राम पुनियानी का लेख: हर व्यक्ति को धर्म के चश्मे से देखना देश के लिए सबसे बड़ा खतरा
विभिन्न जांच आयोगों की रपटों और पॉल ब्रास, डॉ असग़र अली इंजीनियर और हाल में येल विश्वविद्यालय द्वारा किए गए शोधों से जो चित्र उभरता है वह यह है कि देश में अल्पसंख्यकों - विशेषकर मुसलमानों और हाल के वर्षों में ईसाईयों - को बहुत कुछ झेलना और भोगना पड़ा है।
भारत का उदय विविधता का सम्मान करने वाले बहुवादी प्रजातंत्र के रूप में हुआ था। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए हमारे संविधान में समुचित प्रावधान किये गए, जिनका खाका सरदार पटेल की अध्यक्षता वाली संविधान सभा की अल्पसंख्यकों पर समिति ने बनाया था। आज, सात दशक बाद, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके आर्थिक कल्याण के सन्दर्भ में हम कहाँ खड़े हैं? जहाँ तक सांप्रदायिक हिंसा का सम्बन्ध है, विभिन्न दंगा जांच आयोगों की रपटों और पॉल ब्रास, डॉ असग़र अली इंजीनियर और हाल में येल विश्वविद्यालय द्वारा किए गए विद्वतापूर्ण शोधों से जो चित्र उभरता है वह यह है कि देश में अल्पसंख्यकों - विशेषकर मुसलमानों और हाल के वर्षों में ईसाईयों - को बहुत कुछ झेलना और भोगना पड़ा है। सच्चर समिति की रपट (2006) से यह जाहिर है कि आर्थिक दृष्टि से देश के मुसलमानों का पूरी तरह से हाशियाकरण हो चुका है।
पिछले कुछ दशकों और विशेषकर पिछले छह सालों के घटनाक्रम से यह साफ़ है कि मुस्लिम समुदाय को आतंकित और प्रताड़ित करने का सिलसिला बदस्तूर जारी है और यह समुदाय घोर असुरक्षा के वातावरण में जी रहा है। बीफ के नाम पर लिंचिंग और लव जिहाद के बहाने प्रताड़ना की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। इस समुदाय के प्रजातान्त्रिक अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है। कोविड महामारी के दौरान मीडिया के एक हिस्से ने शासक दल की परोक्ष सहमति से 'कोरोना जिहाद' और 'कोरोना बम' जैसी शब्दावली का प्रयोग किया। मुसलमानों के घावों पर नमक छिड़कते हुए सरकार ने असम में एनआरसी (नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर) के निर्माण की कवायद की। सरकार का कहना था कि देश में व विशेषकर असम में 50 लाख बांग्लादेशी घुसपैठिये रह रहे हैं। जब यह कवायद ख़त्म हुई तो पता चला कि असम में कुल 19 लाख लोगों के पास उनकी नागरिकता साबित करने के लिए पर्याप्त दस्तावेज नहीं हैं और उनमें से 12.5 लाख हिन्दू हैं!
इसके बाद भी, सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पारित किया, जिसके तहत पड़ोसी देशों में रहने वाले ऐसे व्यक्तियों, जिन्हें धार्मिक आधार पर प्रताड़ित किया जा रहा है, को भारत की नागरिकता हासिल करने का अधिकार दिया गया। परन्तु इनमें मुसलमान शामिल नहीं हैं। सरकार ने जो जाल बिछाया है वह सबको नज़र आ रहा है। देश में रह रहे जिन हिन्दुओं के पास समुचित दस्तावेज नहीं होंगे, उन्हें नागरिकता प्रदान कर दी जाएगी। परन्तु मुसलमानों को मताधिकार से वंचित कर और विदेशी बताकर डिटेंशन सेंटरों में भेज दिया जायेगा।
इन हालातों के बीच, पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के संस्मरण एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। पुस्तक का शीर्षक है "बाय मेनी ए हैप्पी एक्सीडेंट: रीकलेक्शन्स ऑफ़ ए लाइफ"। इस पुस्तक के सदर्भ में अनेक टीवी चैनलों ने उनके साक्षात्कार लिए और उन्हें अपने स्टूडियो में चर्चा के लिए आमंत्रित किया। इन साक्षात्कारों और चर्चाओं में हामिद अंसारी ने अपनी चिंताओं और सरोकारों को अभिव्यक्त किया। उन्होंने कहा कि हमारे देश में नागरिकता का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। चूँकि उनकी पुस्तक और उनके जीवन पर जो भी टिप्पणियां की गईं उनमें से अधिकांश का सम्बन्ध उनके मुसलमान होने से था इसलिए उन्होंने कहा कि एक राजनयिक और राजनेता के रूप में उनके जीवन में उनके मुसलमान होने का कोई महत्व नहीं था। महत्व था तो केवल उनकी योग्यता और कार्यक्षमता का। सनद रहे कि हामिद अंसारी ने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए लगभग चार दशकों तक देश को अपनी सेवाएं दीं।
परन्तु मुस्लिम होने के कारण उन पर लगातार हमले होते रहे। सन 2015 में गणतंत्र दिवस की परेड में तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा जन गण मन के वादन के साथ सेना की एक टुकड़ी से सलामी लेते हुए एक चित्र को बड़े पैमाने पर प्रसारित किया गया। इस चित्र में राष्ट्रपति के अलावा, प्रधानमंत्री मोदी और रक्षा मंत्री को सेल्यूट करते हुए देखा जा सकता था जबकि हामिद अंसारी सीधे खड़े हुए थे। आरोप यह लगाया गया कि उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज को सलामी नहीं दी। सच यह है कि ऐसे मौकों पर केवल राष्ट्रपति, जो सेना के पदेन सर्वोच्च सेनापति भी होते हैं, सेल्यूट करते हैं। अंसारी प्रोटोकॉल का पूर्णतः पालन कर रहे थे जबकि सेल्यूट करने वाले अन्य लोग सुस्थापित मार्गनिर्देशों का उल्लंघन कर रहे थे।
उपराष्ट्रपति के रूप में अंसारी के कार्यकाल की समाप्ति पर अपने विदाई भाषण में प्रधानमंत्री ने उन पर व्यंग्य कसा। "राजनयिक के रूप में आपका अधिकांश समय पश्चिम एशिया में बीता...उसी माहौल में, उन्हीं लोगों के बीच...और रिटायरमेंट के बाद माइनॉरिटी कमीशन या एएमयू...यही आपका दायरा रहा है।"
अंसारी की किताब के प्रकाशन के बाद सांप्रदायिक तत्त्व यह राग अलाप रहे हैं कि भारत ने उन्हें इतने महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया परन्तु फिर भी वे असंतुष्ट हैं। वे भारत छोड़कर उस देश में रह सकते हैं जहाँ उन्हें अच्छा लगे। इस तरह की टिप्पणियां, सांप्रदायिक राष्ट्रवादियों की मानसिकता की परिचायक हैं। वे हर व्यक्ति को केवल और केवल धर्म के चश्मे से देखते हैं। हमें यह समझना होगा कि अंसारी अपनी व्यक्तिगत अप्रसन्नता व्यक्त नहीं कर रहे हैं।
प्रजातंत्र और भारतीय राष्ट्रवाद में आस्था रखने वाले एक राजनीतिज्ञ बतौर वे हमारा ध्यान देश में आ रही गिरावट की ओर खींचना चाहते हैं। वे यह बताना चाहते हैं कि सांप्रदायिक पहचान से जुड़े और भावनात्मक मुद्दों जैसे राममंदिर, बीफ, घरवापसी और लव जिहाद आदि हमारे प्रजातंत्र की नींव को कमज़ोर कर रहे हैं।
उनका यह भी कहना है कि धर्मनिरपेक्षता शब्द हमारी वर्तमान सरकार के शब्दकोष से गायब हो गया है। यह कहा जा सकता है कि पूर्व में हमारी सरकारों की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता कमज़ोर ही थी। जैसे, शाहबानो मामले में अदालत के निर्णय के बाद जो कुछ किया गया वह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। इस तरह के दृष्टिकोण के लिए कई कारक ज़िम्मेदार थे जिनमें शामिल था यह डर कि अल्पसंख्यकों के कल्याण की दिशा में किसी भी कदम को मुसलमानों का तुष्टिकरण कहा जायेगा। परन्तु फिर भी, कम से कम सिद्धांत के स्तर पर धर्मनिरपेक्षता को पूर्ण स्वीकार्यता प्राप्त थी। अब तो स्थिति यह है कि कोई यह पूछने को ही तैयार नहीं है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री को किसी धार्मिक स्थल के निर्माण का उद्घाटन क्यों करना चाहिए या बीफ के नाम पर हत्याएं क्यों होनी चाहिए या सीएए से किसी एक धर्म के मानने वालों को बाहर क्यों रखा जाना चाहिए।
अंसारी लिखते हैं कि "किसी नागरिक की भारतीयता को चुनौती दिया जाना अपने आप में चिंता का विषय है।" वे इसलिए भी व्यथित हैं क्योंकि "हमारे नागरिकों के एक तबके, जिसमें दलित, मुसलमान और ईसाई शामिल हैं, के मन में असुरक्षा का भाव उत्पन्न हो गया है..." "असहिष्णुता को बढ़ावा देना वाला अनुदारवादी राष्ट्रवाद" भी उनका सरोकार है।
बहुवाद और विविधता के विरोधी कह रहे हैं कि दरअसल इस समय में देश सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष है क्योंकि अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्व में जो झुकाव था, वह ठीक कर लिया गया है। वे लिंचिंग की घटनाओं की तुलना पूर्व में हुई कुछ हत्यायों से करते हैं और कहते हैं कि दलितों और मुसलमानों में असुरक्षा का भाव नहीं है। हमें अंसारी की बातों को गंभीरता से लेना होगा और हमारे प्रजातंत्र को सही राह पर ले जाना होगा।
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia