धीरे-धीरे धंसते जोशीमठ में दो तिहाई इमारतों में रहना खतरनाक: जानते-बूझते आपदा को निमंत्रण

सरकार ने उन नौ तकनीकी रिपोर्टों को नजरअंदाज कर दिया और सोती रही जिनमें चेतावनी दी गई थी कि जोशीमठ एक साल में 3-4 फुट तक धंस गया है। नई रिपोर्ट्स से सामने आया है कि जोशीमठ में करीब दो तिहाई इमारतों में रहना खतरनाक साबित हो सकता है।

फोटो महादीप पंवार के फेसबुक वॉल से साभार
फोटो महादीप पंवार के फेसबुक वॉल से साभार
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रश्मि सहगल

संकटग्रस्त जोशीमठ पर देश के अग्रणी वैज्ञानिक संस्थानों द्वारा तैयार नौ तकनीकी रिपोर्टों को सरकार ने दबाए रखा। इनमें से कुछ को दो साल से तो कुछ को आठ महीनों से धूल खाने दिया गया।

आखिरकार नैनीताल हाईकोर्ट को आदेश देना पड़ा जिसमें अदालत ने राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को जनहित से जुड़ी इन सभी रिपोर्ट को सार्वजनिक डोमेन में रखने के लिए बाध्य कर दिया। यह और बात है कि इनमें से किसी भी रिपोर्ट ने कोई चौंकाने वाली नई जानकारी नहीं दी।

काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के अनुसंधान प्रयोगशाला हैदराबाद स्थित नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने बताया कि जोशीमठ शहर के कुछ हिस्से पिछले एक साल के दौरान 3-6 फुट तक धंस गए हैं और चेतावनी दी कि जमीन के नीचे ‘बड़ी संख्या में हवा से भरी दरारें बन गई हैं जिनमें से कई की गहराई तो सौ फुट से भी ज्यादा है।’ रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि बंजर और कृषि भूमि पर तो इन दरारों की गहराई 115 फुट तक है और शहर के निचले इलाकों में 60-65 फुट पर उथली और स्पर्शरेखा बन गईं।’

सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीबीआरआई) की ‘जोशीमठ में इमारतों की सुरक्षा आकलन’ पर रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि घरों में दरारें आने का मुख्य कारण बढ़ते यातायात प्रवाह के कारण ‘जमीन में होने वाला अत्यधिक कंपन’ है। सीबीआरआई ने 2,364 इमारतों का अध्ययन किया जिनमें से केवल 37 प्रतिशत इमारतें ही उपयोग के काबिल पाई गईं।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने इन नतीजों पर 150 पन्नों का सारांश तैयार किया जिसे केन्द्र सरकार को सौंपा गया है। इसमें कहा गया है कि जोशीमठ हर साल 12 सेंटीमीटर की दर से धंस रहा है। बेलगाम निर्माण और शहर में सीवेज उपचार की कमी के कारण स्थिति और भी गंभीर हो गई है। एनडीएमए ने कई प्रमुख सिफारिशें की हैं जिनमें सभी निर्माण पर पूर्ण प्रतिबंध और शहर में उचित सीवेज उपचार संयंत्र स्थापित करने की तत्काल जरूरत भी शामिल है।

लेकिन इस आकलन में कुछ भी नया नहीं है। पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ. रवि चोपड़ा सवाल करते हैं, ‘उन्होंने (वैज्ञानिक संस्थानों ने) कौन सा नया शोध किया है? वे समस्या का कोई भी नया स्रोत स्थापित करने में विफल रहे हैं, सिवाय यह बताने के कि स्प्रिंग लाइन पर बने घरों में दरारें होने के कारण पानी रिस रहा है।’


लेकिन चोपड़ा ने यह भी जोड़ा कि उनकी टिप्पणियां समाचारपत्रों की रिपोर्टों पर आधारित हैं और उन्हें इन नतीजों का अच्छी तरह अध्ययन करने के लिए और समय चाहिए। भूविज्ञानी डॉ. एस.ए. सती ने कहा, ‘यह नई बोतल में पुरानी शराब है। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है जो हम पिछले पांच साल से नहीं कह रहे हैं।’

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, रूड़की और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्टों के दो संकेतक बेहद अशुभ हैं क्योंकि ये दोनों नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन को क्लीन चिट देते हैं जो विष्णुगढ़ तपोवन जलविद्युत परियोजना के हिस्से के रूप में एक भूमिगत सुरंग का निर्माण कर रहा है।

वैज्ञानिकों और आम लोगों द्वारा इसे समस्या का मूल कारण माना जाता है। एनटीपीसी के इंजीनियरों ने इस पनबिजली परियोजना के बारे में यह नहीं बताया था कि इसमें सतह से 900 मीटर नीचे लगभग 15 किलोमीटर लंबी सुरंग का निर्माण और डिसिल्टिंग चैंबर, पावर हाउस और 31 लाख क्यूबिक मीटर से अधिक गंदगी की डंपिंग वाला 22 मीटर ऊंचा बांध भी बनाया जाना है।

इस सुरंग का एक हिस्सा बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खोदा जा रहा था जो खुदाई करने के लिए टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) का उपयोग कर रहे थे। अतीत में, दुर्भाग्य से, टीबीएम एक बार 9 दिसंबर, 2009 को अटक गई थी और फिर फरवरी और सितंबर, 2012 में और उसके बाद अगले सात सालों तक अटकी ही रही जिसके बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस परियोजना से अपने हाथ खींच लिए।

यह हादसा जोशीमठ से पांच किलोमीटर पहले स्थित सेलंग गांव के पास हुआ था। पहली दुर्घटना के दौरान टीबीएम ने फॉल्ट जोन में स्थित एक जलीय चट्टानी परत में छेद कर दिया जिससे भारी दबाव के साथ पानी निकलने लगा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि प्रति सेकंड लगभग 700 लीटर पानी निकल रहा था जो 20-30 लाख लोगों की प्रति दिन की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त था। दुर्घटना के बाद जोशीमठ और आसपास के अन्य गांवों में झरने सूखने लगे और तब से पानी की कमी एक आम बात हो गई है।


स्थानीय लोगों का कहना है कि जलस्रोत टूटने के बाद से ही धंसाव की समस्या शुरू हुई है। इन तीन दुर्घटनाओं का गहन विश्लेषण तीन अंतरराष्ट्रीय स्तर के वैज्ञानिकों- बर्नार्ड मिलर, जियोर्जियो हॉफर-ओलिंगर और जोहान ब्रांट द्वारा किया गया था। उन्होंने इंजीनियरिंग जियोलॉजी फॉर सोसाइटी एंड टेरिटरी में अपने नतीजे प्रकाशित किए जिसमें उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कैसे इस अवैज्ञानिक ड्रिलिंग ने चट्टानों में नई दरारें पैदा कीं जिससे सतह के नीचे का पानी तेज दबाव के साथ बाहर आ गया। 

कई भू-वैज्ञानिकों समेत भारतीय वैज्ञानिकों ने भी जोशीमठ शहर पर इसके प्रभाव को लेकर सवाल उठाए हैं जिसका एनटीपीसी ने कोई जवाब नहीं दिया है। एनटीपीसी ने शुरू से ही कहा था कि चूंकि सुरंग जोशीमठ से कुछ दूरी पर है, इसलिए इस हादसे के लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन वैज्ञानिक तथ्यों के सामने  एनटीपीसी का यह दावा भरभराकर गिर जाता है। डॉ. रवि चोपड़ा के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने दावे का खंडन किया और बताया कि ‘अगर सुरंग को क्षैतिज रूप से देखा जाए तो यह जोशीमठ से मात्र 1.1 किलोमीटर की दूरी पर है।’

इसलिए यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, रूड़की और जीएसआई- दोनों ने एनटीपीसी को क्लीन चिट दे दी है, खासकर इसलिए क्योंकि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी ने कहा था कि जोशीमठ के धंसने और शहर के पश्चिमी भाग में अनेक झरनों के रूप में भूमिगत जल के बाहर निकलने के बीच सीधा संबंध है।

‘जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति’ का नेतृत्व कर रहे अतुल सती ने भी एनटीपीसी को क्लीन चिट दिए जाने पर चिंता जाहिर की। समस्या की जड़ एनटीपीसी की विष्णुगढ़ तपोवन जलविद्युत परियोजना का निर्माण है। जब इसे शुरू किया गया था, तो जीएसआई ने 2005 में ही इसकी प्रभावशीलता पर सवाल उठाया था।

इसके महत्वपूर्ण निष्कर्षों का जिक्र डॉ. एपीएस बिष्ट सहित दो वैज्ञानिकों द्वारा 2010 में तैयार की गई एक रिपोर्ट में किया गया था। लेकिन ऐसा लगता है कि जीएसआई के महत्वपूर्ण नतीजे सार्वजनिक डोमेन और आधिकारिक रिकॉर्ड से गायब हो गए हैं। सती ने यह भी सवाल उठाया कि इन नौ तकनीकी संस्थानों के वैज्ञानिकों को अपने नतीजों को सार्वजनिक करने की इजाजत क्यों नहीं दी गई, जो लगभग आठ महीने पहले तैयार हो गए थे।


इस पूरी बहस को और भी चिंताजनक आयाम देने वाली बात यह है कि वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी ने चेतावनी दी है कि जोशीमठ में दरारें और बढ़ सकती हैं क्योंकि यह उच्च भूकंपीय क्षेत्र में आता है। वाडिया इंस्टीट्यूट ने पाया कि 13 जनवरी से 12 अप्रैल, 2023 के बीच, उनके भूकंपीय नेटवर्क ने जोशीमठ के 50 किलोमीटर के दायरे के भीतर अधिकतम 1.5 तीव्रता के 16 सूक्ष्म भूकंप दर्ज किए।

वाडिया इंस्टीट्यूट ने कहा कि ‘वर्तमान और अतीत की भूकंपीय गतिविधियों में दक्षिण और दक्षिण पश्चिम में बढ़ती भूकंपीयता की एक जैसी प्रवृत्ति है जो मुख्य रूप से चमोली भूकंप के केन्द्र के आसपास केन्द्रित है।’ गौरतलब है कि 1999 में चमोली में विनाशकारी भूकंप आया था जिसमें 103 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी और हजारों घर तबाह हो गए थे।

इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से एक उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के प्रमुख डॉ. रंजीत कुमार सिन्हा ने बताया कि वे इन रिपोर्टों के आधार पर ‘पोस्ट डिजास्टर नीड्स असेसमेंट’ शीर्षक से एक डीपीआर तैयार कर रहे हैं। इस डीपीआर को अमल में लाने के लिए 1800 करोड़ रुपये की जरूरत होगी जिसके लिए केन्द्र सरकार 1465 करोड़ रुपये देने पर राजी  हो गई है। इस पैसे का इस्तेमाल जोशीमठ में लोगों के पुनर्वास और जिन घरों को बचाया जा सकता है, उनकी मरम्मत में किया जाएगा।

अहम सवाल यह है कि सरकार इतने महीनों तक इन रिपोर्टों पर क्यों बैठी रही? राज्य के वरिष्ठ नौकरशाहों को जमीन धंसने की समस्या के बारे में लगभग दो साल से पता है। तब शहर का डीपीआर क्यों नहीं बनाया गया? इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि भूस्खलन ने जोशीमठ के आसपास के गांवों को भी प्रभावित किया है। क्या सरकार के पास इन असहाय ग्रामीणों के लिए कोई पुनर्वास योजना है या उन्हें किस्मत के भरोसे छोड़ दिया जाएगा?

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