आकार पटेल का लेख: यूं ही नहीं मजबूर किया गया यूपी में दुकानदारों को नाम जाहिर करने के लिए
किस तरह यह मुद्दा इतना बड़ा बना दिया गया जिसमें एक दिन पहले तक की वह खबर दबकर रह गई जिसमें कहा जा रहा था कि लोकसभा चुनावों में हार के चलते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुसीबत में फंस गए हैं।
वैचारिक राजनीतिक दलों के कमजोर नेताओं को हमेशा अपनी ही पार्टी के चरमपंथी नेताओं से खतरा बना रहता है। उत्तर प्रदेश में इन दिनों जो कुछ चल रहा है, उसे समझने के लिए इस बात पर विचार करना उचित होगा। साथ ही इससे यह भी पता चल सकता है कि आने वाले दिनों में अल्पमत सरकार से क्या अपेक्षा की जा सकती है।
केंद्र में बीजेपी के सहयोगी दलों ने एकसुर में उत्तर प्रदेश में दुकानदारों को अपना नाम (और इस तरह से धर्म) प्रदर्शित करने के आदेश का विरोध किया है। आखिर क्यों? ऐसी कोई मांग की गई थी, यह तो साफ नहीं है और न ही अतीत में कोई ऐसी मिसाल मिलती है। दुकानदारों से इस आदेश का पालन करने का कोई ठोस कारण भी नहीं है। लेकिन जिस तरह से यह सब किया गया, पहले तो बिना किसी आधिकारिक आदेश के और फिर यह दिखावा किया गया कि यह स्वैच्छिक है, उससे यह धारणा और मजबूत होती है कि यह कार्रवाई केवल माहौल बिगाड़ने के लिए की गई थी।
ध्यान दीजिए कि किस तरह यह मुद्दा इतना बड़ा बना दिया गया जिसमें एक दिन पहले तक की वह खबर दबकर रह गई जिसमें कहा जा रहा था कि लोकसभा चुनावों में हार के चलते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुसीबत में फंस गए हैं। सारे न्यूज चैनलों पर यही चर्चा और सुर्खियां थीं जिनमें कयास लगाए जा रहे थे कि अब क्या होगा। लेकिन अब वह खबर कहीं गायब हो गई सी लगती है और मुख्यमंत्री ने सिर्फ इस एक कदम से पूरा नैरेटिव ही बदल दिया।
इतना ही नहीं कुछ केंद्रीय मंत्री भी इस कदम के बचाव में उतर आए हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि वे इससे सहमत हैं, बल्कि सिर्फ इसलिए कि इससे केंद्र सरकार का कोई हित सार्थक नहीं होता है।
तो फिर अपने सहयोगियों को ऐसा मौका क्यों दिया गया जिससे एनडीए में ही असहमति की आवाज गूंजने लगी। इससे उन स्थितियों में तो कोई फर्क नहीं पड़ा जिसमें यह भ्रम देने की कोशिश की जा रही थी कि 4 जून के बाद कुछ नहीं बदला है। लेकिन सब समझते हैं और यह समझते हैं कि आखिर यह सब उत्तर प्रदेश में क्यों किया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में हुई कार्रवाई का खुलकर विरोध तो नहीं हो सकता है (यह मानते हुए कि अंदरखाने कोई न कोई तो इससे असहमत होगा ही) और विचारधारा वाली पार्टियों की यही दिक्कत होती है। यूपी के मुख्यमंत्री तो उसी राह पर हैं जिसे बीजेपी ने अपना रखा है। और अल्पसंख्यों के खिलाफ कार्रवाई का तो उसका इतिहास रहा है क्योंकि यही तो उसकी विचारधारा है।
अलबत्ता पिछले साल या 6 महीने पहले ऐसा ही फैसला लिया जाता या कदम उठाया जाता तो स्थितियां अलग होतीं। लेकिन अब समय बदल चुकी है। इस किस्म की स्थितियां की झलक हमने पहले भी देखी है।
किसी कमजोर नेता के मुकाबले कहीं अधिक उग्र नेता को सबसे पहले कोई 20 साल पहले देखा गया था। बात अप्रैल 2002 की है, जब गुजरात के गोधरा में हुई हिंसा को एक महीना ही हुआ था। एक अनुमान के मुताबिक इस हिंसा में 1000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की गोवा में बैठक हुई थी। मीडिया में इस बात की जबरदस्त चर्चा थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी गुजरात के तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से इस्तीफा मांग लेंगे। 29 अप्रैल 2002 को एक पत्रिका ने इस शीर्ष से पूरी कहानी बताई कि ‘कैसे वाजपेयी हिंदुत्व के सुर में सुर मिलाने को तैयार हो गए’। इसमें पूरी कहानी विस्तार से बताई गई।
उस समय बीजेपी के अध्यक्ष जना कृष्णमूर्ति ने जैसे ही अपना अध्यक्षीय भाषण पूरा किया, मोदी उठ खड़े हुए और अपनी गंभीर, शुद्ध हिंदी में कहा, "अध्यक्ष जी, मैं गुजरात पर बोलना चाहता हूं...पार्टी के दृष्टिकोण से, यह एक गंभीर मुद्दा है। इस पर स्वतंत्र और स्पष्ट चर्चा की आवश्यकता है। इसके लिए, मैं इस सभा के समक्ष अपना इस्तीफा प्रस्तुत करना चाहता हूं। अब समय आ गया है कि हम तय करें कि पार्टी और देश को इस बिंदु से आगे क्या दिशा लेनी चाहिए।"
उन्हें इससे ज्यादा बोलने की जरूरत नही थी। एक ही झटके में गुजरात के मुख्यमंत्री ने बाजी मार ली थी। उन्होंने अपने उन समर्थकों को उद्धेलित कर हौसला दे दिया था, जो अब खड़े होकर अपनी बात कह रहे हैं। मोदी और विश्व हिंदू परिषद की उग्र गतिविधियों और अतिवाद के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले खाद्य मंत्री शांता कुमार को फटकार सुनना पड़ा और उन्हें अनुशासन समिति का सामना करना पड़ा। उन्हें माफ़ी मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा।
भले ही प्रधानमंत्री वाजपेयी ने मोदी के इस्तीफे को अपनी व्यक्तिगत छवि और गठबंधन की एकता के लिए समझदारी भरा कदम समझा हो, लेकिन मोदी के पक्ष में बनी भावना की उग्रता के खिलाफ़ वे बिल्कुल भी नहीं जा सकते थे। उन्होंने इस मुद्दे को एक दिन के लिए टालने की कोशिश की, लेकिन इसका भी विरोध किया गया।
मोदी का मुकाबला करने में वाजपेयी की मजबूरी का अनुमान लगाया जा सकता था। विचारधारा में तैयार हुए कैडर की भी नर्मी या संयम में कोई दिलचस्पी नहीं थी। जैसाकि शुरु में लिखा गया है कि चरमपंथी दलों के नेता अपने से तेज करिश्माई ऐसे व्यक्तियों के सामने कमजोर होते हैं, जो मजबूती से आगे बढ़ने और अधिक जोखिम उठाने के लिए तैयार और उत्सुक होते हैं। ये व्यक्ति जो कैडर के उत्साह को बेहतर ढंग से व्यक्त करने में सक्षम होते हैं।
मोदी देशव्यापी और एक तरह से विश्व स्तर पर अपनी कठोरता और प्रसिद्धि स्थापित करने में इसलिए कामयाब रहे क्योंकि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने गुजरात में किसी बदलाव को खारिज कर दिया, या कहें कि ऐसा नहीं करने पर मजबूर हो गया।
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद से बैकफुट पर आया या कहें कि क्षमाप्रार्थी हिंदुत्व का दौर खत्म होने वाला था। बीजेपी कैडर और संघ के पास अब एक असली नायक था जो वैसा ही बोलता, महसूस करता और करता था जैसा वे अपने नेताओं से चाहते थे।
लेकिन 4 जून 2024 को जो कुछ हुआ उसने इस नायक की चमक फीकी कर दी है। अगर प्रधानमंत्री को अपनी सरकार सुचारू रूप से चलानी है, तो उन्हें ऐसे मुद्दों को दरकिनार करना होगा जो अनावश्यक रूप से सहयोगी दलों को असहज करते हों, उत्तर प्रदेश का मुद्दा ऐसा ही है। याद रखें कि सहयोगी दल हमेशा ऐसे मुद्दों की तलाश में रहते हैं जिनके जरिए दबाव बनाकर वे अपने हित साध सकते हैं।
240 सीटों वाले प्रधानमंत्री अपनी कट्टरपंथी नायक की छवि को नरम करने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए उन्हें दूसरों के लिए जगह बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। यही सब अब हो रहा है – और बीजेपी के अंदर भी यही होता रहेगा।
पार्टी में जिन लोगों को खुद पर खतरा महसूस होता है या अपनी स्थिति या पद खो जाने की आशंका है, या उन्हें लगता है कि उन्हें किसी तरह दूसरों पर अपना दबदबा बनाने की ज़रूरत है, वे इसी फ़ॉर्मूले का इस्तेमाल करने पर विचार करेंगे। दरअसल कई लोग तो इसी इस्तेमाल भी करेंगे। बात वही है कि यह एक ऐसी समस्या है जो वैचारिक पार्टियों में अंतर्निहित है।
ऐसे में मोदी का तीसरा कार्यकाल पिछले दो कार्यकालों से अलग होगा, और काफी दिलचस्प भी, जिसे टिप्पणीकार उत्सुकता से देखेंगे।
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