विष्णु नागर का व्यंग्य: चुनाव के मौसम में खूब चलता है घुसपैठिए-घुसपैठिए का खेल!
मेरा एक दोस्त कहता है कि 'घुसपैठिए' कोई और नहीं, ये खुद हैं। नफ़रत के ये चौकीदार ही असली घुसपैठिए हैं। घुसपैठिये कहीं और से आएं, यह जरूरी नहीं होता। पढ़ें विष्णु नागर का व्यंग्य।
अभी झारखंड के चुनाव में घुसपैठिये- घुसपैठिये का खेल खूब चला। वोट पड़ चुके, नतीजे आ चुके, काम बन चुका , अब यह खेल ठंडा पड़ चुका है। अब ये 'घुसपैठिये' अगर झारखंड में कभी आए भी तो 2029 में ही आएंगे, इससे पहले नहीं। ये दरअसल चुनावी जीव हैं। चुनाव में बढ़ते और पनपते हैं। चुनाव का मौसम गया कि ये भी चले जाते हैं। अब ये अपने 'घुसपैठिये' अगले चुनावी मौसम में किसी और राज्य में इस या किसी और नाम से प्रकट करवाएंगे। इन 'घुसपैठियों' से कहा जाएगा कि जाओ नफ़रत फैलाकर, हिंदुओं को मुसलमानों का डर दिखाकर हमें जिताने का अभियान चला कर आओ। अगले साल के शुरू में दिल्ली में चुनाव हैं। बांग्लादेशी घुसपैठिये नामक चुनावी जीव का यहां पहले भी 'उपयोग' होता रहा है, अब फिर से हो सकता है। तो हो सकता है इन 'घुसपैठियों’ को दिल्ली रवाना कर दिया गया हो!
इनके 'घुसपैठिये' और इनके 'प्राचीन मंदिर' भारत के कण-कण में पाए जाते हैं, जहां इनको जरूरत पड़ती है, वहीं उपलब्ध हो जाते हैं। इनको हर जगह घुसपैठिये या जिहादी जैसा कोई चुनावी मसाला चाहिए। सिक्का चल गया तो बल्ले-बल्ले वरना जयश्री राम तो कहीं गया नहीं! जय जगन्नाथ से इधर कोई फायदा नहीं है।
मेरा एक दोस्त कहता है कि 'घुसपैठिये' कोई और नहीं, ये खुद हैं। नफ़रत के ये चौकीदार ही असली घुसपैठिये हैं। घुसपैठिये कहीं और से आएं, यह जरूरी नहीं होता। इस किस्म के घुसपैठिये उसी देश की, उसी धरती के होकर भी अपने ही देश की धरती के टुकड़े-टुकड़े करते रहते हैं। अपने ही देश की संस्कृति-सभ्यता में घुसपैठ करके उसे खोखला बनाते रहते हैं। लोकतंत्र और संविधान का भुर्ता बनाकर उसे चट करते रहते हैं। लोगों में दुश्मनी के बीज बोकर उसकी चुनावी फसल काटते रहते हैं। कानून को ठेंगा दिखा कर अपना घटिया खेल खेलते रहते हैं। ये ठीक वही घुसपैठिये हैं।
इनसे पूछो कि इनका ये हिंदुत्व आया कहां से? कहीं उसने हमारे यहां घुसपैठ तो नहीं की है? यह शास्त्रों - पुराणों से तो निश्चित रूप से नहीं आया। यह रामायण-महाभारत से भी नहीं आया। गलत हो तो मित्रों, मुझे ठीक कर देना। यह इटली के फासिस्टों और जर्मन के नाजियों से यहां आया। खुद नहीं आया बल्कि इसे लाया गया! बालकृष्ण मुंजे जी किससे मिलने गए थे इटली? मुसोलिनी से मिलने गए थे न, जिससे जवाहरलाल नेहरू ने मिलने से इन्कार कर दिया था, जबकि मुंजे जी उससे प्रभावित होकर आए थे। सावरकर और गुरु गोलवलकर ने किसकी तारीफ में कसीदे पढ़े हैं- हिटलर और मुसोलिनी के ही न! इन्होंने बस इतना किया कि वहां से प्राप्त घृणा- शास्त्र को भगवा चोला पहनाकर उसका देसीकरण कर दिया और निशाने पर अपने देश के मुसलमानों को ले आए। इनका कुल योगदान आयातित माल पर अपनी मोहर लगाना है।
ये घुसपैठिये हैं, इसीलिए इन्हें भारत में ठीक से जमने में नब्बे साल लग गए! और अब भी पता नहीं कि इनका यह हिंदुत्व कितना स्थायी है! इटली और जर्मनी में जो विचारधारा कभी बहुत लोकप्रिय थी, वह गायब हुई तो ऐसी गायब हुई कि अब अस्सी साल बाद भी कोशिश करके वह वैसी जगह बना नहीं पा रही है!
ये घुसपैठिये हैं, इसलिए सारे भारतीयों की एकता इन्हें पसंद नहीं, केवल 'हिंदुओं' की 'एकता' इन्हें चाहिए। इन्हें यह एकता भी किसलिए चाहिए? सब जानते हैं और ये भी जानते हैं कि किसलिए चाहिए! सच्ची एकता चाहिए होती तो ये सवर्णों से साफ-साफ कहते और उनसे करवाकर दिखाते कि दलितों और पिछड़ों से वे शादी -ब्याह का रिश्ता बनाएं, मंदिरों में सबको अबाध प्रवेश दिलाएं। उनका बनाया खाना, उनके साथ बैठकर खाएं, उन्हें अपने यहां बुलाकर खिलाएं पर इन्हें ऐसी एकता सिर्फ शब्दों में चाहिए, आचरण में नहीं। इन्हें 'एकता' केवल नफरत करने और करवाने के लिए चाहिए! अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए चाहिए। हिंदुओं के एक तबके का तुष्टिकरण करने के लिए चाहिए।
ये घुसपैठिये अपने स्वार्थों के लिए जातियों में फांक पर फांक पैदा करते चले गए हैं। दलितों को दलितों से लड़ाते हुए 'एक हैं तो सेफ हैं' का नारा लगा रहे हैं। पिछड़ों को पिछड़ों से लड़ाकर पिछड़ों को पिछड़ा रखने में 'सहयोग' दे रहे हैं, हिंदुत्व की बलिवेदी पर अपने प्राण बचाकर उनके प्राण समर्पित करवा रहे हैं। ये आदिवासियों को आदिवासियों से लड़ा रहे हैं, ताकि वे गांवों और जंगलों से उजड़ें, जंगल खाली करें, जमीन में गड़ी संपदा अडानियों-अंबानियों को सौंप कर शहर के नर्क में जीने और मरने के लिए चले आएं। मणिपुर में मैतेई को ये पिछले डेढ़ साल से कुकी से लड़ा रहे हैं। हिंसा की आग में हाथ सेंककर, सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। दूसरे का दुख ही, इनका असली सुख है।
ये घुसपैठिये हैं इसलिए संसद और विधानसभाओं के सदस्य बनने पर ये शपथ तो लेते हैं कि विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक तथा शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा, भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना कार्य करूंगा मगर ये घुसपैठिये इस शपथ के बिलकुल विपरीत आचरण करते है़ं। यहां शपथ लेने का महत्व है, आचरण का नहीं। शपथ लेने के बाद ही विधायक या सांसद या मंत्री बना जा सकता है। बनने के बाद उसका उल्लंघन करके देश पर देर तक राज किया जा सकता है।
संविधान के प्रति निष्ठा का इनके लिए अर्थ है, उसकी पोथी को सिर से लगाना और संविधान को अपना धर्मग्रंथ बताकर उसकी कदम -कदम पर ऐसी-तैसी करना! संविधान का गुटका संस्करण जो लोगों को दिखाए तो उसे अर्बन नक्सल घोषित कर लोगों की नजरों से गिराते हैं और अपनी छवि बनाते हैं!
संविधान की प्रस्तावना कहती है कि हम भारत के नागरिक भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय और अवसर की समानता देंगे। अब बताइए इन घुसपैठियों ने आखिरी बार समाजवाद का नाम कब लिया था? याद न हो तो बता दूं कि 1980 में बीजेपी बनाते समय 'गांधीवादी समाजवाद' का नाम इन्होंने लिया था मगर जब 1984 के चुनाव में लोकसभा में इनकी केवल दो सीटें आईं तो ये गांधी और समाजवाद दोनों को हमेशा के लिए भूल गए। धर्मनिरपेक्षता शब्द से इन्हें सख्त नफरत है। अभी महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने अपने ही सहयोगी अजित पवार पर 'धर्मनिरपेक्ष' होने का ताना कसा था। संविधान समस्त नागरिकों को सब तरह के न्याय और समान अवसर देने की बात करता है मगर ये घुसपैठिये सबको अपना मानते ही कब हैं? न्याय और समान अवसर दिलाने का तो ये सपना भी देख नहीं सकते। ये शब्द इनकी शब्दावली में हैं ही नहीं!
संविधान विचारों की अभिव्यक्ति के साथ विश्वास, धर्म और उपासना पद्धति की स्वतंत्रता की बात करता है। अब आप ही पिछले दस साल का आकलन करके बताएं कि क्या यह आजादी सबको समान रूप से हासिल है? इनके आने के बाद से हिंदू धर्म बेचारा खतरे में पड़ हुआ है और पड़ा ही रहेगा क्योंकि इस समय देश नेतृत्व 'मजबूत हाथों में' है! ये हाथ इतने अधिक 'मजबूत' हैं कि हिंदू धर्म तक खतरे में है!
ये घुसपैठिये हैं। किसी दिन ये वोट के द्वारा ही भगाये जाएंगे पर बेचारे भागकर अमेरिका के सिवा जाएंगे भी कहां और वाशिंगटन में जो राष्ट्रपति बन कर बैठने जा रहा है,वह हमारे घुसपैठियों को शरण देगा? बड़ी मुश्किल है भाई। असली घुसपैठिये असली संकट में हैं।
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