्रीय रिश्तों की बात आती है तो पूरी तरह स्वहित के बारे में ही सोचते हैं।
ऐसे समय में जब महंगाई आसमानी हो, जब यूरोप में दोबारा युद्ध हो, जब चीन प्राथमिक चुनौती और खतरे के रूप में सामने हो, तो भारत को एक काउंटरबैलेंस यानी प्रतिसंतुलन के तौर पर देखा जा रहा है। अच्छा होगा अगर भारत बहुलवाद और खुलेपन के मूल्यों को प्रतिबिंबित करे, जिसे वह धारण करने का दावा करता है, लेकिन यह पूरी तरह से नहीं भी करता है तो भी ठीक ही है। अन्य लोकतांत्रिक देशों पर कुछ अंदरूनी दबाव तो है कि वे स्वच्छंद और उदार विचारों वाले देशों को अपने रुख बदलकर साथ आने को कहें। लेकिन इसकी अपनी सीमाएं है और वैश्विक संकट के समय में ये सीमाएं कम हो रही हैं। हम मान सकते हैं कि वैश्विक मीडिया में कठोर शब्दों के बावजूद हम अमृतकाल में विश्वगुरु बनने की हमारी श्रद्धा बनी रहेगी।
खुशी की बात यह है कि दुनिया को हमें आईना दिखाने की जरूरत नहीं है। हम अपने आप को देख सकते हैं और आसानी से समझ सकते हैं यदि हम इस बारे में ईमानदार रहें कि आजादी के तीन चौथाई सदी के बाद हम कहां खड़े हैं। हमारी राजनीतिक के मूल में हमारा संविधान और उसके मूल्य अब नहीं रहे हैं। तो इन मूल्यों से अगर हम जरा भी दूर जा रहे हैं, तो हमें देखना होगा कि हम आखिर बढ़ किस ओर रहे हैं।
इसलिए दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश होने की इस खबर को इसी हकीकत के आलोक में देखा जाना चाहिए।
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