मृणाल पाण्डे का लेखः हाय वो अच्छे दिन, ये बुरे दिन
नीति-निर्माता जितना समझ रहे थे, देश की आर्थिक दशा का मर्ज उससे कहीं गहरा है। आर्थिक विकास कम है, क्योंकि उत्पादन कम है। बाजार में मांग इस तेजी से घटी है कि जूते, चश्मे के विक्रेता या कार-साइकिल के कलपुर्जे बनाने वाले व्यवसायी तक अब ये आंच महसूस कर रहे हैं।
पिछले महीने से सरकार कभी अच्छे दिनों के पुराने सपने जगाती है, कभी देशभक्ति की दुहाई देकर जनता से बुरे दिनों के 2019 के आर्थिक नतीजों के दु:स्वप्न, कश्मीर और असम की आग को झेल ले जाने का अनुरोध करती है। फिर भी जब खराब खबरें आना बंद नहीं होती, तो वह पटरी बदल लेती है। बंगाल, हरियाणा, दिल्ली, झारखंड, महाराष्ट्र- चुनावों की जनसभाओं में अब भी लुटियन के सत्ता विरोधी मीडिया गैंग, उसकी प्रिय पूर्व सरकार और अंत में नक्सलियों-आतंकियों से उनके गुप्त भीतरी समर्थकों को तमाम सकारात्मक कदमों की राह में रोड़े अटकाने का जिम्मेदार बताया जा रहा है।
लगता है कि विपक्ष ने भी इधर कुछ द्विमुखी सी शैली अपना ली है। उसके शीर्ष नेता जमकर मोदी सरकार की विफलताओं पर बोल-लिख रहे हैं, वहीं कुछ जिम्मेदार प्रौढ़ नेता कह रहे हैं कि मोदीजी पर सारा दोष मढ़ना और उनको राक्षस (डीमन) बनाना गलत है। जब मीडिया यह विरोधाभास इंगित करता है, तो अचानक उनमें से कुछ पैंतरा बदलकर कहने लगते हैं कि सत्तारूढ़ सरकार राक्षसी है। वह कश्मीर में अलोकतांत्रिक, अमानवीय घेरेबंदी कर रही है और थैली शाहों से मिलीभगत के शिकंजे में है।
कुछ सबक अभी दोनों पक्षों के समर्थक मीडिया को सीखने हैं। इनमें सबसे प्रमुख हैं तथ्य जुटाने में मेहनत करना और लोकतंत्र में मीडिया तथा पार्टियों का बाहर भी और भीतर भी, ईमानदार साफगोई का सम्मान। फिलवक्त अर्थजगत से जो खबरें सतह पर आ चुकी हैं, उससे सभी विस्मित हैं। इस साल के पहले तीन महीनों में आर्थिक तरक्की दर की रफ्तार 5.8 फीसदी पर आ गई है। यह रफ्तार तो सिर्फ औपचारिक उद्योग जगत के आंकड़ों के आधार पर कूती गई है। देश का वह 90 फीसदी आर्थिक परिदृश्य अभी भी इनमें से ओझल है, जो अनौपचारिक कहलाता है और जिसमें ग्रामीण इलाकों के वे खेती और कपड़ा उद्योग भी शामिल हैं, जो सबसे अधिक हाथों को रोजगार देते रहे हैं। फिलहाल उनकी हालत औपचारिक उपक्रमों से कहीं ज्यादा खस्ता है। इसलिए अगर ईमानदारी से उनके उपलब्ध आंकड़ों को भी जोड़ा जाए, तो विशेषज्ञों की राय है कि आर्थिक तरक्की की दर दो फीसदी से अधिक नहीं निकलेगी।
जाहिर है कि नीति-निर्माता जितना समझ रहे थे, देश की आर्थिक दशा का मर्ज उससे कहीं ज्यादा गहरा है। आर्थिक तरक्की कम है, क्योंकि उत्पादन कम है। उत्पादन कम हो रहा है, क्योंकि बाजार में मांग इतनी तेजी से घटी है कि जूते,चश्मे सरीखे माल के विक्रेता और कार या साइकिल के कलपुर्जे बनाने वाले छोटे-मोटे व्यवसायी तक अब उसकी आंच महसूस कर रहे हैं। उधर विदेशी बाजार भी डगमग हैं।
चीन-अमेरिका की घरेलू नाकेबंदी और आयात पर लगाई पाबंदियों से जब हर देश दुष्प्रभावित हो रहा है, और डॉलर चिंताजनक तरीके से लुढ़कने लगा है, तो जनता का भरोसा बहाल करने की बजाय सरकार अपनी एनफोर्समेंट एजेंसियों को बैंकिंग के बड़े नामों, बड़े और छोटे उपक्रमियों तथा निर्माण कार्य से जुड़ी कंपनियों के खिलाफ (कई बार शक की बिना पर) कड़ी जांच बिठाने, घरों में घुस-घुस कर छापे मारने तथा शहर-शहर दुकानों पर सीलिंग की कार्रवाई कराने के लिए अधिकृत कर देती है।
बार-बार पूर्व वित्तमंत्री या पूर्व मुख्यमंत्रियों के घर की दीवार फांदते सरकारी अमले और नेताओं की नजरबंदी से जनता में एक खौफ का माहौल बन गया है, जिसका बाजारों में खरीद-फरोख्त पर भी चाहे-अनचाहे नकारात्मक असर हुआ है। कठोरता के इस प्रदर्शन से सरकार, जो अक्सर आलोचक मीडिया और विपक्षी दलों से जुड़े लोगों के खिलाफ अधिक लामबंद दिखती है, सुरक्षा के नाम पर किए एनकाउंटरों या धरपकड़ से अपना रसूख या विदेशी निवेशकों के सामने भारतीय बाजार की साख किस हद तक बहाल करेगी, यह तो हम कह नहीं सकते। पर इससे न तो कहीं से बड़ी तादाद में वह काला पैसा बरामद हुआ है जो नोटबंदी से नहीं हो सका था, और न ही बाजार में नगदी आवक कम हुई है। जबकि पिछले एक साल से बढ़ती मंदी और बेरोजगारी की चेतावनी देते रहे मीडिया पर तक उसकी धरपकड़ और घेरेबंदी ने सन्नाटा तारी कर दिया है।
क्या सरकार यह नहीं समझती कि मीडिया वर्तमान सरकार और विपक्ष के साथ-साथ भोली जनता को भी यह याद दिलाता रहे कि लगातार चंद हाथों में केंद्रीकृत ताकत से कई अटपटी समझ नआने वाली योजनाएं बनाई गईं, जो सुधारी जानी चाहिए? अपने नोटबंदी जैसी विनाशकारी कदम या जीएसटी की संरचना की खामियों को न तो सरकार खुद खुलकर स्वीकार कर रही है, न ही मीडिया को राजनेताओं से जुड़े बलात्कार के आरोपों के स्याह सच अथवा मिड डे मील जैसी कथित जनहितकारी नीतियों के घोटाले उजागर करने को प्रोत्साहित कर रही है। अभी खबर आई है कि गए दिनों मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश, के एक सरकारी स्कूल में बच्चों को मिड डे मील में महज रोटी और नमक परोसने के घोटाले को उजागर करने के लिए एक चर्चित वीडियो बनाने वाले हिंदी के एक पत्रकार की रपट के खिलाफ प्रदेश पुलिस द्वारा उस गरीब पर सरकार के खिलाफ साजिश रचने का मुकदमा दायर कर दिया गया है।
यह कोई नहीं कहता कि सरकार के सारे फैसले गलत हैं, पर अगर सभी फैसले सही और सारे आलोचक साजिशकर्ता होते, तो क्या महिलाओं के खिलाफ अपराधों और आर्थिक बदहाली में निरंतर बढ़ोतरी सामने होती? और अब सरकार खुद स्वीकार कर रही है कि उसके आठ शीर्ष निर्माण उपक्रम खस्ता हाल हैं। सोने-चांदी की कीमतों में उछाल आना प्रमाण है कि असहज महसूस कर रहे गाहक अपना पैसा बाजार में निवेश करने या खर्च करने की बजाय उसे तरह-तरह से सेंतने लगे हैं। कई मामलों से दिवालियेपन की कगार पर पहुंचे बैंकों की साख घट चुकी है। उसकी बहाली को सरकार कई सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के परस्पर विलय का ऐलान कर आश्वासन देती है कि आगे इन बड़े बैंकों की लोन देने की क्षमता और लोन मिलने की गति बढ़ जाएगी।
जी हां, शायद बढ़ जाए, पर रोजाना की प्रेस ब्रीफिंग से अब क्या होगा जबकि अर्थव्यवस्था गिरती जा रही है? कितने बैंक मनीजर अपने पूर्वर्तियों का हश्र देखने के बाद बड़े कर चोरों के अनचुकाए लोन वापिस पाने तक गाहकों को नए लोन देने का जोखिम उठाएंगे? वैसे भी सरकारी धनराशि को स्वीकृत होने के बाद भी जिस तरह की जटिल अनिवार्य औपचारिकताओं से गुजरना पड़ता है, सरकार का भेजा यह पैसा बाजार में तुरत-फुरत प्रवाहित होने से रहा। आज की दुनिया एक हद तक ग्लोबल गांव बन चुकी है, जहां किसी महाशक्ति का छींकना सबको जुकाम लगा देता है।
सिर्फ विश्व बाजार को ही हम भारत की मंदी का सारा दोष कैसे दें, जबकि अमरीका से रार ठाने हुए चीन की अर्थव्यवस्था इसी तिमाही के दौरान 6.2 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी है। और (आईएमएफ के अनुसार) वियतनाम सरीखे अपेक्षया छोटे देश की भी बरस 2018 में 7.1 फीसदी की आर्थिक तरक्की हुई और उसे कामगारों की कमी पड़ रही है, काम की नहीं। उधर उसी बरस पड़ोसी बांग्लादेश, जो कई दैवी आपदाओं के साथ बड़ी आबादी से भी जूझता रहा, की आर्थिक तरक्की 2018 में आठ फीसदी बढ़ी है, जिसके इस साल भी सात फीसदी से ऊपर रहने के लक्षण हैं। एक तो निर्यात जीरो, तिस पर घरेलू बाजारों में मांग का टोटा। अब सरकार रिजर्व बैंक से निकाला धन बमार्फत बैंक बाजार में डाले भी तो उससे मांग कितनी बढ़ेगी?
इस समय बुरी खबर देने वाले मीडिया पर एफआईआर दर्ज कराने की जगह सरकार को स्वीकार करना चाहिए कि हां कुछ नीतिगत गलतियां हुई हैं। हां, विदेशी अखबारों में भारत की माली शक्ल और राजनीतिक गतिविधियों, गोरक्षकों की कारस्तानियों और कश्मीर में कर्फ्यू तथा नजरबंदियों के जो चर्चे छप रहे हैं, वे नकारात्मक संदेश दे रहे हैं। सरकार के प्रवक्ता टीवी बहसों में इन खबरों को लाख दुर्भावना प्रेरित और भारत के देशद्रोहियों का किया कहें, सोशल मीडिया के युग में सच लॉकर में बंद नहीं रहता। यह जो मंदी हम देख रहे हैं यह महज चक्रीय घटना नहीं जो दशक में एक बार लाजमी तौर से घटती हो। इसकी जड़ें वित्तीय संस्थाओं, बैंकों और नियामक दस्तों के गठन से बुरी तरह क्षत-विक्षत कर दिए गए बुनियादी ढांचे में हैं। बैंक हों, या नीति आयोग, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हों या वित्तीय क्षेत्र की नियामक संस्थाएं उनको राजनीतिक बदलेबाजी के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना अंतत: सरकार को ही नुकसान पहुंचाता है।
यही बात मीडिया पर भी लागू होती है। लोकतंत्र के चौथे पाये को पालतू बना कर उससे गैर प्रोफेशनल वक्तव्य जारी कराना और आलोचक मीडिया पर लगातार जकड़बंदी से भी सरकार को ईमानदार खबरें और वे तटस्थ जानकारियां नहीं मिल पातीं जिनकी मार्फत समय रहते दशा को सुधारा जा सके। इस बात पर बहुत खुश होने की जरूरत नहीं कि देखो एक और मीडिया संस्थान बंद हो गया। मीडिया में मरघटी सन्नाटा बन जाना शांति का प्रमाण नहीं, लोकतंत्र के भीतर चुपचाप घर कर रही गंभीर बीमारी का लक्षण है। एक पुरानी फिल्म में किशोर कुमार ने अपनी जिद्दी और बेतरह सख्त मिजाज मां पर महीन तंज कसते हुए कहा था, ‘तुम तो बड़ी जल्द ही हमारे घर को स्वर्ग और हम सबको स्वर्गवासी बना दोगी।’
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia