विष्णु नागर का व्यंग्य: नीतीश और ललन ने अद्भुत ज्ञान का परिचय दिया, किस वृक्ष के नीचे मिला ये परम ज्ञान?
सच ही कहा आप दोनों ने कि महिला कैसे जान सकती है? उसे तो चुपचाप सुनने की अकल तक नहीं! अगर होती तो नीतीश जी को यह कहना नहीं पड़ता कि महिला हो, जानती नहीं हो, चुपचाप सुनो।
महिला हो, जानती नहीं हो, चुपचाप सुनो-आरजेडी विधायक रेखा देवी को नीतीश कुमार की सीख।
राबड़ी देवी को बजट जैसी चीज़ क्या समझ में आएगी? -ललन सिंह
सच ही कहा नीतीश जी और आपकी पार्टी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री ललन सिंह जी ने और क्या ही संयोग है कि दोनों ने एक ही दिन, लगभग एक सी बात अलग- अलग शब्दों में अलग-अलग महिलाओं के लिए कह कर उन्हें 'सम्मान' दिया! एक ही दिन, एक ही पार्टी के दो वरिष्ठ नेताओं के नेत्र खुले, ज्ञान का विस्फोट हुआ। पता नहीं वह कौन-सा बोधि वृक्ष था, जहां दोनों को यह परम ज्ञान न जाने कितने वर्षों की तपस्या के बाद प्राप्त हुआ! उस वृक्ष की खोज होना चाहिए। उसकी पूजा आरंभ होनी चाहिए। उस वृक्ष के नीचे बैठाकर इन दोनों की पूजा करना चाहिए! इस पूजा में महिलाओं को विशेष उत्साह से भाग लेना चाहिए!
सच ही कहा आप दोनों ने कि महिला कैसे जान सकती है? उसे तो चुपचाप सुनने की अकल तक नहीं! अगर होती तो नीतीश जी को यह कहना नहीं पड़ता कि महिला हो, जानती नहीं हो, चुपचाप सुनो। अकल होती तो जो बजट सबसे कमजोर लोगों को सबसे पहले और सबसे अधिक समझ में आना चाहिए, उस पर टिप्पणी करनेवाली राबड़ी देवी की समझ पर सवाल नहीं उठाया जाता। उनके अधिकार को चुनौती नहीं दी जाती!
अकल तो खैर सारी की सारी हम पुरुषों के हिस्से में आ चुकी है!। कुछ मेरे पास होगी, कुछ आपके पास और बाकी सारी मोदी जी, शाह जी, आदित्यनाथ जी के पास! थोड़ी- बहुत गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू में भी रही हो शायद! काश, महिलाओं में भी अकल होती, उनके पास आप- हम जैसे 'विद्वान ' पुरुषों की बात चुपचाप सुनने का समय होता!
आपने-हमने तो पूरी कोशिश की कि महिलाएं न जानें, उनके भेजा हमेशा खाली रहे। उनका ज्ञान चौके -चूल्हे तक सिमटा रहे! इसी हेतु जब वे लड़की थीं तो हमने अपने- अपने घरों में उन्हें पूरा खाना नहीं दिया! पौष्टिक आहार का तो प्रश्न ही नहीं उठता! उनकी मांओं को भी कहां भरपूर और पौष्टिक खाना मिला मगर भरपूर काम उन्होंने किया? लड़की जब आठवीं- दसवीं तक पढ़ गई तो कह दिया, बहुत पढ़ गई। पराया धन है। अधिक पढ़ेगी तो बिगड़ जाएगी। प्रेम आदि के चक्कर में फंस जाएगी। खानदान की इज्जत के चीथड़े उड़ा देगी।
उसे बैठा दिया गया घर में। उसे रोटी बनाने,गोबर पाथने के काम में लगा दिया। घर से बाहर जाने से रोक दिया। लड़कों से बात करने से मना कर दिया ।प्रेम करने नहीं दिया। उससे प्रेम करने की और उसने प्रेम करने की कभी 'गलती' कि तो बंदूकें और पिस्तौलें तक निकल गईं। किसी लड़के संग भाग गई तो दोनों को पकड़ के चीर दिया गया। और यह सब नहीं हुआ तो किसी के संग गाय-बैल की तरह बांध दी गई।बे च दी गईं, खरीद ली गईं। वेश्या बना दी गईं। भूल जाना पड़ा उन्हें अपना सारा अतीत, अपना गांव, अपना शहर, अपना परिवार। बिसार देना पड़ा सबकुछ। उससे सारे रिश्ते तोड़ लिए गए। उसे मरा हुआ मान लिया गया। उसे अपने पूरे विगत पर पोंछा लगा देना पड़ा! किसी नीतीश कुमार, किसी लल्लन सिंह, आपको और मुझे यह कभी करना नहीं पड़ा! हमारे गुनाह , गुनाह कभी नहीं रहे। हम पकड़े गए तो हमारी बेगुनाही के पक्ष में सारा परिवार खड़ा हो गया!
फिर भी देखिए आज पंचायतों ,विधानसभाओं और लोकसभा में आकर महिलाएं खड़ी हो रही हैं। सवाल दर सवाल दाग रही हैं। सवालों के घेरे में सब 'बेगुनाहों' को ला रही हैं। उन्होंने, जीवन के उन सारे क्षेत्रों में आना शुरू कर दिया है, जो पहले उनके लिए निषिद्ध थे। वे सैनिक बनीं, पायलट बनीं। आईएएस अधिकारी बनीं, आईपीएस बनीं। सिपाही बनीं, जज बनीं, प्रोफेसर बनीं, वैज्ञानिक बनीं। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनीं। वे पहलवान बनीं और उनके शरीर का फायदा उठाने की कोशिश करनेवाले के विरुद्ध जमकर लड़ीं। एक तरफ पूरी सरकार थी, गुंडे थे, फिर भी लड़ीं। जहां भी वे हैं, वहां लड़ीं। पति छोड़ गया या किसी दुर्घटना में दुनिया से जाता रहा तो बच्चों को अपनी पीठ पर बांधकर जीवन के हक में लड़ीं और लड़ती ही रहीं। बच्चे भूल गए, सड़क पर बेहाल-बेसहारा छोड़ गए, तब भी उनकी सलामती की दुआ करती रहीं।
और बहुत पीछे नहीं जाएं तो नीतीश जी, वे देश की आजादी के लिए लड़ीं। लक्ष्मीबाई होकर लड़ीं, बेगम हज़रत महल होकर लड़ीं। वे अरुणा आसफ अली होकर, लक्ष्मी सहगल होकर, सरोजनी नायडू होकर लड़ीं। वे आजादी के बाद मेधा पाटकर, अरुंधती राय होकर लड़ीं। हर जगह, हर मोर्चे पर, हर इंच जगह के लिए लड़ीं। वे रोटी बनाते हुए, कपड़े धोते हुए, बरतन मांजते हुए, खेत पर मजदूरी करते हुए, ईंटें ढोते हुए, कारखानों में , आफिसों में नौकरी करते हुए लड़ीं। पुरुषों की हिंसक और अश्लील नजरों से लड़ीं।
और ऐसा नहीं वे अपने लिए ही लड़ीं। वे हमारे -आपके लिए, हमारे बच्चों के भविष्य के लिए लड़ीं। वे साथ -साथ लड़ीं और मौका आया तो सामने खड़ी चट्टान से टकराने से भी नहीं डरीं। अकेले लड़ीं। लड़ीं ही नहीं प्यार भी किया, त्याग भी किया। आधी रोटी खाकर घर के लोगों को पूरी रोटी खिलाई। वे यह जानते हुए लड़ीं कि तुम उन्हें कभी भी, कहीं भी धोखा दे सकते हो। वे चुप रहकर लड़ीं और चीखना- चिल्लाना पड़ा तो उस तरह भी लड़ीं। उनके चरित्र पर किसी ने लांछन लगाया तो और जोर से लड़ीं। और आज भी और अधिक मुखर होकर लड़ती रही हैं। हमें बेचैन किए दे रही हैं। ठीक है,कमजोरियां तो उनमें भी रहीं होंगी, गलतियां उन्होंने भी की होंगी और कितना अच्छा है कि किसी नीतीश कुमार, किसी मोदी, किसी शाह में कभी कोई कमजोरी नहीं रही,कोई ग़लती नहीं की। इनके चरित्र हमेशा से 'उज्जवल' थे, उज्जवल रहे।
बच्चा लोग इस पर ताली बजाओ! इतने जोर से बजाओ ताली कि पटना में बजे तो उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दे! एक बार लगे कि सिंहासन डोल रहा है!
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