आकार पटेल का लेख: हम खरीद रहे हैं राफेल, जबकि दुनिया तो साइबर युद्ध के दौर में पहुंच चुकी है
आज के दौर में कोई एक देश दूसरे देश का इंटरनेट काटकर ही उसे घुटनों पर ला सकता है। आज सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर किसी भी देश में आंतरिक युद्ध शुरु कराया जा सकता है। किसी भी देश के दो समुदायों या संप्रदायों को एक दूसरे के खिलाफ लड़ाया जा सकता है। इसके लिए न तो टैंक की जरूरत है और न लड़ाकू विमान की।
अखबारों में छपी एक खबर ने मेरा ध्यान अपनी तरफा खींचा। यह खबर थी कि भारतीय वायुसेना को करीब 200 लड़ाकू विमान चाहिए, और खबर में चर्चा की गई थी कौन सा लड़ाकू सही रहेगा। हमारे पास पहले से ही या तो रूसी सुखोई और मिग या फिर फ्रांस के बने मिराज और राफेल थे या फिर हम उन्हें खरीदने के लिए पैसे दे चुके थे। पहले या तो भुगतान कर चुके थे। इन विमानों ने बहुत ज्यादा किसी युद्ध में हिस्सा नहीं लिया था। इनका आखिरी बार इस्तेमाल 50 साल पहले हुआ था जब हमें पूर्व में युद्ध किया था। इसके बाद से ज्यादातर विमान आमतौर पर ग्राउंड पर ही थे या कभी-कभार किसी काम के लिए इस्तेमाल हो रहे थे।
लड़ाकू विमानों की तकनीक 100 साल पुरानी है, और इनका पहली बार विश्व युद्ध में 1914 में इस्तेमाल हुआ था। लड़ाकू विमानों के हमले से बचने के उपाय भी 100 साल पुराने हैं, और इसीलिए इन मशीनों का युद्ध में बहुत ज्यादा इस्तेमाल नहीं होता है और न ही इनके दम पर युद्ध जीते जाते हैं। अमेरिका ने अपना सबसे ताजा युद्ध गाइडेड मिसाइलों से लड़ा था, क्योंकि इंसान द्वारा उड़ाए जा रहे विमानों में पायलट की जान को खतरा रहता है। फिर भी पुराने जमाने के जनरल और फौजियों को यह सब समझाना मुश्किल होगा। इसीलिए सरकारें और देश इन सब पर पैसा खर्च करते हैं।
यह सब नया नहीं है क्योंकि फैजियों का यही तरीका रहा है। दूसरे विश्व युद्ध में जिस व्यक्ति ने सबसे ज्यादा कामयाब जर्मन सामरिक युद्ध कौशल विकसित किए वह हाइंज़ गुदेरियन नाम का एक फौजी था। उसने लिखा है कि उसने सेना में टैंकों को शामिल करने की बहुत कोशिश की, लेकिन जनरलों ने उसकी बात नहीं मानी। नतीजतन वरिष्ठ फौजियों ने हार मानी और जर्मनी ने बहुत से मैकेनाइज्ड बख्तरबंद हथियार तैयार किए जिनकी मदद से जर्मनी ने फ्रांस को हराया और रूस पर हमला किया।
लेकिन समय के साथ टैंक भी बेकार साबित होने लगे। कुछ बरस पहले मैं ब्रसेल्स स्थित नाटो-नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन के मुख्यालय में एक बार गेस्ट था। नाटो की स्थापना 1949 में हुई थी ताकि पश्चिमी यूरोप को सोवियत संघ से मिल रही चुनौतियों से निपटने के लिए एकजुट किया जा सके। सोवियत संघ तो खत्म हो चुका है, लेकिन नाटो आज भी एक सैन्य गठबंधन के रूप में अस्तित्व में है। इसके हर सदस्य को अपने देश के सौनिकों के साथ ही पैसा भी भेजना पड़ता है।
नाटो ने टैंकों पर बहुत पैसा खर्च किया है क्योंकि यूरोप को रूस के हथियारों से पोलैंड के जरिए सामरिक चुनौती मिल रही थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दूसरे हिस्से में रूस ने हिटलर की फौजों को भीषण जमीनी लड़ाई में हरा दिया था। इस लड़ाई में हजारों टैंकों ने हिस्सा लिया था।
इस तरह पश्चिमी यूरोप ने टैंकों के खिलाफ बचाव की तकनीक विकसित करने में अरबों डॉलर खर्च कर दिए। हालांकि सैन्य हथियारों में तेज़ी से बदलाव और विकास हुआ है और सोविय हमले और बचाव की रणनीतियां भी अब न्यूक्लियर मिसाइलों और पनडुब्बियों पर फोकस हो गई हैं। इसके अलावा समाजवाद के जरिए भी सरकारों पर कब्जे किए जा रहे हैं। नाटो के टैंक आज बेकार हो चुके हैं और अमेरिका एक तरह से यूरोप पर सही आरोप लगाता है कि वह नाटो में बहुत ज्यादा योगदान नहीं करता, क्योंकि रुसी चुनौती तो कब की खत्म हो चुकी है।
वर्ष 2020 शुरु होने में अब कुछ ही समय बचा है। ऐसे में खुद को टैंकों और लड़ाकू विमानों से लैस करना कोई समझदारी नहीं दिखती। यह बिल्कुल उसी तरह की बात है जैसे कि 1920 में कोई जरूरत से ज्यादा घोड़े खरीदने लगे। डोनल्ड ट्रंप के चुनाव ने यह साबित भी कर दिया है। रूस नहीं चाहता था कि हिलेरी क्लिंटन चुनाव जीतें और उसने ट्रंप को जिताने में मदद की। ये सब सीआईए और एफबीआई की जांच में सामने आ चुका है। रूस ने अपने मकसद हासिल करने के लिए एक तरह का युद्ध शुरु किया है। यह युद्ध सोशल मीडिया के जरिए लड़ा गया जिसमें फेक न्यूज और नकली प्रचार तंत्र के जरिए अमेरिकी वोटरों को प्रभावित किया गया। व्लादिमिर पुतिन ने अपना लक्ष्य हासिल करते हुए अमेरिका पर अपनी मर्जी थोप दी।
इस सब पर रूस ने कितना पैसा खर्च किया? सिर्फ 1.13 करोड़
आज के दौर में कोई एक देश दूसरे देश का इंटरनेट काटकर ही उसे घुटनों पर ला सकता है। आज सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर किसी भी देश में आंतरिक युद्ध शुरु कराया जा सकता है। किसी भी देश के दो समुदायों या संप्रदायों को एक दूसरे के खिलाफ नफरत फैलाकर लड़ाया जा सकता है। इसके लिए न तो टैंक की जरूरत है और न ही किसी लड़ाकू विमान की। राष्ट्रों को न सिर्फ हराया जा सकता है, बल्कि जरूरत के हिसाब से कमजोर भी किया जा सकता है।
कुछ साल पहले भारत ने सिर्फ 36 राफेल विमानों को खरीदने के लिए 59,000 करोड़ रपुए खर्च कर दिए, लेकिन हमें नहीं पता कि भविष्य में कभी हम उनका इस्तेमाल कर भी पाएंगे या नहीं। आज के दौर के युद्ध सीमाओं पर नहीं लड़े जाते, और न ही अनुशासित फौजियों की टुकड़ियां चाहिए। ये युद्ध लोगों को बीच पैदा किए जाते हैं और फौजें भी जनरलों या सेनापतियों के आदेश से नहीं बल्कि हैकर्स और ब्लॉगर्स के जरिए क्रिया और प्रतिक्रिया करती हैं। ये लोग दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठकर अनाम रहते हुए ये सब कर सकते हैं।
फिर भी हमें लगता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा बहुत ही गंभीर मामला है और हमें सिर्फ फौजी जनरलों पर ही भरोसा करते हुए तैयारी करनी चाहिए। लेकिन गुदेरियन को पता था, कि यह समझदारी की बात नहीं है।
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