विष्णु नागर का व्यंग्य: देश में अब चौंकने के लिए कुछ बचा नहीं!

लोकतंत्र और तानाशाही में अब कोई फर्क बचा है, जो हम चौंकें? धार्मिकता और क्रूरता में अब दूरी कितनी है, जो हम चौकें? क्या अब गेरुआ, गेरुआ रहा? खून के छींटें अब कहां नहीं हैं?

फोटो: सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

गूगल पर एक दिन एक खबर का शीर्षक दिखा। पूरी खबर देखने लगा तो वह ऐसे ‍गायब हुई, जैसे गधे के सिर से कभी सींग गायब हुए होंगे। घंटे, दो घंटे, तीन घंटे बाद भी वह खबर खोजने पर नहीं मिली। गूगलवालों ने सोचा होगा कि ये खरीदेगा तो नहीं और इस उल्लू के पट्ठे को चौंकाना भी अब संभव नहीं तो मरने दो साले को। सौ जनम तक भी ढूंढेगा तो भी यह अब नहीं मिलेगी।

उस खबर का शीर्षक कुछ इस तरह था कि आप चौंक जाएंगे मुंबई में वन रूम किचन के फ्लैट की कीमत सुनकर। मेरी इच्छा थी कि इसे पढ़ूं अवश्य और अपने पर प्रयोग करके देखूं कि मैं उस खबर से चौंकता हूं या नहीं? वैसे मुझे अपने पर पूरा विश्वास है कि मैं चौंकता नहीं। मैं जानता हूं कि इस देश में जिसके पास पैसा है, उसके पास पैसा ही पैसा है। कैसे-कहां से आया,अब इसका मतलब नहीं रहा। और जिसके पास नहीं है तो एक समय की रोटी के लिए भी नहीं है। और इस तथ्य से अब कोई चौंकता नहीं। वह भूखा भी नहीं और वह अमीर भी नहीं और मैं-आप भी नहीं। सरकार बहादुर तो कतई नहीं।

जहां तक उस फ्लैट की कीमत का सवाल है, वह दस से पचास करोड़ तक भी होगी तो भी मैं चौंकूँगा नहीं। सौ करोड़ होगी तो भी नहीं। पांच सौ करोड़ होगी, तो दस सेकंड के लिए अचंभित होऊंगा। फिर देखूंगा कि इसमें ऐसी क्या खास बात है। देखकर खरीदनेवाले को मन ही मन बेवकूफ कहूंगा और अपने काम से लग जाऊंगा। सोचूंगा कि मेरे फादर साहब को इससे क्या फर्क पड़ता है? वह तो ये सब देखने के लिए हैं नहीं तो मरने दो इन ससुरों को!

चौंकना अब मैंने पूरी तरह बंद कर दिया है। कुछ भी अब मुझे चौंकाता नहीं। देश के बड़े पद पर बैठा आदमी जब कहता है कि कमल के बटन को ऐसे दबाओ कि जैसे इन्हें फांसी दे रहे हो तो इसके बाद चौंकने के लिए कुछ रह जाता है? और वह शख्स इस भाषा पर रुकेगा? भाषा के आगे और मंजिलें हैं। अभी तो 2024 बाकी है।


भाषा से भी वह आगे बढ़े तो भी क्या चौंकना क्या? चौंकना अब बचकानापन है। रोना व्यर्थ है। ये घटियापन, ये ओछापन, ये नफरत अब चौंकाती नहीं। किसी को बुलडोजर बाबा कहकर उसकी पूजा की जाती है, उसे आदर्श बताया जाता है, वह भी नहीं। बुलडोजर से कुचलने की बात की जाती है, कुचल दिया जाता है तो भी नहीं। एक आदमी दूसरे आदमी पर थूकता-मूतता है, वह तो लगता है बेहद मामूली बात हो गई है इन दिनों। सामान्य सी। ऊंगली में छोटी सी चोट लग जाने जैसी!

किसी बड़े पूंजीपति की बेईमानी की रक्षार्थ, पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज करवाने की जिम्मेदारी सरकार खुद ओढ़ लेती है तो वह भी अब चौंकाता नहीं। अंतिम आदेश जारी करने से पहले देश की बड़ी अदालत कुछ और कहती है, बाद में कुछ और आदेश देती है तो भी मैं चौंकता नहीं। अब बिहार का बालू माफिया किसी सिपाही को कुचल कर मार देता है तो भी चौंकता नहीं। इस पर नीतीश कुमार का मंत्री कहता है कि इसमें नया क्या है, यह सब तो पहले भी होता रहा है। क्या यूपी-एमपी में यह सब नहीं होता तो भी मैं चौंकता नहीं! आप भी चौका बंद कीजिए। अब सबकुछ सामान्य बनाया जा चुका है, नित्यकर्म बन चुका है। चौंकना अब मूर्खता का पर्याय हो चुका है।

इजरायल का प्रधानमंत्री नेतन्याहू जिस तरह आतंकवाद को कुचलने के नाम पर एक-एक फिलीस्तीनी को कुचलवा रहा है, अस्पतालों में भर्ती मरीजों को मारा जा रहा है, लगभग पांच हजार बच्चों को हलाक करने  की खबरें हैं और जिस तरह दुनिया इसे टुकुर- टुकुर देख रही है, वह अब चौंकाता नहीं‌। क्या मणिपुर में साढ़े छह महीनों से जो चल रहा है, वह आपको चौंकाता है? चौका सकेगा, अब कभी?

 अब चौंकने के लिए कुछ बचा नहीं। जब वोट देना विपक्ष को फांसी देने के बराबर बन चुका है तो क्या चौंकना?

लोकतंत्र और तानाशाही में अब कोई फर्क बचा है, जो हम चौंकें? धार्मिकता और क्रूरता में अब दूरी कितनी है, जो हम चौकें? क्या अब गेरूआ, गेरूआ रहा? खून के छींटें अब कहां नहीं हैं? सबसे ज्यादा सबसे उजले कपड़ों पर हैं। दिन में छह बार एक से एक कीमती कपड़े पहनने वाले पर ये सबसे अधिक नजर आते हैं। साफे में नजर आते हैं, हैट पहनने पर नजर आते हैं। अब तो ये दाग चेहरे पर, कपाल पर, दाढ़ी में, उंगलियों पर नजर आते हैं। अब तो दाग ही दाग नजर आते हैं, न शरीर का कपड़ा नजर आता है, न भाषा, न स्थान? बस दाग, दाग ही दाग!


अब किसी व्यक्ति, किसी समाज, किसी भी मूल्य का पतन चौंकाता नहीं। आदमी में कहीं मानवीयता, सादगी बची  हो तो वह चौंकाती है। अकारण कोई किसी की मदद कर देता है और धन्यवाद लेने के लिए रुकता नहीं, यह चौंकाता है। उत्तरकाशी में टनल दुर्घटना में फंसे चालीस मजदूरों का युवा सुपर वाइजर जब कहता है कि मुझ पर सभी साथियों के जीवन की जिम्मेदारी है, मैं आखिर में बाहर आऊंगा तो यह बात चौंकाती है। दिल घबराता है कि ऐसी जिम्मेदारी इसमें कहां से आई? जहां प्रधानमंत्री से लेकर हर वीवीआईपी अपने को बचाने- बढ़ाने में लगा है, ऐसी धरती पर ऐसा आदमी गलती से कैसे, कहां से टपक पड़ा, जिसे अपने नहीं, दूसरे के प्राणों की चिंता है? क्या यह आदमी इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक का आदमी है या किसी और शताब्दी से, किसी और ग्रह से भटक कर यहां आ गया है? डर लगता है कि कहीं ऐसे आदमी को दुर्घटना के लिए जिम्मेदार न बता दिया जाए? ऐसा आदमी अन्याय करने के लिए सबसे उपयुक्त है!  

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