विष्णु नागर का व्यंग्यः ये तुलसी नहीं मोदी-शाह का रामराज्य है, जहां अंधे देख रहे, बहरे सुन रहे हैं
आज अगर गांधी भी होते तो प्रधानमंत्री की शपथ लेकर कहते कि मैं वही कहूंगा, जो इनके अनुसार सच होगा और आज से अहिंसा के उसी पथ पर चलूंगा, जिस पर ये 2002 से चलते आ रहे हैं। और अगर महात्मा बुद्ध होते तो वह यही बात गृहमंत्री की शपथ लेकर कहते।
बात हमारे प्रधानमंत्री की नहीं है। वह तो बेहद भले हैं। सत्य और अहिंसा के मंदिर के पुजारी हैं। ये पूजा तब तक करते रहते हैं, घंटी तब तक टनटनाते रहते हैं, जब तक कि वे मजबूर होकर विश्राम करने नहीं चले जाते और असत्य तथा हिंसा जागृत तथा उत्तिष्ठ नहीं हो जाते। पुजारी जी इनके सोने तक न खिचड़ी खाते हैं, न मशरूम चबाते हैं।
भक्तों का विश्वास है कि आज महात्मा गांधी भी होते तो प्रधानमंत्री की शपथ लेकर कहते कि मैं वही कहूंगा, जो इनके अनुसार सच होगा और आज से अहिंसा के उसी पथ पर चलूंगा, जिस पर ये 2002 से चलते आ रहे हैं। और अगर महात्मा बुद्ध होते तो वह यही बात गृहमंत्री की शपथ लेकर कहते। अगर गृहमंत्री कहते कि नहीं, प्रधानमंत्री जी का नाम भी लेना होगा तो लेते। और शपथ भी तब लेते, जब दिल्ली पुलिस इसकी अनुमति इन्हें देती वरना क्या पता पुलिस आंसू गैस, लाठी-डंडे की बजाए सीधे गोली चला दे!
मान लो, वे नहीं चलाएं, तो नकाबपोश गुंडे आकर सिर फोड़ देंं! वैसे ये दोनों नेता संत प्रवृति के हैं, खुशी-खुशी अनुमति दिलवा देते। पुलिस इतना जरूर पूछती कि क्या हुआ जी आपका नाम? अच्छा बुद्ध। गुड। और आपका जी? गांधी। तो बुद्ध और गांधी ऐसा है जी, शपथ तो तुमको हम लेने देंगे मगर पुलिस थाने में लेना क्योंकि आजकल संविधान की मूल प्रतिज्ञा की शपथ लेने का चलन बहुत बढ़ गया है और साहेब को देशद्रोह की यह किस्म भी पसंद नहीं। शपथ सही लोगे तो हम तुम्हें व्हाट्सएप करने देंगे, उन दोनों तक बात पहुंच जाएगी और वहां से गोदी चैनलों तक वे खुद पहुंचा देंगे। आपका काम हो जाएगा। अब जहां तक मेरा सवाल है, मुझे नहीं मालूम कि ये बात बुद्ध और गांधी मान लेते क्योंकि ऐसे लोग थोड़े अड़ियल तो होते हैं!
हां तो मतलब बात प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की है नहीं। बात संघ और बीजेपी की भी नहीं है। बात भारतीय विद्यार्थी परिषद और बजरंग दल की भी नहीं है। और भी सफाई दे देता हूं कि बात आज के इंडिया की भी नहीं है। और भी कुछ जोड़ना हो, तो जोड़ लेना मगर घटाना कुछ मत। तो बात दरअसल उन दिनों की है, जब दिन, दिन नहीं, रात होते थे और रात भी रात होती थी और ऐसी घनी होती थी कि एक हाथ को दूसरा हाथ तब सूझता था, जितनी देर तक बिजली कड़कती थी या गोलियां चलती थींं या छप्पन इंची भेड़िये की आंखें चमकती थीं!
लेकिन ये जरूर था कि बिजली कड़कती थी, गोलियां चलती थीं, भेड़िये की आंखें चमकती थीं। जो जिंदा बच जाते थे, उन्हें रोशनी इस तरह मुहैया होती थी। लेकिन उन्हें डर लगता रहता था कि रोशनी में किसी पुलिस, किसी अर्द्धसैनिक बल के सिपाही ने उन्हें देख लिया तो क्या पता गोली मार दे और भेड़िये ने देख लिया तो जिंदा खा जाए। लोग अंधेरे से ज्यादा रोशनी से दहशत खाने लगे थे और यह रोशनी जाती कम थी, आती अधिक थी। वैसे इसी रोशनी के सहारे उन्हें बाजार, दफ्तर, दुकान जाना होता था, मजदूरी करना होता था, वरना रामजन्म भूमि, धारा 370, नागरिकता कानून, तीन तलाक, लव जेहाद, गोरक्षा के नारों से पेट भरना पड़ता था। इनसे न पेट भरता था, न सिर पर छत मिलती थी, न दवा मिलती थी।
बहुत बुरा वक्त था और आप खुद गवाह हैं कि आज ऐसा बिल्कुल नहीं है, बिल्कुल नहीं। आज अज्ञान की इतनी अधिक रोशनी है कि अंधे देख रहे हैं, बहरे सुनकर अज्ञानरूपी ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं और वह भी बिल्कुल मुफ्त में और बगैर हियरिंग एड्स के! और लंगड़े इसके बल पर खड़े होकर दो पैरों पर चलने नहीं बल्कि दौड़ने लगे हैं।
ऐसा युग पहले कभी आया था? कभी नहीं आया था। तुलसी के रामराज्य में भी नहीं आया था। हालांकि कवि, गोदी चैनलों से भी कम विश्वसनीय होते हैं, बल्कि अत्यंत अविश्वसनीय होते हैं, बशर्ते कि वे कवि हों, मगर आज तुलसीदास की कल्पना का नहीं, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री द्वारा रचित रामराज्य है। इस रामराज्य पर भरोसा करें, कवि की कल्पना पर नहीं।
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