तीन तलाक बिल पर महिलाओं का विरोध और मुस्लिम नेताओं और उलेमा से तीन सवाल
दिल्ली के रामलीला मैदान में मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक बिल का विरोध करने के लिए जमा हुईं। इसी संदर्भ में मुस्लिम नेताओं से तीन सवाल पूछे जा रहे हैं, जिनके जवाब में ही शायद मुस्लिम समाज की भलाई छिपी है।
देश के कई शहरों के बाद अब राजधानी दिल्ली में भी मुस्लिम महिलाओं ने जमा होकर कथित तौर पर तीन तलाक पर मोदी सरकार के फैसले का विरोध किया। लेकिन इन महिलाओं में से कितनों को शायद यह पता ही नहीं था कि वे आखिर किस मुद्दे पर विरोध के लिए जमा हो रही हैं। और बहुत सी ऐसी भी रही होंगी जिन्हें यह भी नहीं मालूम होगा कि वे सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में हैं या विरोध में। हां इतना जरूर था कि उन्हें भेड़ों की तरह हांक कर रामलीला मैदान पहुंचा दिया गया। इन महिलाओं में निश्चित रूप से बड़ी तादाद उनकी भी होगी, जिन्हें आमतौर पर घरों से निकलने की आजादी नहीं है, और इसके लिए उन्हें पति, पिता और भाई आदि से विनती करनी पड़ती होगी। लेकिन अब तो इस्लाम खतरे में है, इसलिए उनका घर से निकलना एकदम शरीयत के मुताबिक है और लाजिमी भी।
चलिए बहुत हो गई छींटाकशी, अब असली मुद्दे पर आते हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेतृत्व में कई मुस्लिम संगठनों ने मुस्लिम महिलाओं से अपील की कि तीन तलाक के मुद्दे पर जारी विरोध की आखिरी कड़ी के तौर पर दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंचें और मौजूदा सरकार के तीन तलाक बिल का शांतिपूर्ण विरोध करें। इसमें कुछ गलत नहीं है, एक एक शब्द दुरुस्त है। क्योंकि, अगर शरीयत में दखलंदाजी हो रही है तो इसके खिलाफ कम से कम विरोध तो दर्ज कराना आपका कर्तव्य ही नहीं बल्कि धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारी भी है। और, इससे अच्छी क्या बात होगी कि अगर यह विरोध शांतिपूर्ण हो। लेकिन इसी के साथ कुछ सवाल भी खड़े होते हैं।
जब हम उन लोगों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, जिन्होंने शरीयत में दखलंदाजी की है, तो क्या हमें उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन नहीं करने चाहिए, जिनकी वजह से यह नौबत आई है? क्या आपको लगता है कि मौजूदा सरकार इतनी समावेशी है कि वह आपके विरोध से पिघल जाएगी और अपने फैसले को बदल देगी? क्या हम उनकी लड़ाई लड़ रहे हैं जो शरीयत में यकीन ही नहीं रखते, बल्कि इंसान के बनाए हुए कानून में ज्यादा विश्वास रखते हैं?
पहले सवाल का जवाब इसके अलावा कुछ और नहीं हो सकता कि जिन की वजह से मुस्लिम समाज को यह दिन देखना पड़ा और उनकी बहन-बेटियों को सड़कों पर उतरना पड़ा, उनके खिलाफ विरोध ही नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके नेतृत्व को मानने से ही इनकार कर देना चाहिए। यह एक सीधा सा जवाब है, लेकिन हकीकत यह है कि इन कथिक मुस्लिम संगठनों में बैठे लोग न तो मुस्लिम समाज की जरूरतें समझते हैं और न ही सरकार की चालाकी को। या यूं कहा जाए कि समझना ही नहीं चाहते। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं को सड़कों पर उतारना वैसा ही है, जैसे सांप निकलने के बाद लकीर पीटना।
इन तमाम विरोध प्रदर्शनों का सीधा और बड़ा फायदा आरएसएस और सत्तारूढ़ बीजेपी को होना तय है। मुस्लिम महिलाएं सड़कों पर आएंगी, कुछ टीवी चैनल इस पर बहसें करेंगे, सिर्फ नाम, लिबास और दाढ़ी के दम पर मुसलमान होने का दम भरने वाले कुछ लोग चैनलों को एंकरों के हाथों खुद को बेइज्जत कराएंगे और मुस्लिम समाज की भी। आखिर में नतीजा यह निकलेगा कि मुसलमान खुद ही अपनी महिलाओं पर ज्यादती करते हैं और उनको आजादी से जीने का अधिकार तक नहीं है। यानी मुस्लिम समाज रुसवा होगा और सत्तारूढ़ दल को फायगा होगा, और मुस्लिम विरोध एक मंच पर आ जाएंगे।
अब यह भी कहा जा रहा है कि अब विरोध प्रदर्शन नहीं होंगे, अब मुस्लिम समाज के बीच आपसी सलाह-मशविरे की मुहिम शुरु की जाएगी। जनाब, यह काम तो पहले करना चाहिए था। आपको पहले अपनी नींद से जागना था और इस नौबत तक हालात पहुंचने ही नहीं देना था। लेकिन आपको तो लाठी से जगाया जा सकता है या फिर चंद सिक्कों की खनक आपको जगाने के लिए काफी होती है।
दूसरा सवाल यह कि क्या आपको लगता है कि आपके विरोध प्रदर्शन से मौजूदा सरकार अपना फैसला बदल लेगी? जनाब यह भी खुद को और समाज को धोखा देने जैसा ही है। मौजूदा सरकार के मिजाज और उसके इरादों से अगर आप वाकिफ नहीं हैं तो बेहतर यही होगा कि आप मुसलमानों के नेता बनने का ढोंग बंद कर दें और मुसलमानों को उनके हाल पर छोड़ दें, क्योंकि मुसलमान मौजूदा सरकार के इरादों को आपसे बेहतर समझती है। हां, अगर इसमें आपको कोई निजी फायदा है तो मेहरबानी करके अपने कारोबार को बदल लें और मुसलमानों को बेचना बंद करें। खुदा के लिए आप सांप्रदायिक शक्तियों को मजबूती देने का काम न करें।
तीसरा सवाल, क्या हम उनकी लड़ाई लड़ रहे हैं जो शरीयत में यकीन ही नहीं रखते और जिनका मानना है कि इंसान का बनाया कानून ज्यादा प्रभावी है? पहली बात तो यह कि शरीयत की व्याख्या नहीं की गई और मुस्लिम समाज में सुधार की किसी ने चिंता नहीं की। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक को अदालत में खुद तलाक-ए-बिदत माना है, फिर इसके लिए लड़े भी और यह भी कहा कि हम इस पर बातचीत कर रहे हैं। यह सब क्या है। किसे मूर्ख बनाया जा रहा है। हम जिनके लिए लड़ रहे हैं, उनके संदर्भ में अब मुझे सुलह हदीदिया याद आ रही है। इसकी अहम शर्त यह है कि अगर कोई गैर मुस्लिम, मुसलमान हो जाएगा तो इसको मुसलमानों को वापस करना पड़ेगा, और कोई मुसलमान, गैर मुस्लिम हो जाएगा तो उसको वापस नहीं किया जाएगा। यह सुलह करने वाले कोई और नहीं बल्कि हमारे प्यार नबी (सअव) थे। सुब्हान अल्लहा! कितनी दूरदृष्टि थी। अगर कोई गैर मुस्लिम मुसलमान हो जाए और उसके सीने में इस्लाम उतर जाए, तो उसको वापस भी कर देंगे तो भी वह जहां भी रहेगा, इस्लाम के लिए ही काम करेगा और अगर कोई ऐसा मुसलमान जो गैर मुस्लिम हो जाए, तो इसका मतलब साफ है कि इसके दिल में इस्लाम नहीं उतरा था और वह मुसलमानों के लिए बेकार था, इसलिए ऐसे शख्स का जाना ही बेहतर था।
जी जनाब! अगर कोई पुरुष या महिला अपने मसले के लिए अपनी शरीयत में हल तलाश करने के बहाने इंसान के बनाए हुए कानून में हल तलाश करेगा तो उसने पहले ही कदम पर खुद को इस्लाम से अलग कर लिया। और, जिसने पहले ही कदम पर खुद को इस्लाम से अलग कर लिया, तो उसकी लड़ाई शरीयत के ठेकेदार क्यों लड़ें और उनके लिए वे सड़कों पर क्यों उतरें जो शरीयत पर यकीन ही नहीं रखते। सिर्फ इसलिए कि उनका नाम जुनैद या तबस्सुम है। इसके साथ यह बात भी जहन में रखने की जरूरत है कि अपने समाज में इसलाह और शरीयत की सही व्याख्या तो उलमा को करनी ही पड़ेगी और यह काम दूसरी लाठी सिर पर पड़से पहले करना पड़ेगा।
हो सकता है मेरी सोच सरासर गलत हो, लेकिन मैंने जो सवाल उठाए हैं, उन पर गौर जरूर कीजिए। और, वक्त रहते अपने समाज की इसलाह कीजिए और खुदा के वास्ते अपने समाज को खुद सुधारें और ऐसी नौबत न आने दें, जिसके नतीजे में आपको या आपकी बहनों को सड़कों पर उतरना पड़े और आपके इस कदमसे इस्लाम विरोधी तत्वों को मजबूती मिले।
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