राम पुनियानी का लेखः सफाईकर्मियों के पांव पखारना नौटंकी, स्वयं के महिमामंडन से हालात नहीं बदलेंगे
हाथ से मैला साफ करना अत्यंत अपमानजनक और वितृष्णा पैदा करने वाला काम है। यह व्यक्ति को मनुष्य ही नहीं रहने देता। भारत में सफाईकर्मियों की परंपरागत जातियों का होना देश पर एक काला धब्बा है। भारत की तुलना में कहीं गरीब देशों ने इस प्रथा से मुक्ति पा ली है।
नाटकबाजियां पीएम मोदी की राजनीति का अभिन्न हिस्सा हैं। बल्कि शायद सबसे प्रमुख हिस्सा हैं। उनके द्वारा कुंभ में पांच सफाईकर्मियों के पांव पखारना और उसके बाद इसके बारे में ट्वीट करना ऐसा ही एक नाटक है। उनकी इस नौटंकी पर कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने ट्वीट कर अपना क्षोभ व्यक्त किया। सफाई कामगार संगठन के संयोजक और हाथ से मैला साफ करने की प्रथा के खिलाफ लंबे समय से संघर्षरत बेजवाड़ा विल्सन ने ट्वीट किया, ‘‘साल 2018 में 105 लोग सीवर और सैप्टिक टैंकों में मारे गए। वे चुप्पी साधे रहे। अब वे पैर धो रहे हैं। हमें नौटंकी नहीं न्याय चाहिए, श्रीमान प्रधानमंत्री! कितनी शर्म की बात है!”
उन्होंने आगे लिखा, ‘‘बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने मैला साफ करने को आध्यात्मिक अनुभव बताया था और अब बतौर प्रधानमंत्री वे एक अन्याय का महिमामंडन कर रहे हैं...। यह बाबा साहब अंबेडकर के मिशन- झाड़ू छोड़ो कलम पकड़ो के खिलाफ है। हमें मारना बंद करो।” आगे उन्होंने लिखा, ‘‘हमारे पांव नहीं अपने दिमाग को साफ करें, प्रधानमंत्रीजी। क्या इससे अधिक अपमानजनक कुछ हो सकता है? लगभग 1.6 लाख महिलाएं आज भी मैला साफ करने पर मजबूर हैं। उनके बारे में पांच साल में एक शब्द भी नहीं बोला गया। कितनी शर्मिदंगी की बात है!”
यह एक तरह से उन लोगों के दर्द की अभिव्यक्ति थी जो जाति प्रथा के इस सबसे क्रूर स्वरूप के शिकार हैं। सीताराम येचुरी कहते हैं कि साल 2018 में सीवर और सैप्टिक टैंकों में 105 सफाईकर्मियों की मौत हुई। साल 2019 में अब तक 11 लोग मारे जा चुके हैं। अदालतों के आदेशों के बावजूद इस गंभीर समस्या को सुलझाने के लिए कुछ नहीं किया गया। फोटो शूट करवाकर अन्याय के इन पीड़ितों के घावों पर नमक ही छिड़का जा रहा है।
इसी तरह सीपीआई (एमएल) ने इस समस्या के दूसरे पहलू की ओर ध्यान खींचते हुए कहा, ‘‘पीएमओ इंडिया, आपका काम यह सुनिश्चित करना है कि सफाई कर्मियों को उचित वेतन मिले, हाथ से मैला साफ करना और सीवरों में मौत बंद हो। इसकी जगह आप उनके पैर धोते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं। लापरवाही के कारण कुंभ मेले में एक सफाईकर्मी की मौत हो गई। क्या आप इस पर कुछ बोलेंगे?”
सफाईकर्मियों का पैर धोना एक तरह से वे जो कर रहे हैं उसका महिमामंडन करना है। भारत में जो लोग सफाई का काम कर रहे हैं वे नायक नहीं बल्कि पीड़ित हैं। आंकड़ों के अनुसार 2014 से 2016 के बीच पूरे देश में कम से कम 1327 सफाईकर्मी मारे गए क्योंकि उन्हें बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवरों में प्रवेश करने को मजबूर किया गया।
मौत तो इस भयावह प्रथा का एक पहलू मात्र है। हाथ से मैला साफ करना अत्यंत अपमानजनक और वितृष्णा पैदा करने वाला काम है। वह व्यक्ति को मनुष्य ही नहीं रहने देता। भारत में सफाईकर्मियों की परंपरागत जातियों का होना देश पर एक काला धब्बा है। भारत की तुलना में कहीं गरीब देशों ने इस प्रथा से मुक्ति पा ली है। भारत में यह प्रथा क्यों बनी हुई है? इसका कारण है पीएम मोदी और उनके पितृ संगठन आरएसएस के नेताओं की विचारधारा और और उनकी सोच।
खुद पीएम मोदी अपनी पुस्तक ‘‘कर्मयोग” (2007) में लिखते हैं, ‘‘कभी उस वाल्मीकि समाज के आदमी, जो मैला साफ करता है, गंदगी दूर करता है, उसकी आध्यात्मिकता का अनुभव किया है? उसने सिर्फ पेट भरने के लिए यह काम स्वीकारा हो मैं यह नहीं मानता, क्योंकि तब वह लंबे समय तक यह काम नहीं कर पाता। पीढ़ी दर पीढ़ी तो नहीं ही कर पाता। एक जमाने में किसी को ये संस्कार हुए होंगे कि संपूर्ण समाज और देवता की साफ-सफाई की जिम्मेदारी मेरी है और उसी के लिए यह काम मुझे करना है। इसी कारण सदियों से समाज को स्वच्छ रखना, उसके भीतर की आध्यात्मिकता होगी। ऐसा तो नहीं हो सकता कि उसके पूर्वजों को और कोई नौकरी या धंधा नहीं मिला होगा।’’
यह आध्यात्मिक अनुभव केवल दलितों की एक उपजाति वाल्मिकी के लिए आरक्षित है। इस जाति के सदस्य सदियों से केवल सफाई का कार्य करने के लिए अभिशापित हैं। और अब इस जाति के काम को महिमामंडित किया जा रहा है।
दरअसल आरएसएस का असली लक्ष्य है जाति प्रथा को जस का तस बनाए रखना। आरएसएस के गठन का एक प्रमुख कारण यह था कि ज्योतिबा फुले और भीमराव अंबेडकर से प्रेरणा ग्रहण कर दलित अपनी आवाज बुलंद करने लगे थे। दलितों ने 1920 के दशक में महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में गैर-ब्राम्हण आंदोलन शुरू किया था। दलितों के इस प्रतिरोध से ऊंची जातियां सशंकित हो गईं और 1925 में उन्होंने आरएसएस की स्थापना की। संघ के चिंतक गुरू गोलवलकर मनुस्मृति को एक महान पुस्तक मानते थे जिसने हिंदू समाज को वे नियम दिए जो हमेशा के लिए वैध हैं। दूसरी ओर अंबेडकर ने इसी पुस्तक को जला दिया था, क्योंकि वे मानते थे कि वह जातिगत और लैगिंक पदक्रम की वकालत करती है।
हाथ से मैला साफ करने की प्रथा का उन्मूलन लंबे समय पहले हो जाना था। भारत सरकार ने 1993 में इस पर आधिकारिक रूप से प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इस प्रथा के उन्मूलन के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि आज भी लाखों लोग इस घृणित काम को कर रहे हैं और इनमें से 95 प्रतिशत महिलाएं हैं।
ये सफाईकर्मी अछूत माने जाते हैं और इस जन्म आधारित पेशे में फंसे रहते हैं। राज्यों ने इस प्रथा के उन्मूलन को गंभीरता से नहीं लिया और 2000 तक कई राज्यों ने इसका उन्मूलन करने वाले अधिनियम को अधिसूचित तक नहीं किया था। इसी के चलते सफाई कर्मचारी आंदोलन ने 2010 तक इस प्रथा का उन्मूलन करने का आव्हान किया था।
हाथ से मैला साफ करने की प्रथा प्राचीन भारत में शुरू हुई थी और मध्यकाल में भी जारी रही। मुसलमान राजाओं ने पानी का इस्तेमाल कर मैला बहाने की कई तकनीकें लागू कीं, लेकिन सांप्रदायिक राजनीति हमेशा की तरह इस प्रथा के लिए भी मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराती है। ऐसा कहा जाता है कि चूंकि मुस्लिम महिलाएं बुर्का पहनने के कारण शौच हेतु खुले में नहीं जा सकती थीं इसलिए यह प्रथा शुरू की गई।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि हम अपनी आंतरिक कमियों और समस्याओं के लिए दूसरों को कब तक दोष देते रहेंगे? मुगल किलों पर किए गए अध्ययन बताते हैं कि इनके स्नानागारों में छोटे छेद हुआ करते थे जो शौचालयों का काम किया करते थे। इन शौचालयों से गंदगी पानी की सहायता से और गुरूत्वाकर्षण बल के कारण किले से बाहर चली जाती थी। यह तकनीक दिल्ली के लालकिले, राजस्थान, हंपी (कनार्टक) और केरल के थिरूअनंतपुरम् के महलों में देखी जा सकती है।
हमें उम्मीद है कि सभी नागरिकों के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार की रक्षा के लिए हाथ से मैला साफ करने की प्रथा का पूर्ण उन्मूलन किया जाएगा। यही इस काम में रत लोगों के प्रति सच्चा सम्मान होगा।
(लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं। लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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