विष्णु नागर का व्यंग्य: ये उस युग की बात है जब सारी समस्याएं हल हो चुकी थीं और फिर...
बेरोजगार नेता घर-घर जाकर काम मांगने लगे थे। पूछने लगे थे, बहन जी, भाई जी, चाचा जी, अम्मा जी कोई समस्या हो तो प्लीज़ बताएं। कोई समस्या नहीं होगी, हम उसे हल नहीं करेंगे तो हमारा यह जीवन अकारथ जाएगा। पढ़े विष्णु नागर का व्यंग्य।
यह उस युग की बात है, जब देश में कोई समस्या नहीं बची थी। सारी समस्याएं हल हो चुकी थीं। जो समस्याएं नहीं थीं, वे भी हल हो चुकी थीं और जो समस्याएं पैदा होनेवाली थीं, वे भी हल हो चुकी थीं। यहां तक कि लव जिहाद, तीन तलाक़, गोहत्या, मुसलमानों की बढ़ती आबादी, जैसी विश्व की जटिलतम समस्याएं तक हल हो चुकी थीं। बुलडोजर चलकर थक चुके थे, सड़क पर लुढ़के पड़े थे। पड़े -पड़े बोर हो रहे थे, सड़ रहे थे, गल रहे थे, मर रहे थे। उन पर दया करनेवाला योगी- भोगी सब न जाने कहां जा छुपे थे। रोमियो स्कवेड का अंगभंग हो चुका था। योगियों के चोले उतर चुके थे। नान बायोलॉजिकल, बायोलॉजिकल हो चुके थे। 2047 को कोई याद करनेवाला भारत ही नहीं, विश्व के किसी कोने में नहीं बचा था।
कोई समस्या नहीं थी, यही कुछ के लिए सबसे बड़ी समस्या थी। जो नेता समस्याएं पैदा करने, फिर उसे हल करने के लिए पैदा होते और मरते थे, वे बेरोजगार हो चुके थे। उनका पूरा तंत्र बिखर चुका था। उनका मानसिक संतुलन गड़बड़ाने लगा था।
बेरोजगार नेता घर-घर जाकर काम मांगने लगे थे। पूछने लगे थे, बहन जी, भाई जी, चाचा जी, अम्मा जी कोई समस्या हो तो प्लीज़ बताएं। कोई समस्या नहीं होगी, हम उसे हल नहीं करेंगे तो हमारा यह जीवन अकारथ जाएगा। ऊपरवाला हमसे पूछेगा कि जीवन क्या जिया तो हम क्या जवाब देंगे? हमें नरक मिलेगा। यहां स्वर्ग भोगकर वहां नरक में नहीं रह सकते, माता जी, भैया जी, दया करो। हमारी सेवाएं लो। हमें जीते जी मत मारो।
धीरे -धीरे नेताओं से लोग आजिज आ चुके थे। कोई पूछने जाता, तो लोग दरवाजे उनके मुंह पर बंद कर देते थे, झिड़क देते थे कि भिखारी की तरह रोज चले आते हैं। लोग नेताओं को धमकाने लगे थे कि बार -बार समस्या पूछने आओगे तो तुम्हें हम समस्या बना देंगे, इसलिए घर बैठो और मौज करो। दुबारा इधर मुंह मत करना। फिर भी नेता मानते नहीं थे, कलई करवा लो कि तर्ज पर सुबह -शाम हांका लगाते थे कि समस्या हल करवा लो।
उनकी पूछ बंद थी तो आमदनी भी बंद थी। न कोई धमकाने के लिए उपलब्ध था, न कोई श्रेय देते हुए मालाएं पहना रहा था। मक्खियां तक नहीं बची थीं कि नेता उन्हें मारकर समय बर्बाद करें। टीवी कितना देखें, दारू पी- पीकर कितना होश खोएं, जुआ कितनी बार खेलें, कितनी बार हारें, कितनी बार रोएं। गाना आता नहीं थी, खेलने की उम्र गुजर चुकी थी। रिश्वत की पूंजी खत्म होने के कगार पर थी। कंगाली के दिन भूत बनकर खड़े थे।
इस वातावरण में अनेक नेताओं के आत्महत्या करने की खबरें आने लगी थीं। ऐसा देश के इतिहास में पहली बार हो रहा था कि आत्महत्या करवानेवाले खुद आत्महत्या कर रहे थे। कुछ दिन तो ऐसी अनोखी खबरें मीडिया में छाई रहीं। बाद में हालत इतने खराब हो गए कि किसी निवर्तमान या वर्तमान मुख्यमंत्री या यहां तक कि प्रधानमंत्री के मरने तक की खबर बिना उनकी तस्वीर के सिंगल कालम में चार लाइन में पीछे या बीच के पेज में छपने लगीं, जैसे किसी साहित्यिक गोष्ठी की खबर हो! कुछ नेता इंतजार कर रहे थे कि मीडिया कवरेज की स्थिति बेहतर हो, तब आत्महत्या करें मगर हालत लगातार बिगड़ते जा रहे थे। अखबार पैसे लेकर किसी नेता की आत्महत्या की खबर विज्ञापन के रूप में भी छापने को तैयार नहीं थे।
नेताओं के अनुसरण में उनके चमचे और दलाल भी इस रास्ते पर कदम बढ़ाने लगे। अधिकारियों के पास भी कोई काम नहीं था। उनका चपरासी तक उनकी नहीं सुनता था। न चाय लाता था, न पानी, न कार का दरवाजा खोलता था। उनका भी जीवन विकट हो गया था। वे भी नेताओं के मार्ग पर अग्रसर होने लगे थे।
कुछ नेता और अफसर आदि हिम्मत के धनी थे। उन्हें विश्वास था कि फिर से हमारे अच्छे दिन आएंगे। समस्याएं पैदा होंगी और उन्हें हल करने के लिए हमारी जरूरत पड़ेगी। अंततः ऐसे आशावादी सही साबित हुए। देश फिर पटरी पर आ गया। फिर समस्याग्रस्त हो गया। जो जिंदा बचे थे, वे धन्य हो गए, उनकी फिर से मौज हो गई।
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