खरी-खरी: किसान-मजदूर के अधिकार छीनने के लिए संसद की पीठ में छुरा घोंपकर लोकतंत्र की हत्या
मोदी जी के रिफॉर्म-2 का सीधा अर्थ यह है कि भारतीय ‘वेलफेयर स्टेट’ को पूरी तरह से दफन कर गांव, देहात, खेती-बाड़ी, फैक्टरी- हर जगह गरीब के अधिकार समाप्त हों और हर जगह पूंजीपति को खुली छूट मिले। संसद के मानसून सत्र में तीन कानून ऐसे पारित हुए हैं जो इस देश के किसान-मजूदर की कमर तोड़ देंगे।
संसद के बारे में यह सुनते चले आए थे कि यह लोकतंत्र का मंदिर होता है। परंतु भारतीय संसद लोकतंत्र की हत्यास्थली बन जाएगी, ऐसा कभी किसी ने पहले सोचा नहीं था। रविवार 20 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में जो कुछ हुआ, उसके बाद अब यह स्पष्ट है कि संसद का उपयोग अब खुले तौर पर लोकतंत्र का गला घोटने के लिए हो रहा है। उस रोज राज्यसभा में कृषि संबंधी विधेयक पास कराने के लिए जो कुछ हुआ, उससे आप अवगत हैं। फिर भी एक बार आपको राज्यसभा में हुई दुर्घटना का घटनाक्रम याद दिला दें, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि नरेंद्र मोदी सरकार ने किस प्रकार लोकतंत्र की हत्या स्वयं भारतीय लोकतंत्र के मंदिर संसद में की।
मोदी सरकार ने खेती-बाड़ी से संबंधित दो अध्यादेश जारी किए थे। एक, मंडियों में रिफॉर्म की खातिर था एवं दूसरा किसानों की अनाज खरीदी में परिवर्तन से संबंधित था। भारतीय किसानों में इसको लेकर गहरी चिंता थी। तब ही तो पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान इन अध्यादेशों के विरुद्ध सड़कों पर निकल पड़े थे।
20 सितंबर, 2020 को सरकार ने इन दोनों अध्यादेशों से संबंधित विधेयक राज्यसभा में लगभग तीन-चार घंटे की बहस के बाद वोटिंग के लिए रखे। इस संबंध में पहले तो विपक्ष ने यह मांग रखी कि बिल को संसद की ‘सेलेक्ट कमेटी’ के पास भेज दिया जाए। उनकी दलील यह थी कि ये बिल सदियों से चली आ रही खेती-बाड़ी की व्यवस्था में मूल परिवर्तन कर देंगे, अतः ये बिल जल्दबाजी में पास नहीं होने चाहिए। परंतु उस समय राज्यसभा में उपस्थित उपसभापति ने यह मांग रद्द कर दी। अब विपक्ष ने यह मांग की कि इस मामले पर ‘डिविजन’ हो, अर्थात वोटिंग हो। परंतु उपसभापति ने मत विभाजन की अनुमति देने के बजाय ध्वनिमत के आधार पर यह कह दिया कि क्योंकि बहुमत कानून के पक्ष में है, अतः बिल पारित घोषित किया जाता है। उनके इस फैसले पर संसद में हंगामा खड़ा हो गया। उससे भी आप अवगत हैं और उस हंगामे के बाद राज्यसभा के आठ सांसद एक हफ्ते के लिए संसद से निलंबित कर दिए गए।
अब प्रश्न यह है कि पिछले कई वर्षों से ऐसा हंगामा संसद में आए दिन होता रहता है और यदि ऐसा फिर एक बार राज्यसभा में हो गया तो उससे लोकतंत्र की हत्या कैसे हो गई! यह मूल प्रश्न है जिसका उत्तर देना आवश्यक है। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि लोकतंत्र का आधार ही वोटिंग प्रक्रिया है क्योंकि वोटके जरिये ही तो बहुमत एवं अल्पमत तय होता है। तब ही हर पांच वर्ष में चुनाव में वोटिंग के आधार पर बहुमत वाली पार्टी या गठबंधन की सरकार बनती है। फिर इसी वोटिंग के आधार पर सरकार संसद के भीतर कानून बनाती है। राज्यसभा के उपसभापति ने उस रोज सदन में लोकतंत्र की इस मूलभूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन नहीं करके लोकतंत्र की पीठ पर छुरा घोंप दिया जबकि संविधान में यह स्पष्ट किया गया है कि सदन में हर बिल वोटिंग के आधार पर पारित होना चाहिए। फिर, स्वयं राज्यसभा की ‘रूल बुक’ के अनुसार, यदि एक भी सांसद किसी मामले पर ‘डिविजन’ अर्थात वोटिंग की मांग करता है तो सदन में वोटिंग अनिवार्य होनी चाहिए।
परंतु ऐसा नहीं हुआ और उपसभापति ने ध्वनिमत के आधार पर खेती-बाड़ी से संबंधित दोनों अध्यादेशों को कानून का रूप दे दिया। स्पष्ट है कि उस समय सदन में सरकार के पास बहुमत नहीं था और सरकार को जल्दी थी कि हर हाल में इसी सत्र में किसी भी प्रकार ‘कृषि रिफॉर्म’ को कानून का रूप दे दिया जाए। अतः सरकार के इशारे पर उपसभापति ने वोटिंग के मूल नियम के बगैर खेती-बाड़ी व्यवस्था में परिवर्तन का कानून पास करवा दिया। बहुत संभव है कि यह कानून बहुमत नहीं बल्कि अल्पमत के आधार पर पास हुआ है। अतः इसको आप स्वयं संसद में लोकतंत्र की हत्या एवं इस कानून को काला कानून नहीं तो और क्या कहेंगे!
मैंने 20 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में हुए घटनाक्रम एवं उसके पीछे सरकार की रणनीति के बारे में इतने विस्तार से इसलिए बताया है कि यह समझा जा सके कि मोदी सरकार की असल मंशा क्या है। दरअसल मोदी जी भारतीय अर्थव्यवस्था में रिफॉर्म-2 को पूरा करने की जल्दी में हैं। यह रिफॉर्म-2 असल में क्या है! नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था में जो रिफॉर्म-1 हुआ था, उसकी बुनियादी मंशा अर्थव्यवस्था का बाजारीकरण करना था। इस प्रक्रिया का एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य था और वह यह था कि जिस मिली-जुली अर्थव्यवस्था का आधार 1950 के दशक में रखा गया था, उस समय संसार दो सुपरपावर- यानी, अमेरिका एवं सोवियत संघ के बीच बंटा हुआ था।
भारतीय स्वतंत्रता के समय संसार में अर्थव्यवस्था के संबंध में दो विचारधाराएं थीं। एक, अमेरिकी पूंजीवाद अर्थात बाजार को संपूर्ण आजादी की विचारधारा और दूसरी सोवियत संघ की समाजवादी अर्थात सोशलिस्ट अर्थव्यवस्था जिसमें हर चीज की मालिक स्वयं सरकार होती थी। भारत ने बीच का रास्ता अपनाया जिसमें पूंजीवाद अर्थात बाजार को व्यापार की पूर्ण आजादी दी गई। दूसरी ओर, सरकार ने मूल आर्थिक चीजें- जैसे, रेलवे इत्यादि स्वयं अपने हाथ में रखीं ताकि आम आदमी के मौलिक अधिकार कायम रहें और उसका घोर शोषण न हो। इस आधार पर भारत में एक ‘वेलफेयर स्टेट’ (कल्याणकारी राज्य) की नींव रखी गई जिसमें किसानों, मजदूरों और गरीबों को सरकार की ओर से सब्सिडी अधिकार एवं सहायता का प्रावधान किया गया।
परंतु 1990 के दशक में सोवियत संघ के टूटने के बाद जब दुनिया में अर्थव्यवस्था के रिफॉर्म, अर्थात बाजारीकरण की हवा चली तो भारत में भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था का बाजारीकरण हुआ। फिर भी, कांग्रेस सरकारों ने यह तय किया कि वे किसान, मजदूर एवं गरीब के मूलभूत अधिकारों को संपूर्ण रूप से समाप्त नहीं करेंगे। तब ही तो मनमोहन सरकार ने मनरेगा- जैसी योजना चलाई जिसने भारतीय गरीबों और भारतीय अर्थव्यवस्था- दोनों में एक नई जान डाल दी। लेकिन बाजार की पूंजीवादी लॉबी की यह मंशा है कि भारत में जिस ‘वेलफेयर स्टेट’ के आधार पर किसान, मजदूर एवं गरीब को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता का प्रावधान है, उसे पूरी तरह से समाप्त किया जाए, अर्थात खेती-बाड़ी एवं मजदूरों के मौलिक अधिकार समाप्त हों और हर जगह पूंजीवाद को खुली छूट मिले।
यह है रिफॉर्म-2! इसका सीधा सा अर्थ यह है कि भारतीय ‘वेलफेयर स्टेट’ को पूरी तरह से दफन कर गांव, देहात, खेती-बाड़ी, फैक्टरी- हर जगह पर गरीब के तमाम अधिकार समाप्त हों एवं हर जगह पर पूंजीपति को खुली छूट मिले। पिछले सप्ताह संसद का जो सत्र समाप्त हुआ है, उसमें तीन कानून ऐसे पारित हुए हैं जो इस देश के किसान-मजूदर की कमर तोड़ देंगे। दो कानून खेती-बाड़ी से संबंधित हैं जिनको अभी अल्पमत के आधार पर राज्यसभा में पारित करवाया गया। इन दोनों कानूनों के तहत अब मंडी खरीदी में पूंजीपति के कदम पहुंच गए और जल्द ही किसान की फसल के दाम वह तय करेगा, अर्थात धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली खत्म और मंडी में पूंजीपति की मनमानी चलेगी। लब्बोलुआब यह है कि भारत की लगभग 60 प्रतिशत खेतिहर आबादी का जीवन अब पूंजीपति के शिकंजे में होगा।
तीसरा कानून जो अभी पारित हुआ है, वह मजदूरों से संबंधित है। इस कानून के तहत जिस फैक्टरी में तीन सौ तक की संख्या में मजदूर काम करते हैं, वहां अब फैक्टरी मालिक बिना कारण बताए जब चाहे किसी को भी नौकरी से बाहर कर सकता है, अर्थात मजदूरों के मौलिक अधिकार भी समाप्त।
अब आप समझे मानसून सत्र में लोकतंत्र की हत्या क्यों की गई। कारण यह था कि जल्द-से-जल्द भारतीय वेलफेयर स्टेट समाप्त कर किसान और मजदूर का गला घोंटने का संपूर्ण अधिकार बड़े औद्योगिक घरानों को को मिल जाए।
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Published: 26 Sep 2020, 8:00 AM