वन अधिकार कानून के तहत आदिवासियों को नहीं मिल रहा न्याय, जल्द हो इसकी समीक्षा

हाल के समय में आदिवासियों के संदर्भ में जो मुद्दा सबसे चर्चित रहा है वह है वन अधिकार कानून। इससे एक समय बहुत उम्मीदें भी उत्पन्न हुई थीं। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि इस संदर्भ में आदिवासी समुदायों को पूरा न्याय मिले, उनकी उम्मीदें पूरी हों।

फोटो: सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

आदिवासियों से सामाजिक-आर्थिक स्तर पर न्याय मिले, इसके बारे में व्यापक मान्यता राष्ट्रीय स्तर पर है। अनेक सरकारी दस्तावेजों में इस पर बार-बार जोर दिया गया है। अनेक विद्वानों ने इसके महत्त्व को रेखांकित किया है। उन्होंने बताया है कि यह देश में निर्धनता और असंतोष दूर करने के लिए यह बहुत जरूरी है।

हाल के समय में आदिवासियों के संदर्भ में जो मुद्दा सबसे चर्चित रहा है वह है वन अधिकार कानून। इससे एक समय बहुत उम्मीदें भी उत्पन्न हुई थीं। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि इस संदर्भ में आदिवासी समुदायों को पूरा न्याय मिले, उनकी उम्मीदें पूरी हों।

वर्ष 2005 और 2008 में एक लंबी और पेचीदी प्रक्रिया के बाद अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी वन अधिकार मान्यता कानून बना और लागू होना आरंभ हुआ। इस कानून को सामान्य भाषा में वनाधिकार कानून कहा गया। इस कानून की पृष्ठभूमि यह थी कि आदिवासियों से बिना उचित विमर्श के बहुत सी भूमि को वन-भूमि घोषित कर दिया गया जिसके कारण वहां खेती कर रहे आदिवासियों-वनवासियों की खेती को अचानक अवैध घोषित कर दिया गया। तब से उन्हें यहां खेती करने से रोकने के लिए तरह-तरह से हैरान-परेशान किया गया। उनका बहुत उत्पीड़न किया गया।

वनाधिकार कानून ने इसे ‘ऐतिहासिक अन्याय’ कहते हुए इसे दूर करने के लिए एक प्रक्रिया निर्धारित की जिसके अंतर्गत ऐसी भूमि पर आदिवासी और परंपरागत वनवासी दावों के प्रमाण जमा किए जाएंगे और एक विधि सम्मत प्रक्रिया द्वारा जिन दावों को स्वीकार किया जाएगा उस भूमि पर आदिवासियों-वनवासियों का अधिकार सुनिश्चित कर दिया जाएगा।

चूंकि इस कानून का उद्देश्य ही आदिवासियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना बताया गया था, इसलिए सामान्य रूप से यही माना गया कि और जो भी पेचीदगियां हों पर आदिवासियों-वनवासियों की स्थिति को पहले से तो बहुत सुधारना ही है। इसलिए यह मान्यता व्यापक स्तर पर बनी कि इनमें से अधिकांश दावों को स्वीकृति मिल जाएगी और यह आदिवासी और वनवासी परिवार भविष्य में इस भूमि को बिना किसी झंझट के जोत लेंगे।

पर कुछ वर्ष गुजरने पर आज जो स्थिति नजर आ रही है वह उम्मीद से बहुत अलग है। पहली समस्या तो यह है कि निरस्त होने वाले दावों की संख्या बहुत अधिक है। दूसरी समस्या यह है कि जिन दावों को स्वीकार किया जा रहा है उनमें भी ऐसा नहीं है कि पूरे दावे को स्वीकार किया गया हो। ज्यादा संभावना इस बात की है कि पांच बीघे का दावा प्रस्तुत किया गया है तो 2 बीघे का ही दावा स्वीकार होगा यानी कि जो दावे स्वीकार हुए हैं उनमें भी आदिवासी परिवार द्वारा जोती जा रही जमीन पहले से कम हो रही है।

तीसरी समस्या यह है कि दावे प्रस्तुत करने की आवश्यकता और इसकी पूरी कानूनी प्रक्रिया की जानकारी बहुत से हकदार परिवारों तक पंहुच ही नहीं सकी, इसलिए वे अपना दावा इस कानूनी प्रक्रिया में प्रस्तुत ही नहीं कर सके।

जिन्हें कानून में ‘अन्य परंपरागत वनवासी’ की श्रेणी देकर उनसे भी न्याय का वायदा किया गया था, उनकी स्थिति तो सबसे विकट बताई जाती है और कुछ स्थानों पर तो उनके लगभग सभी दावों को निरस्त कर दिया गया है।

जिन लोगों के दावे निरस्त हुए, आमतौर पर उन्हें इसकी सूचना तक नहीं दी गई और सूचना के न मिलने पर जो निरस्तीकरण के विरुद्ध अपील करने की संभावना थी उसका भी वे उपयोग नहीं कर पाए।

इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए इस कानून के क्रियान्वयन पर नए सिरे से विचार करना भी जरूरी है। ऐसी स्थिति बनानी होगी जिससे आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों की स्थिति में व्यापक सुधार हो।

अब सरकार को चाहिए कि इस विषय की अच्छी जानकारी रखने वाले, आदिवासी कल्याण के कार्यों से जुड़े रहे अधिकारियों के साथ जमीनी स्तर पर कार्य कर रहे आदिवासी और अनुभवी कार्यकर्ताओं की एक समीक्षा समिति का गठन करे, जो लगभग 6 महीने में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दे और फिर 6 महीने के भीतर इस समिति की संस्तुतियों के आधार पर आदिवासी समुदायों से न्याय करते हुए सरकार शीघ्र समयबद्ध कार्यवाही करे।

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