कोरोना संकट में गावों ने किया साबित, वहीं हैं देश की अर्थव्यवस्था की जड़ें, बन सकते हैं मजबूत आधार
निकट भविष्य में आर्थिक हालत सुधारने की दृष्टि से ही नहीं यदि दीर्घकालीन दृष्टि से भी देखें तो अर्थव्यवस्था को टिकाऊ तौर पर मजबूती देने की भूमिका हमारे गांव और ग्रामीण निभा सकते हैं।हमारी अर्थव्यवस्था में बहुत सी समस्याएं गांव और कृषि पर संतुलित ध्यान न देने के कारण हैं।
हाल के समय अर्थव्यवस्था में बहुत कठिनाइयों का समय रहा। अनेक उद्योग बंद हो गए तो अनेक में अस्थाई तौर पर काम रुका रहा। यातायात, पर्यटन, निर्यात आदि में गिरावट रही। इन विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ती समस्याओं के बावजूद यदि अर्थव्यवस्था को किसी ने काफी हद तक संभाला तो किसानों ने संभाला। किसानों और खेत-मजदूरों के तमाम मुश्किलों के बीच काम जारी रखने से, विभिन्न समस्याओं पर विजय पाते हुए रबी की फसल कटाई हुई और अब खरीफ की बुवाई की तैयारी भी चल रही है। अतः किसानों, बटाईदारों और खेत-मजदूरों पर विशेष ध्यान देते हुए उनकी समस्याओं को कम करने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
निकट भविष्य में आर्थिक स्थिति सुधारने की दृष्टि से ही नहीं यदि दीर्घकालीन दृष्टि से भी देखें तो अर्थव्यवस्था को टिकाऊ तौर पर मजबूती देने की भूमिका हमारे गांव और गांववासी निभा सकते हैं। सच कहा जाए तो हमारी अर्थव्यवस्था में बहुत सी समस्याएं गांव और कृषि पर संतुलित ध्यान न देने के कारण ही उत्पन्न हुई हैं।
विश्व स्तर पर एक बड़ी मिथक फैलाई गई है और वह यह है कि आर्थिक विकास के दौर में गांव वासियों और किसानों की संख्या कम होती जाएगी और शहरीकरण बढ़ता जाएगा। हमारे देश की आर्थिक नीतियां भी इस मिथक की गिरफ्त में रही हैं और अधिकांश नीति-निर्धारक इस मिथक को स्वीकार करते रहे हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण वजह है कि ग्रामीण विकास को गौण महत्त्व मिला और उसकी अधिक व्यापक संभावनाओं पर ध्यान नहीं दिया जा सका।
ऐसा क्यों अनिवार्य मान लिया गया कि गांव के व्यक्ति का शहर जाना विकास का पर्याय है? ऐसा क्यों नहीं हो सकता है कि गांव में ही रोजगार के इतने विविधता भरे अवसर उपलब्ध हो जाएं कि किसान और अन्य ग्रामीण परिवारों को गांव में रहते हुए ही सहज आजीविका उपलब्ध हो? इसका अर्थ नहीं है कि ग्रामीण लोग शहर न जाएं। जब उनकी इच्छा हो अवश्य जाएं, पर यह उनकी मजबूरी न बने कि शहर में शोषण हो तो भी हर हाल में सहन करना ही है।
इस समय गांवों में आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत कृषि है। कृषि को सबसे महत्त्वपूर्ण और टिकाऊ आजीविका के रूप में बने रहना चाहिए। इसके लिए मिट्टी की गुणवत्ता बनी रहे, जल संरक्षण के कार्य हों, वनों और वृक्षों की रक्षा हो, हरियाली बनी रहे यह बहुत जरूरी है। ऐसी स्थितियों में रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि पर खर्च किए बिना, आर्गेनिक खेती की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
आर्गेनिक खेती और बागवानी से बेहतर स्वास्थ्य वाले जो खाद्य प्राप्त होते हैं, उनका महत्त्व बढ़ती संख्या में उपभोक्ता समझ रहे हैं और उचित प्रचार-प्रसार से वे इसके लिए बेहतर कीमत देने को तैयार होंगे। विविधता भरी अनेक फसलों का उत्पादन होना चाहिए और बागवानी, सब्जी, फल-फूल, औषधीय पौधों, किचन गार्डन पर भी समुचित ध्यान देना चाहिए। इसी तरह अधिक मशीनीकरण पर खर्च कम कर ग्रामीण श्रम शक्ति का बेहतर उपयोग किया जा सकता है। स्थितियों के अनुसार सौर, पवन और जल-ऊर्जा का बेहतर उपयोग हो सकता है। डीजल का खर्च कम किया जा सकता है।
दूसरी ओर, बीजों की स्थानीय परंपरागत किस्मों के सुधरे रूप से, बेहतर कंपोस्ट खाद से, जल संरक्षण, लघु सिंचाई से, नई वैज्ञानिक जानकारियों और परांपरागत ज्ञान के मिलन से उत्पादकता को टिकाऊ तौर पर बढ़ाया जा सकता है। किसान का खर्च न्यूनतम हो और उत्पादकता उचित मिले, उसे आर्गेनिक उपज की बेहतर कीमत मिले यह विकास की राह होनी चाहिए।
आज किसान को तरह-तरह के कर्ज लेने को कहा जाता है, जब कि विकास इस तरह का होना चाहिए कि किसान को कर्ज लेने की जरूरत ही न पड़े। थोड़ी-बहुत जरूरत पड़े तो स्थानीय स्वयं सहायता समूह इसकी व्यवस्था परस्पर मिल कर कर लें। न कर्ज होगा, न कर्ज का तनाव होगा तो किसान सबसे सुखी रहेगा।
छोटी दाल-मिल, चावल मिल, कोल्हू, गुड़ और घी बनाने के यूनिट गांव वासियों, किसान परिवारों से जुड़े हुए गांव और कस्बे में ही होने चाहिए। दैनिक जरूरतें पूरा करने वाले अनेक कुटीर, छोटे उद्योग गांव और कस्बे में होने चाहिए। पशुपालन और दूध की बिक्री के साथ घी, पनीर आदि डेयरी उत्पाद बनाने के छोटे यूनिट गांव और कस्बे में होने चाहिए। बिस्कुट, पापड़, चिप्स, वड़ी आदि बनाने की इकाईयां गांव और कस्बे में लगाए जाने चाहिए ताकि फसलों का बेहतर उपयोग अधिक आय प्राप्त करने के लिए गांववासी कर सकें।
विविध दैनिक जरूरतें पूरी करने के कुटीर लघु उद्योग गांव या कस्बे स्तर पर होने चाहिए। इंटरनेट, सूचना तकनीक, टेलीफोन, रेडियो, पत्रकारिता आदि से जुड़े रोजगार गांव और कस्बे स्तर पर भी उपलब्ध होने चाहिए। गांव और कस्बे के स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, आंगनवाड़ी में रोजगार यथासंभव निकट के गांववासियों को मिलने चाहिए।
शराब, सब तरह के नशे, जुए, दहेज, रिश्वत, आपसी झगड़ों और मुकदमेबाजी के विरुद्ध निरंतरता से प्रयास होने चाहिए ताकि गांव की मेहनत की कमाई व्यर्थ न गंवाई जाए और स्वास्थ्य की रक्षा भी हो। एकता होनी चाहिए, मजहब और जातिगत भेदभाव समाप्त करने चाहिए। इस एकता का उपयोग गांव की स्वच्छता, हरियाली, परंपरागत बीजों की रक्षा, लोक कलाओं के प्रोत्साहन के लिए करना चाहिए। लड़कियों और महिलाओं को आगे आने के भरपूर अवसर मिलने चाहिए।
इस तरह गांव की मजबूती के कार्य केवल आर्थिक स्तर तक सीमित नहीं हो सकते हैं और इसके लिए सामाजिक प्रयास भी जरूरी हैं। इस तरह के मिले-जुले प्रयासों से गांवों को बहुत मजबूती मिलेगी और गांव भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बहुत मजबूत और टिकाऊ आधार बन सकेंगे।
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