चीन के साथ रिश्ते शांति की ओर लौटेंगे या युद्ध की ओर, यह भारत को करना है तय

अब तक चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच दो झड़पों को तुरंत नियंत्रित कर लिया गया। लेकिन अगर भारत यह नहीं समझता है कि आखिर किन चिंताओं की वजह से चीन ने खेल के नियम बदले और उन वजहों को खत्म करने की कोशिश नहीं करता, यह अस्थिर संतुलन लंबे समय तक नहीं टिकने वाला।

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प्रेमशंकर झा

मॉस्को में विदेश मंत्रियों एस. जयशंकर और वांग यी के बीच हुई लंबी बातचीत के कारण भारत और चीन को फौरी राहत जरूर मिली है। इस बैठक से पहले दोनों देश युद्ध के कगार तक पहुंच चुके थे। इसलिए कुछ तो जरूर हासिल हुआः दुनिया के सामने एक आश्वासन दिखा कि दोनों ही देश युद्ध नहीं चाहते और परस्पर संपर्क बनाए रखने की लंबे समय से निष्क्रय पड़ी प्रणाली को फिर से सक्रिय करने और ऐसे रास्ते की तलाश करने की इच्छा रखते हैं जिससे दोनों ही देश विजेता बनकर उभरें।

लेकिन क्या ऐसा कोई उपाय है? और अगर बीजिंग और दिल्ली ऐसी राह को नहीं खोज सके तो राहत का यह दौर कितने समय तक टिकेगा? दोनों देशों में हुई बातचीत पर जरा बारीकी से गौर करें तो यह साफ हो जाता है कि स्थायी शांति के लिए संभावनाएं अच्छी नहीं हैं। ऐसा इसलिए कि समस्या की जड़ को तो छुआ ही नहीं गयाः वांग यी ने सुझाया कि दोनों देशों को सीमा विवाद को ठंडे बस्ते में डालकर वैसे वैश्विक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जहां दोनों के साझा हित हैं। उन्होंने यह भी कहा कि चीन भारत को एक भागीदार के रूप में देखता है, न कि एक विरोधी के रूप में।

अस्थायी राहत

जयशंकर भी विवाद को खत्म करने में उतने ही उत्सुक थे लेकिन उन्होंने यह भी साफ किया कि इसकी शुरुआत चीनी सैनिकों की अप्रैल से पहले की स्थिति में लौटने से ही हो सकती है। भारत सरकार को इससे कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं। इस तरह हम वापस उस सवाल पर लौट आए हैं जिसने जून के बाद से विवाद को खत्म नहीं होने दिया।

पहले पलकें कौन झपकाएगा?

इसमें संदेह नहीं कि दोनों देशों में से कोई भी युद्ध नहीं चाहता। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी ने अपने पूरे जीवन में कभी भी पहले पलक नहीं झपकाई और उनके आगे भी ऐसा करने की संभावना नहीं। कहते हैं कि शी जिनपिंग भी उतने ही जिद्दी हैं। इसलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भविष्य में युद्ध नहीं होगा। व्यवहारिक रूप से हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि डोकलाम जैसी ही स्थिति हो और इस दलील के साथ कि सर्दियों के मौसम में 5,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई वाले इलाके की अपनी दुश्वारियों की बात कहके दोनों देश अपनी सेनाओं को वापस बुला लें।


निस्संदेह इस टकराव को चीन ने जन्म दिया है। लेकिन यह बात वैसे लोगों को स्पष्ट रूप से समझ में आनी चाहिए जो अति-राष्ट्रवाद के प्रभाव में सुन्न नहीं हैं, कि चीन ने हिमालयी इलाके के ऐसे इलाके को हथियाने के लिए यह सब नहीं किया है जिसकी आर्थिक अहमियत न के बराबर है। अगर हम बीजिंग के विदेश मंत्रालय और दिल्ली स्थित चीनी दूतावास के बयान पर गौर करें तो चीन ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसका मानना है कि भारत अब उन समझौतों का पालन नहीं कर रहा है, जिन पर 1993 में और फिर 2005 में सीमाई इलाकों में शांति व्यवस्था बनाने के लिए दोनों देशों ने समझौता किया था। जाहिर है, ऐसे में चीन की नजर में भारत अब उसके लिए विश्वसनीय संधि भागीदार नहीं रह गया था।

इसलिए लद्दाख में चीन की रणनीति दोनों देशों के संबंधों को नए सिरे से तय करने की है। हम शांति की ओर लौटते हैं या फिर युद्ध की दिशा में बढ़ते हैं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत चीन को यह भरोसा दिला सकता है या नहीं कि उसका इरादा आगे इन समझौतों का अक्षरशः पालन करने का है।

मोदी की चुप्पी

मोदी की गूढ़ चुप्पी को समझना मुश्किल है। अगर उन्होंने मई में ही शी जिनपिंग से हॉटलाइन पर बात करली होती तो जयशंकर और वांग यी हाल ही में मॉस्को में जिस सहमति पर पहुंच सके, वह स्थिति तीन माह पहले ही आ गई होती। इसके अलावा उसका एक फायदा यह भी होता कि तब वह बातचीत दोनों देशों के नेताओं द्वारा तय प्रक्रिया के अंतर्गत होती जबकि आज के समय में ऐसा कोई ढांचा नहीं रह गया है और पुरानी प्रक्रिया को बहाल करने की कोशिशें हो रही हैं।

अगर मोदी ऐसा करते, तो वे न तो प्रोटोकॉल को तोड़ रहे होते और न तो इसे भारत के झुकने के तौर पर लिया जाता क्योंकि दोनों नेताओं ने 2017 में अस्ताना में इस बात पर सहमति जताई थी कि परस्पर विवादों को सुलझाने और रणनीतियों पर चर्चा के लिए वे नियमित मिला करेंगे और इसी के तहत मोदी और जिनपिंग के बीच 2018 में वुहान में और 2019 में महाबलीपुरम में भेंट हो भी चुकी थी। मोदी की चुप्पी का संभावित कारण यह जुआ खेलना हो सकता है कि अगर भारत की सेना डट कर चीन के सामने खड़ी हो जाए तो चीन भिड़ने की जगह पीछे हो जाएगा।


अब तक चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच दो झड़पों को तुरंत नियंत्रित कर लिया गया। लेकिन अगर भारत यह नहीं समझता है कि आखिर किन चिंताओं की वजह से चीन ने खेल के नियम बदल डाले और उन वजहों को खत्म करने की कोशिश नहीं करता, यह अस्थिर संतुलन लंबे समय तक नहीं टिकने वाला। भारत-चीन सीमा विवाद के निपटारे के लिए राजनीतिक मापदंडों और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर हुए 2005 के समझौते पर फिर से विचार करके और इस बात की समीक्षा करके कि मोदी सरकार उन समझौतों से कितनी दूर चली गई, मौजूदा विवाद में चीनी चिंताओं को समझा जा सकता है।

2005 का समझौता

समझौते में 11 खंड हैं जिन्हें ‘अनुच्छेद’ के रूप में वर्णित किया गया है। पहले अनुच्छेद में कहा गया है कि: “सीमा से जुड़े किसी भी मतभेद को द्विपक्षीय संबंधों के समग्र विकास को प्रभावित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए ...” यह अपने आप में इस बात की परोक्ष स्वीकृति है कि वर्ष 2005 तक चीनी सरकार देश के भीतर के विभिन्न शक्ति केंद्रों को सीमा के मामले में एकराय करने में असफल रही। इसी कारण से चीन ने कभी भी अपना नक्शा नहीं दिया जिसका भारत की ओर से दिए जा रहे नक्शे के साथ मिलान किया जा सकता। जबकि सीमा संबंधी विवाद को सुलझाने का पहला चरण है दोनों ओर के नक्शों को सामने रखकर बात करना। ऐसा लगता है कि चीन की ओर से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी बाधा बनी रही। इसी कारण, 2005 के समझौते का उद्देश्य था कि सीमा विवाद का असर व्यापक द्विपक्षीय संबंधों पर न पड़ने दिया जाए।

निहितार्थ यह था कि वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर चीन और भारत के बीच सहयोग जैसे-जैसे मजबूत होंगे सीमा को लेकर आंतरिक आपत्तियां स्वतः कमजोर होती जाएंगे और अंततः खत्म हो जाएंगी। समझौते के कुछ अन्य अनुच्छेदों पर गौर करना उचित होगा। अनुच्छेद- 4 कहता हैः “दोनों पक्ष एक-दूसरे के रणनीतिक और वाजिब हितों तथा सुरक्षा सरोकारों का खयाल रखेंगे।” अनुच्छेद-5 कहता हैः दोनों पक्ष ऐतिहासिक साक्ष्य, राष्ट्रीय भावनाओं, व्यावहारिक कठिनाइयों और दोनों पक्षों की उचित चिंताओं और संवेदनशीलता और सीमावर्ती क्षेत्रों की वास्तविक स्थिति को ध्यान में रखेंगे। जबकि अनुच्छेद-7 कहता हैः सीमा विवाद को सुलझाने के क्रम में दोनों पक्ष सीमावर्ती क्षेत्रों में बसी आबादी के हितों की रक्षा करेंगे।

अनुच्छेद-4 और 5 चीन की चिंताओं को तो अनुच्छेद-7 तवांग को लेकर भारत की चिंताओं को अभिव्यक्त करता है। आज 15 साल बाद स्थिति यह है कि चीन ने तोलमोल की अपनी स्थिति तो कमोबेश बरकरार रखी है लेकिन मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अमेरिका से रिश्ते मजबूत करने में इतनी हड़बड़ी दिखाई कि देश अलग ही राह पर निकल गया। सितंबर, 2014 में जिनपिंग की महत्वपूर्ण भारत यात्रा के ठीक एक सप्ताह बाद ही मोदी संयुक्त राष्ट्र महासभा अमेरिका की यात्रा पर गए और एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत को पूरी तरह अमेरिका के खेमे में डाल आए। 2016 में गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के तौर पर ओबामा भारत आए और रणनीतिक लिहाज से दोनों देश एक कदम और आगे बढ़े और दक्षिण चीन सागर में मुक्त आवागमन की बात की गई।


फरवरी, 2016 में भारत ने दक्षिण चीन सागर में परिवहन की आजादी के लिए अमेरिका और जापान की नौसेना के तीन माह के अभियान में अपने चार युद्ध पोत भेज दिए। कुछ ही हफ्तों बाद मोदी सरकार ने दलाई लामा और भारत में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा को तवांग उत्सव में भाग लेने की अनुमति दे दी। यह वैसा ही फैसला था जैसे सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया जाए। चीन लंबे अरसे तक अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताता रहा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की 2009 में थाईलैंड में वेन जियाबाओ से मुलाकात के बाद ही चीन ने अरुणाचल पर खुलकर बयान देना छोड़ा था।

चीन ने शुरू में काफी संयम से काम लिया और इस बात की हर संभव कोशिश की कि भारत के साथ उसके रिश्ते खराब न हों। अमेरिकी मध्यस्थता की बात पर चीन ने कहा भी कि भारत और चीन अपने विवादों को सुलझाने औरअपने दीर्घकालिक हितों को सुरक्षित रखने में पूरी तरह सक्षम हैं। मोटे तौर पर यही कहा जा सकता है कि दोनों देशों में संबंध आगे कैसे रहेंगे, यह अब भारत को तय करना है।

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