विष्णु नागर का व्यंग्य: राजनीति के बाजार का कोई व्यापारी शाम को घर कभी खाली हाथ नहीं जाता
हर खाता-पीता आदमी अपने आप में एक चलती- फिरती दुकान है। कुछ तो बिग बाजार और कुछ बिग माल टाइप हैं।अगर आप उनके माल के खरीददार नहीं हैं तो वे अपने पास आपको एक मिनट भी फालतू खड़ा या बैठा नहीं रहने देंगे!
हम घसियारे इस सच को मानें या न मानें मगर जिनकी कहीं कोई घोषित या अघोषित दुकान नहीं है, वे भी छोटे - मोटे दुकानदार की तरह ही पेश आते हैं। जो बाजार में दुकान लगाकर बेचते हैं, वे क्या बेचते हैं, सबको पता है (हां उनमें भी कुछ ऐसे हैं जिनकी दुकान कुछ और की है और बेचते कुछ और हैं) मगर उनसे अधिक कुशल वे दुकानदार हैं जो न बेचने का ढोंग करते हुए, बेच रहे हैं। सभी पार्टियों के सभी नेता बाजार की मांग के हिसाब से अपना- अपना माल अपनी -अपनी दुकान पर बेचते हैं। कुछ का माल कभी ठीक- ठीक बिक जाता है, कुछ का नहीं बिकता। कुछ का एक फीसदी भी नहीं बिकता मगर जिसका माल आधा प्रतिशत भी बिक जाता है, उसकी राजनीति के बाजार में पूछ रहती है। चुनाव के समय वह वोट काटने के काम वही आता है और इसकी कीमत वह वसूल करता है।
राजनीति के बाजार का कोई व्यापारी शाम को घर कभी खाली हाथ नहीं जाता। कुछ न कुछ कमाकर ही ले जाता है। शिक्षा और स्वास्थ्य की बड़ी - बड़ी दुकानें- स्कूल, कालेज , इंस्टीट्यूट या यूनिवर्सिटी आदि नामों से खूब चल रही हैं। मंदिर आदि धर्मस्थल भी अब दुकानों में तब्दील बन चुके हैं और कुछ तो अब माल का रूप ले चुके हैं।ये बाबा-बाबी, ये कथावाचक ,ये धर्माचार्य, ये ज्योतिषाचार्य, ये योगाचार्य सब दुकानदार हैं। ये ऐसे दुकानदार हैं, जिन्हें धेलेभर का निवेश नहीं करना पड़ता, घाटा और मंदी का शिकार नहीं बनना पड़ता है मगर ये मुनाफा तगड़ा बटोरते हैं। जो जितना बड़ा ढोंगी है, वह उतना बड़ा कमाईवीर है।
कुछ रामदेव की तरह खुलेआम दुकानदार हैं, कुछ श्री श्री रविशंकर और जग्गी वासुदेव टाइप दुकानदार हैं, जो धर्म और योग का माल उच्च वर्ग को बेचते हैं। भारतीय क्रिकेट संघ भी एक बहुत बड़ी दुकान है, जिसे आज तक रसूखदार नेता चलाते आए हैं और कुछ को तो इससे इतना अधिक प्यार हो जाता है कि इसे अपने साथ ऊपर ले जाने की फ़िक्र में रहते हैं। आजकल हमारे गृहमंत्री जी के सुपुत्र जी को इसका संचालन कर रहे हैं। खिलाड़ी इस दुकान का माल हैं, जो खुले बाजार में बिकने को तैयार रहते हैं। बस आंखें खोलने की जरूरत है,जहां देखो, वहां बाजार है। घर और बाजार का अंतर अब मिट चुका है। घर भी बाजार है और बाजार भी बाजार ! अखबार भी अब अखबार कम बाजार अधिक हैं और टीवी चैनल भी। यूट्यूब और सोशल मीडिया भी बाजार है।
हर खाता-पीता आदमी अपने आप में एक चलती- फिरती दुकान है। कुछ तो बिग बाजार और कुछ बिग माल टाइप हैं।अगर आप उनके माल के खरीददार नहीं हैं तो वे अपने पास आपको एक मिनट भी फालतू खड़ा या बैठा नहीं रहने देंगे!
हम जिनकी कोई दुकान किसी शहर, किसी कस्बे, किसी गांव, किसी गली में नहीं है, हम जो खुद को दुकानदार मानने में अपनी हेठी समझते हैं, हम भी दुकानदार हैं।कुछ ने तो ईमान की दुकान लगा रखी है, कुछ ने अपने दुर्दिनों की। कुछ आंचलिकता की दुकान लगाये बैठे हैं, कुछ महानगरीयता की । कुछ जाति- धर्म की दुकानें सजाये बैठे हैं। बेईमानी और धोखाधड़ी की दुकानें बहुत बढ़िया चल रही हैं। कुछ अपनी सफलता बेच रहे हैं तो कुछ अपनी असफल होने की कुंठाएं। कुछ बदजुबानी को खरेपन के नाम पर बेच रहे हैं, कुछ ने विनम्रता की दुकान लगा रखी है। कोई प्रकृति प्रेम बेच रहा है, कोई अपना पशु- पक्षी प्रेम। आजकल ब्राह्मण, बनिया प्रेम ज़रा कम बिक रहा है मगर माल इनका भी खूब बिक रहा है बल्कि कालाबाजार में बिक रहा है।
कोई अपना बचपन बेच रहा है, कोई कहा ग्राम्य जीवन बेच रहा है। कुछ को अपनी लफंगई बेचना खूब आता है, कुछ को अपना भुजबल। कुछ सांप्रदायिकता में अंधविश्वास का घोल मिलाकर बेच रहे हैं। कुछ आनंद की दुकान लगाए बैठे हैं, कुछ ने अपने गमों की दुकान सजा रखी है। कुछ अपना स्वास्थ्य तो, कुछ अपनी बीमारियां बेच रहे हैं। कुछ देशप्रेम, कुछ प्रांत प्रेम और कुछ भाषाप्रेम और बोलीप्रेम बेच रहे हैं। एक कहावत है कि बोलनेवाले का सड़ा माल भी बिक जाता है और चुप रहनेवाले का अच्छा माल भी नहीं बिकता।
मोदी जी की नफ़रत की 99 साल पुरानी दुकान पर बैठे मुनाफा काट रहे हैं तो राहुल गांधी कहते हैं, मैंने मुहब्बत की दुकान खोल रखी है।
ग्लोबलाइजेशन तथा कम्युनलिज्म की संयुक्त कमान में सब बिक रहा है। पहले पानी या जूस या शराब ही बिकती थी, अब उसमें गोमूत्र तथा गोबर भी बिक रहा है। वह गोबर अधिक बिक रहा है, जो दिमाग में भरा हुआ है। पहले जिनके दिमाग में ज्ञान भरा था, वे उसे खाली कर गोबर भर रहे हैं। उसकी कीमत अब सोने की कीमत से अधिक है।
हम चालाक मगर मूर्ख लोग हैं। हम समझते हैं कि हमारे अलावा सब भोले या मूर्ख हैं और उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि हम भी दरअसल दुकानदार हैं। सब सबको दिख रहा है कि कौन क्या किस तरह बेच रहा है। जो संत की मुद्रा बनाये बैठा है, उसका ढोंग सबसे ज्यादा उजागर है।
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