विष्णु नागर का व्यंग्य: साहेब की सारी योजनाएं फ्लॉप, अब सूझ नहीं रहा कि करें तो करें क्या, बोलें तो बोलें क्या ?
नोटबंदी से कालाधन खत्म करने का दावा कर रहे थे साहेब आप। छाती ठोककर कह रहे थे कि भाइयो-बहनो कि इसमें कामयाबी नहीं मिली तो मुझे सरेआम फांसी पर चढ़ा देना मगर गजब कि अर्थव्यवस्था फांसी पर चढ़ रही है और साहेब को अपनी फांसीवाली बात अब याद भी नहीं।
साहेब यह देश खुद एक बहुत बड़ी समस्या है बल्कि यह देश कम,समस्या ज्यादा है। आप कहां फंस गए इसके सर्वेसर्वा बनकर ! यह देश, देश नहीं साहेब, उपमहाद्वीप है। यह गुजरात नहीं है ,जहां साहेब जो कहते थे, उल्टासीधा-आढ़ा टेढ़ा करते थे,चल जाता था। चलता नहीं था, फिर भी चला ही लेते थे। वैसे गुजरात भी एक समस्या है। जहां महात्मा गांधी पैदा हुए होंं, वहां कितने ही आप जैसे साहेब पैदा हो जाएं, तुरंत सफल भी हो जाएं मगर समस्याएं पैदा नहीं होंंगी,यह संभव नहीं। फिर भी गुजरात में 2002 जैसा नरसंहार एक राजनीतिक संभावना था और साहेब इस सीढ़ी से चढ़कर प्रधानमंत्री पद तक पहुंच गए और भारत को भी गुजरात समझना शुरू कर दिया लेकिन साहेब, गुजरात-फार्मूला यहां चल नहीं सकता।
साहेब आपको कश्मीर में धारा 370 हटाने पर फौरी वाहवाही तो मिल गई मगर मामला इतना उलझ चुका है कि आगे का रास्ता आपको सूझ नहीं रहा है। पहलेवाली हालत लाना भी नामुमकिन और इस हालत में बहुत देर तक कश्मीर को जेल बनाकर रखना भी नामुमकिन।
नोटबंदी से कालाधन खत्म करने का दावा कर रहे थे साहेब आप। छाती ठोककर कह रहे थे कि भाइयो-बहनो कि इसमें कामयाबी नहीं मिली तो मुझे सरेआम फांसी पर चढ़ा देना मगर गजब कि अर्थव्यवस्था फांसी पर चढ़ रही है और साहेब को अपनी फांसीवाली बात अब याद भी नहीं। यह भी याद नहीं कि साहेब ने ही नोटबंदी की थी- जवाहर लाल नेहरू ने नहीं की थी! हां साहेब यह 'लाभ' अवश्य हुआ आपके लोगों का कालाधन और काला हो गया, ब्लैक हो हो गया और आपकी पार्टी के पास कालाधन इतना हो गया कि खबरें आने लगीं कि एम एल ए खरीद- मूल्य 60-60,70-70 करोड़ तक पहुंंच गया है। विधायक मॉल में बिकने वाला माल हो गए हैं! गनीमत है कि सांसदों की खरीद की जरूरत नहीं पड़ी वरना उनका खरीद मूल्य क्या होता, इसकी कल्पना करना न खुदा के बस में था,न भगवान के वश में। हां खरीदने वाले के बस में जरूर था,जरूर है और अवश्य रहेगा। महाराष्ट्र में भी सुना है कि जल्दी ही विधायकों की बोली लग सकती है। इस बार तो सरेआम ही लगेगी, छुपकर कुछ नहीं होगा। न बिकनेवालों को डर है,न खरीदने वालों को! सबकुछ अत्यंत पारदर्शी होगा। आरटीआई से कोई सूचना मांगेगा तो वह भी उपलब्ध करवाई जाएगी! एक पुराना गाना याद आता है-प्यार किया तो डरना क्या?
साहेब आपके पास अभी साढ़े चार साल हैं, खूब मौज करो। ये खाओ,वो खाओ।अस्सी हजार रोज के मशरूम खाओ,सेहत बनाओ। यहाँ जाओ, वहाँ जाओ।इससे स्वागत करवाओ, उससे करवाओ। इधर भाषण दो, उधर दो।पार्टी फंड के लिए दोनोंं भैया मिलकर उगाही करते रहो,डील करते रहो।चुनाव क्या उपचुनाव क्या म्युनिसिपल चुनाव तक जिताने में पूरी ताकत झोंकते रहो।जिससे बदला लेना है, जमकर लो। जिसको देशद्रोही घोषित करना है,ताल ठोंक कर करो।मंदिर बनाओ।बाकी देश आपसे पहले भी चला है और रिजर्व बैंक की तिजोरियाँँ खाली किए बिना चला है,बाद में भी चल जाएगा।संघ भी आपसे पहले ध्वजप्रणाम करा रहा था,आगे वह अपनी चिंता खुद कर लेगा और देश भी वक्त आने पर संघ की चिंता अच्छी तरह से कर लेगा। बिना वाजपेयी जी, बिना आडवाणी जी के भाजपा आज चल रही है तो आप और आपके छोटे भाई के बगैर भी चल या डूब जाएगी।आप मस्त.रहो और हमें पस्त रखना बंद मत करो।वैसे आप फकीर हो,झोला लेकर चल देना जानते हो और इसका प्रशिक्षण भी दे सकते हो कि फाँसी पर चढ़कर भी कैसे नहीं चढ़ा जाता है,जो भगतसिंह नहीं जानते थे।तह भी कि इक्कीसवीं सदी के फकीर झोला लेकर विदेश जाते हैंं और हर बार झोला वहींं छोड़ आते हैंं,ताकि उसे वापिस लेने भी जा सकेंं!कते हैं !
साहेब आपके पास अभी साढ़े चार साल हैं, खूब मौज करो। ये खाओ,वो खाओ। अस्सी हजार रोज के मशरूम खाओ,सेहत बनाओ। यहां जाओ, वहां जाओ। इससे स्वागत करवाओ, उससे करवाओ। इधर भाषण दो, उधर दो। पार्टी फंड के लिए दोनोंं भैया मिलकर उगाही करते रहो, डील करते रहो। चुनाव क्या उपचुनाव क्या म्युनिसिपल चुनाव तक जिताने में पूरी ताकत झोंकते रहो।जिससे बदला लेना है, जमकर लो। जिसको देशद्रोही घोषित करना है, ताल ठोंक कर करो। मंदिर बनाओ। बाकी देश आपसे पहले भी चला है और रिजर्व बैंक की तिजोरियां खाली किए बिना चला है, बाद में भी चल जाएगा। संघ भी आपसे पहले ध्वजप्रणाम करा रहा था, आगे वह अपनी चिंता खुद कर लेगा और देश भी वक्त आने पर संघ की चिंता अच्छी तरह से कर लेगा। बिना वाजपेयी जी, बिना आडवाणी जी के बीजेपी आज चल रही है तो आप और आपके छोटे भाई के बगैर भी चल या डूब जाएगी। आप मस्त.रहो और हमें पस्त रखना बंद मत करो। वैसे आप फकीर हो, झोला लेकर चल देना जानते हो और इसका प्रशिक्षण भी दे सकते हो कि फांसी पर चढ़कर भी कैसे नहीं चढ़ा जाता है, जो भगत सिंह नहीं जानते थे। तह भी कि इक्कीसवीं सदी के फकीर झोला लेकर विदेश जाते हैं और हर बार झोला वहींं छोड़ आते हैंं, ताकि उसे वापिस लेने भी जा सके !
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Published: 17 Nov 2019, 8:00 AM