सवर्ण आरक्षण : कार्यकाल की आखिरी घड़ियों में मोदी सरकार ने संवैधानिक क्रांति के पलीते को आग लगाई

आरक्षण या गोशाला निर्माण या महिलाओं को साडियां बांट कर कोई सरकार चुनावी गंगा में कितनी ही डुबकियां लगा कर कितने ही चंद्रायण अनुष्ठान क्यों न करवा ले, नीयत साफ न हुई तो इन प्रतीकात्मक कदमों से सामाजिक या आर्थिक न्याय बहाल नहीं होगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

ऐन आम चुनाव से पहले इस हैरतअंगेज घोषणा पर, कि अब तक आरक्षण से वंचित देश का हर गरीब (यानी सालाना 8 लाख रुपये से कम कमानेवाला, 5 एकड़ से कम कृषि लायक जमीनवाला, एक हजार वर्ग फीट या उससे कम के फ्लैटवाला, अधिसूचित शहरी इलाके में 109 गज तक के प्लॉटवाला, और गैर अधिसूचित शहरी इलाके में 209 गज या उससे कम का प्लॉटवाला) भी 10 प्रतिशत आरक्षण का हकदार होगा, केंद्र सरकार की काबीना ने ठप्पा लगा (संविधान में जरूरी संशोधन के लिए) संसद को दे दिया। इसे संसद ने पास भी कर दिया। इस तरह आरक्षण का आधार जाति की बजाय गरीबी रेखा को बना देने या उसका दायरा 50 प्रतिशत से बड़ा करने के जो प्रस्ताव उच्चतम अदालत लगातार आधा दर्जन बार खारिज कर चुकी थी, वे बायपास हो गए। और देश की हर सड़क-चैराहे पर आरक्षण के नए आधार और हकदारों की बाबत बहस को मोदी सरकार ने हरी झंडी दिखा दी।

जब तक मुद्दा सलाह-सुझाव का था, लोगों की सहानुभूति गरीब सवर्णों के साथ थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की मसले पर अडिगता देखते हुए ऐसा कोई शक नहीं था, कि अपने कार्यकाल की आखिरी घड़ियों में मोदी सरकार एक संवैधानिक क्रांति के पलीते के छोर को सुलगा जाएगी। दरअसल दिसंबर तक सरकार कई विधानसभा चुनावों में मिली जीत से फूली हुई थी। उसके सदस्य बार-बार सुखभरा अचरज जाहिर करते थे कि गरीबी कम करने, नई तरह की नौकरियां और हुनरमंदी सृजित करने का उनके नेतृत्व का कौशल कितनी सहजता से कांटों को फूलों में बदल रहा था। लेकिन जब पांच विधानसभा के नतीजे आए और उनमें से कोई भी सरकार की झोली में नहीं गया, तो मुस्कानें गायब हो गईं। जवाब तलबी होने लगी, राज्यों के प्रभारी डांटे, बदले जाने लगे। और पार्टी के तलघर से राममंदिर, कुंभ और सवर्ण आरक्षण के झुनझुने निकाल लिए गए। मुसीबतों का प्याला छलक ही रहा था कि राफेल प्रकरण का जिन्न भी हवा में मंडराने को छोड़ दिया गया।

बिल के संसद से पारित हो जाने के बाद भी जिन आंखों ने अभी अपना अनुपात बोध खोया नहीं है, वे देख सकते हैं कि सवर्ण गरीबों के लिए आरक्षण आसानी से लागू नहीं होगा। इसे लाने वाले दल को अभी जनता के बीच चुनाव प्रसार करते हुए कुछ पुन्याई भले मिल जाए, आरक्षण का आधार गरीबी बनाने की दौड़ लंबी और जटिल है। जब वह शुरू होगी, सवर्णों के नाना वर्गों के बीच ही नहीं, पिछड़ी जाति में दर्ज होने को उत्सुक जाट और मराठाओं के बीच भी एक एक स्लॉट में लाखों के बीच अपनी तुलनात्मक मेरिट साबित कर सरकारी नौकरी और विश्वविद्यालयीन में दाखिले पाने के कई नए ज्वालामुखी विस्फोटों के रास्ते खुल जाएंगे। वजह यह, कि खुद नौकरियों में आरक्षण का झुनझुना दिखा रही सरकार के अपने आंकड़ों के हिसाब से गत एक साल में 1 करोड़ 90 लाख नौकरियां कम हुई हैं। छोटे और मंझोले उपक्रम बैठ रहे हैं और आबादी के दबाव तले सरकारी विश्वविद्यालयों के कट ऑफ अविश्वसनीय आंकड़े छूने लगे हैं। लो कल्लोबात!

नरेशाकांक्षी सरकार को जो गदगद लोकप्रियता शुरू के तीन सालों में मिली, वह शायद ही किसी अन्य को मिली हो। लेकिन धर्म को अपनी शक्ति का उत्स मानने और हर कीमत पर औद्योगिक विकास को शिवलिंग की तरह पूजने वाले का गुण ही कई बार उसका अवगुण बन जाता है। आप कह सकते हैं, यह सब जुमले थे। अभिनय था। जी था। अभिनय कुशल हुए बिना कोई लीडर नहीं बनता। लेकिन जनता यह चाहती है कि देश की कमाई फरेब से हो या कि पसीने से, राजा जब झपकी ले या माइक के परे कुछ बुदबुदाए, तो भी उसका और मंच के हर पात्र का अभिनय तर्कसंगत दिखे। अगर गणतंत्र में सारा नाटक राजा को किसी भी अपवाद किसी भी लांछन से बचाने के लिए ही मंचित होने लगे, तो उसका हर नया डायलॉग और घटनाक्रम छवि को कुछ और दीन-मलिन बना कर दर्शकों के हूट करने का खतरा उपजाता है। जब सामंत काल था, नाटक सिर्फ दरबारी देखते थे, तब आर्थिक सामाजिक गैरबराबरी को, जातीय भेदभाव छुआछूत को आधार बना कर चातुर्वण्य समाज का नाटक हजारों साल भले चला हो, गणराज्य में वह सफलतापूर्वक खुला खेल फर्रुखाबादी बना कर नहीं खेला जा सकता। यदि कोई पार्टी यकीन नहीं, वोट की खातिर आरक्षण का मौजूदा स्वरूप बदले बिना उसका दायरा फैलाने का नाटक करे, वह फिजां में बिच्छू छोड़ देती है। दर्शकों को आज लग रहा है कि इस नए आरक्षण नाटक में मोदी सरकार ठीक वी पी सिंह सरकार की तरह ही अभिनय कर रही है। मंडल का ब्रह्मास्त्र छोड़ने से पहले वी पी सिंह ने भी ऐसा बरताव किया था कि वे सारी लोकदल धाराओं के प्रतिनिधि हैं और जनता की राय सिर्फ उनको किसी गुप्त जनमत से उपलब्ध है और जनता ने हूट कर दिया। नाटक खुलने पर इस बार भी टमाटर-अंडे पड़ सकते हैं।

यह हमको ईमानदारी से मानना पड़ेगा कि मंडल ही नहीं, ऐतिहासिक अन्याय के मुआवजे की बतौर 70 बरस बाद लाभार्थियों को एससी,एसटी आरक्षण भी नाकाफी लगते हैं। यह इसलिए कि हमारी राजनीति में, हमारे शिक्षा जगत में, हमारे कॉर्पोरेट क्षेत्र में हर जगह आरक्षण के प्रायश्चित के बावजूद, हर तरह का भेदभाव और पक्षपात आधार की गुप्त शिला साबित हो रहा है। आरक्षण या गोशाला निर्माण या महिलाओं को साडियां बांट कर कोई सरकार चुनावी गंगा में कितनी ही डुबकियां लगा कर कितने ही चंद्रायण अनु्ष्ठान क्यों न करवा ले, नीयत साफ न हुई तो इन प्रतीकात्मक कदमों से सामाजिक या आर्थिक न्याय बहाल नहीं होगा। यही वजह है कि असम से महाराष्ट्र और गोआ तक सरकार का समर्थन करने वाली छोटी-छोटी पार्टियां भी आज उग्रतम मुखौटे लगाए उसे ललकार रही हैं। और हर खेमे के भभूतधारी सिद्ध साधक कह रहे हैं कि इस बार वे अपने त्रिशूल-तलवार-खंजर लहराते अकेले ही चुनावी राजनीति के ओलंपिक में उतरने वाले हैं।

इस सबके बाद दारुण सवाल यह है कि इन चुनावों के बाद जो देश बीजेपी या किसी भी गठजोड़ को मिलेगा, वह कितना लोकतांत्रिक, कितना शासनेय होगा?

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