कसौटी पर पारदर्शिता; हितों के संभावित टकराव पर नजर कौन रखेगा?

अहम सवाल यह है कि तीन दशकों से अधिक पुरानी संस्था सेबी के पास इन संभावित टकरावों को संबोधित करने के लिए मजबूत तंत्र क्यों नहीं हैं?

सेबी का कार्यालय
सेबी का कार्यालय
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सुचेता दलाल

सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) की अध्यक्ष माधबी पुरी बुच पर कांग्रेस पार्टी द्वारा लगाई गई आरोपों की झड़ी ने वित्तीय क्षेत्र में हलचल मचा दी है और इससे बाजार नियामक की ईमानदारी पर संदेह और भी गहरा गया है।

माधवी के खिलाफ लगाए गए आरोप इतने चौंकाने वाले हैं कि शुरू में बाजार के कुछ अनुभवी विशेषज्ञ भी संशय में थे कि कहीं कांग्रेस ‘डीप फेक’ का शिकार तो नहीं हो गई! शुरुआती तूफान के कुछ शांत होने के बाद धुंधलका जैसे-जैसे छंटता गया, रहस्य गहराता गया। आईसीआईसीआई बैंक की स्टॉक एक्सचेंज्स को दी गई आधिकारिक जानकारी हितों के टकराव के सवाल को उठाती है और साथ में यह भी कि निजी क्षेत्र में काम करने वाले किसी व्यक्ति को शीर्ष सरकारी पद पर नियुक्त किए जाने से जुड़े खुलासे के पैमाने कितने नाकाफी हैं।

लंबे समय से सेबी की जांच में उलझे जी समूह के संस्थापक सुभाष चंद्र गोयल ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके माधवी बुच के खिलाफ जो गंभीर आरोप लगाए, उसने भी आग में घी डालने का काम किया। लेकिन अभी सारा ध्यान कांग्रेस पर केंद्रित है क्योंकि इसने अपने मूल आरोपों के बाद आईसीआईसीआई बैंक की कर्मचारी स्टॉक विकल्प योजना (ईसॉप) नीति को लेकर सवाल उठाए हैं।


आरंभिक आरोप

कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाया है कि माधवी बुच ने वेतन, ईसॉप और कर लाभ मिलाकर आईसीआईसीआई समूह से 16.8  करोड़ रुपये (लगभग 21 लाख अमेरिकी डॉलर) की भारी-भरकम कमाई की। यह आंकड़ा सेबी प्रमुख के रूप में उनकी कमाई का पांच गुना है। बुच ने आईसीआईसीआई की ब्रोकरेज फर्म आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज के प्रमुख के तौर पर काम करने के बाद 2013 में समूह को छोड़ दिया। वैसे, आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज का आईसीआईसीआई बैंक के साथ विलय भी विवादों में घिरा हुआ है।

इस साल सितंबर के पहले सप्ताह में आईसीआईसीआई बैंक ने स्टॉक एक्सचेंजों को सूचित किया कि माधवी बुच को दी गई सारी राशि 2013 में बैंक छोड़ने के बाद मिलने वाले सेवानिवृत्ति लाभों के कारण थी। हालांकि इससे चिंताएं खत्म तो नहीं ही हुईं, उल्टा इसने हितों के टकराव और विनियामक निकायों के प्रमुखों के लिए खुलासे संबंधी पैमानों और जरूरी निगरानी न होने के बारे में नई चिंताओं को जन्म दे दिया।

3 सितंबर को कांग्रेस ने आईसीआईसीआई बैंक के बयान पर नए सवाल उठाए। इसमें कहा गया है कि आईसीआईसीआई बैंक की ईसॉप नीति अमेरिकी सिक्योरिटी एक्सचेंज आयोग (एसईसी) की वेबसाइट पर तो है लेकिन सेबी की साइट पर नहीं। एसईपी पर उपलब्ध कंपनी की ईसॉप नीति में कहा गया है कि कोई कर्मचारी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद अधिकतम तीन महीने के भीतर ईसॉप का उपयोग कर सकता है। इस लिहाज से यह आईसीआईसीआई बैंक द्वारा स्टॉक एक्सचेंजों को दिए गए खुलासे के उलट दिखता है कि कोई कर्मचारी कंपनी छोड़ने के बाद 10 साल तक ईसॉप का उपयोग करे। हालांकि इस नीति के एक अन्य क्लॉज में कहा गया है कि ईसॉप को उपयोग करने की अवधि इसे आवंटित किए जाने की तारीख से 10 साल पूरे होने के साथ ही खत्म हो जाएगी, जैसा कि ‘प्रत्येक अनुदान के मामले में रेमुनरेशन एंड नॉमिनेशन कमेटी द्वारा निर्धारित किया जाए’। यह कांग्रेस के उस आरोप की पुष्टि करता है कि माधवी बुच को ‘विशेष लाभ’ के लिए चुना गया। कांग्रेस ने यह भी सवाल उठाया है कि क्या सेवानिवृत्ति लाभ (वे इसे पेंशन/वेतन कहते हैं) किसी व्यक्ति के अंतिम वेतन से बहुत अधिक हो सकता है! चूंकि कांग्रेस ने इससे जुड़े दस्तावेज जारी नहीं किए हैं और सेबी भी इस मामले में चुप है, इसलिए यह अब भी साफ नहीं है कि कांग्रेस की प्रेस विज्ञप्ति में दिए गए आंकड़ों में ईसॉप शामिल हैं या नहीं।


खुलासे के पैमाने: पारदर्शिता का सवाल

इस मुद्दे की जड़ में विनियामक निकायों के शीर्ष अधिकारियों से जुड़े खुलासे के नियम हैं क्योंकि इन अधिकारियों की अप्रकाशित संवेदनशील जानकारी (यूपीएसआई) तक पहुंच होती है। इन अधिकारियों के आदेश और फैसले स्टॉक की कीमतों को नाटकीय रूप से प्रभावित कर सकते हैं और यही वजह है कि खुलासे और अनुपालन मानकों का सख्ती से पालन जरूरी हो जाता है। किसी सूचीबद्ध कंपनी के खिलाफ किसी नकारात्मक आदेश से उसके शेयर की कीमतों में गिरावट आ सकती है और इसकी प्रतिक्रिया में प्रतिस्पर्धियों के शेयर की कीमतों में उछाल आ सकता है। इसलिए इस स्तर के अधिकारियों के व्यक्तिगत हित और होल्डिंग्स का सार्वजनिक खुलासा जरूरी हो जाता है।

मैंने सेबी के मानव संसाधन प्रमुख को ईमेल करके पूछा कि क्या यूपीएसआई और खुलासा नियम अध्यक्ष पर लागू होते हैं? क्या अध्यक्ष ईसॉप के नकदीकरण का खुलासा हर साल करता है और क्या इसपर किसी तरह का कोई प्रतिबंध है कि सेबी अध्यक्ष और पूर्णकालिक सदस्य (डब्ल्यूटीएम) महत्वपूर्ण आदेशों और फैसलों के समय से कितना पहले-कितने बाद ईसॉप और निवेश को भुना सकते हैं? मुझे सेबी से अब तक इसका कोई जवाब नहीं मिला है।

 माधवी के सेबी ज्वाइन करने के बाद के सात सालों में विनियामक संस्था ने कॉर्पोरेट जगत के लिए खुलासे से जुड़े पैमानों को कड़ा किया है। ज्यादातर ऐसा लिस्टिंग दायित्व और खुलासा विनियमन (एलओडीआर) और इनसाइडर ट्रेडिंग नियमों के तहत किया गया। हालांकि  माधवी के अपने पिछले नियोक्ता से हुई आय/ ईसॉप के नकदीकरण के बारे में अपर्याप्त खुलासा असहज सवाल खड़े करता है। क्या किसी विनियामक संगठन का प्रमुख निजी क्षेत्र की किसी कंपनी को छोड़ने के एक दशक बाद भी ईसॉप पर अपने दावे को बरकरार रख सकता है? इससे भी अहम सवाल यह है कि तीन दशकों से अधिक पुरानी संस्था सेबी के पास इन संभावित टकरावों को संबोधित करने के लिए मजबूत तंत्र क्यों नहीं हैं?

एकदम उलट हैं वैश्विक मानक

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विनियामक प्रमुखों के लिए हितों के टकराव से जुड़े कड़े मानक हैं। अमेरिका में सार्वजनिक सेवा में तैनात सरकारी अधिकारियों के लिए आचरण के सामान्य नियम हैं कि ‘आप ऐसे वित्तीय हित नहीं रखेंगे जो जिम्मेदारियों के कर्तव्यनिष्ठ निर्वाह के मामले में आड़े आते हों’। ज्यादातर विकसित देशों में विनियामक निकायों के प्रमुखों के लिए यह जरूरी होता है कि वे क्षेत्र-विशिष्ट म्यूचुअल फंड समेत उन संस्थाओं में अपनी प्रत्यक्ष होल्डिंग्स को बेच दें जो हितों के टकराव को बढ़ावा दे सकते हैं। इसके साथ ही यह व्यवस्था है कि जिन परिसंपत्तियों को आसानी से नहीं बेचा जा सकता है, उन्हें एक ‘ब्लाइंड ट्रस्ट’ में रखा जाना चाहिए जो स्वतंत्र रूप से प्रबंधित हो।

अमेरिकी एसईसी के अध्यक्ष को पद से जुड़ी व्यापक शक्तियों और प्रभाव के मद्देनजर हितों के टकराव, निवेश और वित्तीय खुलासे के बारे में और भी सख्त नियमों का सामना करना पड़ता है। कई मामलों में पारदर्शिता सुनिश्चित करने और बाहरी पक्षों को संभावित हितों के टकराव की निगरानी करने की अनुमति देने के लिए इन वित्तीय खुलासों को सार्वजनिक कर दिया जाता है। इसका एक ठोस उदाहरण है हैंक पॉलसन जिन्होंने गोल्डमैन सैक्स की नौकरी छोड़कर अमेरिकी ट्रेजरी विभाग के मंत्री पद की जिम्मेदारी ली। उन्हें 70 करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के अपने निवेश को बेचना था, जिसमें केवल एक छूट थी कि यदि 60 दिनों के भीतर सरकारी प्रतिभूतियों या म्यूचुअल फंड में पुनर्निवेश करें तो उससे होने वाले कैपिटल गेन को वह बाद में भी ले सकते थे। इसके विपरीत भारत में नियम अस्पष्ट हैं। केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) मैनुअल जिसे अंतिम बार 2021 में संशोधित किया गया, अस्पष्ट मार्गदर्शन से ज्यादा कुछ नहीं देता। वह शेयरों और निवेशों में ‘लगातार सट्टेबाजी’ के खिलाफ आगाह करता रहता है।

 यह यकीन करना मुश्किल है कि सेबी के पास शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए कोई नियम ही नहीं है या सेबी अध्यक्ष को अपने सात साल के कार्यकाल के दौरान यह एहसास ही नहीं हुआ कि सेबी प्रमुख के रूप में उनकी अत्यधिक संवेदनशील भूमिका के मद्देनजर वेतन/ईसॉप के नकदीकरण का खुलासा जरूरी था।


हितों के टकराव के नियम बनाना कितना मुश्किल

मोटे तौर पर यह मामला है सेबी के भीतर हितों के टकराव के लिए नियमों की कमी का। 1990 के दशक से ही वरिष्ठ सेबी अधिकारियों द्वारा व्यापार और निवेश से जुड़े विवादों को देखते हुए कहा जा सकता है कि शायद जानबूझकर इस कमी को छोड़ा गया। शेयरों में लेन-देन पर सेबी के नियमों के मुताबिक इसके अधिकारियों को पदभार ग्रहण करने के 15 दिनों के भीतर अपनी और अपने परिवार के बारे में शेयरधारिता का खुलासा करना होता है और यह खुलासा हर वित्तीय वर्ष के अंत में भी करना होता है। महत्वपूर्ण लेन-देन का भी खुलासा 15 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए और पूर्णकालिक सदस्यों को अप्रकाशित संवेदनशील जानकारी के आधार पर खरीद-फरोख्त करने की अनुमति नहीं है। लेकिन, अगर ये खुलासे सार्वजनिक न होकर गोपनीय रहते हैं, तो हितों के संभावित टकराव पर नजर कौन रखेगा? क्या यह संभव है कि कोई आंतरिक सतर्कता अधिकारी या मानव संसाधन विभाग किसी अध्यक्ष या पूर्णकालिक सदस्य को जवाबदेह ठहराए? हिंडनबर्ग रिसर्च के आरोपों से यह बात भी सामने आई है कि हितों के टकराव की स्थितियों में माधवी ने अपने को उस मामले से अलग कर लिया हो, ऐसी कोई भी जानकारी नहीं है।

 हिंडनबर्ग, सुभाष गोयल, कांग्रेस पार्टी जैसे विभिन्न स्रोतों द्वारा लगाए गए आरोप और उसके बाद चली बहस सेबी के लिए इसे जरूरी बनाते हैं कि वह अपनी आंतरिक नीतियों की फिर से जांच करे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वह आधुनिक, पारदर्शी नियामक निकाय से अपेक्षित कठोर मानकों पर खरा उतरता है। तभी उसपर जनता का भरोसा बरकरार रह सकता है और भारत के वित्तीय बाजारों के संरक्षक के रूप में इसकी भूमिका को देखते हुए यह जरूरी भी है।

सुचेता दलाल जानी-मानी बिजनेस पत्रकार हैं। वह moneylife.in की प्रबंध संपादक हैं, जहां यह लेख पहली बार प्रकाशित हुआ

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