‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हालात भले पक्ष में हों, लेकिन अपने ही अहाते में सुलग रही हैं कई चिंगारियां’
मोदी सरकार में हमारी विदेश नीति में बड़ा बदलाव आकार ले रहा है और हम एक तरफ झुकते जा रहे हैं। हम फलस्तीन के प्रति प्रतिबद्धता की नीति छोड़कर सीधे इजरायल का पक्ष लेने लगे हैं। जबकि अमेरिका तक ने फलस्तीनियों के सरोकारों के प्रति बेहतर प्रतिबद्धता दिखाई है।
यासिर अराफात का इंदिरा गांधी को अपनी बहन करार देने से बेंजामिन नेतान्याहू का नरेंद्र मोदी को अपना खास दोस्त कहना; 1962 में कश्मीर को भारत से लेकर पाकिस्तान को सौंपे जाने के इरादे से लाए गए प्रस्ताव पर सोवियत संघ के वीटो से लेकर जम्मू-कश्मीर मसले के अंतरराष्ट्रीयकरण से अमेरिका के इनकार तक; भारत ने एक लंबी कूटनीतिक यात्रा तय की है। भारत अहम है और मजबूत भी, लेकिन यह तो वह हमेशा रहा है।
ये और बात है कि अब हम एक परमाणु ताकत हैं और इस विशिष्ट क्लब में हमारी हैसियत एक पूर्णकालिक सदस्य की तरह ही है, लेकिन इसके लिए हमें मृदुभाषी डॉ. मनमोहन सिंह का आभार मानना होगा। यह भी अहम है कि दुनिया में उभरती हुई एक ताकतवर अर्थव्यवस्था के रूप में हमारी पहचान है, लेकिन इसका भी श्रेय काफी हद तक मनमोहन सिंह को जाता है, जिन्होंने वित्त मंत्री और फिर यूपीए सरकार के मुखिया रहते हुए इसकी जमीन तैयार की। यह और बात है कि मौजूदा प्रधानमंत्री ने कभी सार्वजनिक तौर पर इसका इजहार नहीं किया और खुशी-खुशी मान लिया कि भारत की यह कहानी तो 2014 में शुरू हुई।
भारत की अनूठी विदेश नीति आर्थिक या फौजी ताकत हासिल करने की कोशिशों से काफी पहले ही आकार ले चुकी थी। गुटनिरपेक्षआंदोलन के जरिये भारत का ऐलान था कि हमारी प्रतिबद्धता केवल हमारी अपनी आजादी के प्रति नहीं बल्कि अफ्रीका की आजादी के प्रति भी है, तमाम विकासशील देशों से गरीबी मिटाने की है, अविकसित देशों के विकास और संप्रभु राष्ट्रों के फैसलों की स्वायत्तता के प्रति भी है। मानना होगा कि हमारी आकांक्षाएं काफी ऊंची थीं, लेकिन हमारे फैसलों में मुश्किल व्यावहारिक बाध्यताओं की झलक भी थी। तिब्बत, पोलैंड, कंबोडिया और अफगानिस्तान के मामलों में फैसला लेना मुश्किल था, लेकिन कुछ मशक्कत के बाद हम संतुलित और निष्पक्ष नीति तैयार कर सके। चीन के साथ 1945 में हुई संधि में भारत ने पंचशील यानी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों का ख्याल रखा।
ऐसे लोग जो आज भी इस भ्रम में जी रहे हैं कि नेहरू काल में भारत ने दुनिया और अपने पड़ोसियों पर अपना वर्चस्व कायम करने का मौका सायास छोड़ दिया, उन्हें जानना चाहिए कि वे दूरदर्शी फैसले न तो शक्तिशाली देशों के डर से लिए जा रहे थे और न ही उनका पक्ष लेने के लिए, बल्कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान दुनिया में हमारे प्रति जो धारणा बनी, उसे जान-बूझकर हमारी विदेश नीति में समाहित किया गया और ये फैसले उसी के अनुरूप थे। वैसे भी, तब हमारे सामने नाटो और सिएटो के मॉडल थे, जिन्हें हमने बड़े सोच-विचार के बाद खारिज किया और मिस्र के कर्नल नासिर और यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की राह पकड़ी।
आजादी के पहले ही हमने तुर्की के आंदोलन (खिलाफत आंदोलन) और फलस्तीन को समर्थन देने का फैसला किया। इन दोनों ही स्थितियों में हमने धर्मनिरपेक्ष कलेवर से मुस्लिम सरोकार को समर्थन दिया। इन सरोकारों के लिए न केवल मुसलमान बल्कि सभी भारतीय खुलकर सामने आए। कुछ ऐसा ही देखने को मिला जब भारतीयों ने धर्म के खांचे से बाहर निकलकर अमेरिका का विरोध कर रहे सद्दाम हुसैन का समर्थन किया।
प्रधानमंत्री मोदी इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि उन्होंने दोस्ती के अवरोधों को गिराकर इजरायल से वाहवाही पाई, यूएई से सर्वोच्च सम्मान पाया। निश्चित रूप से अरब देशों की राजनीति ने हमें वो जगह दी कि दोनों खेमों को खुश करते हुए चला जाए, लेकिन फलस्तीन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को लेकर भारत झेंप की स्थिति में है। जबकि गुजरते वक्त के साथ अमेरिका तक ने फलस्तीनियों के सरोकारों के प्रति बेहतर प्रतिबद्धता दिखाई है। हां, ट्रंप के बारे में जरूर कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
यह सही है कि मौजूदा समय में हम किसी तरह से संतुलन बना पा रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे हमारे लिए यह बाजीगरी मुश्किल होती जाएगी। संयुक्त राष्ट्र में आने वाले प्रस्तावों में फलस्तीन का पक्ष लेने के अपने दृढ़ संकल्प से हम पहले ही मुंह फेर चुके हैं और संभवतः यह सब जानकार राजनयिकों की सलाह को ताक पर रखकर किया गया।
इन सबके बीच राष्ट्रपति ट्रंप बीच-बीच में भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की पेशकश से हमारे लिए असहज स्थिति पैदा कर देते हैं और फिर द्विपक्षीय बातचीत की बात कर बैठते हैं। इसके साथ ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि भारत को (पाकिस्तान के साथ) और अधिक सक्रिय होना होगा जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि अमेरिकी फौज की वापसी के बाद अफगानिस्तान तालिबान के हाथों में न पड़ जाए।
तो क्या मान लिया जाए कि भारत के लिए पंचशील अब अतीत की बात हो गई है? क्या स्वायत्त तरीके से फैसले लेने की अपनी ताकत हमने गले मिलने के बदले कुर्बान कर दी है? श्रीलंका और मालदीव में हमने सैन्य हस्तक्षेप तब किया जब उन देशों ने अनुरोध किया और हमने कभी ऐसा किसी तीसरे देश के कहने पर नहीं किया। जिस तरह इस देश में दूरगामी परिणाम वाले फैसले लिए गए, वैसे ही इस संदर्भ में भी अचानक बड़े बदलाव होने जा रहे हैं? हमने परमाणु हथियारों के पहले इस्तेमाल न करने की अपनी उस नीति की समीक्षा की बात करनी शुरू कर ही दी है, जिसने हमें दुनिया में एक खास जगह दिलाई।
भारत ने खुद को इसलिए मजबूत बनाया कि एक पड़ोसी ने हमें शिद्दत से नीचा दिखाया और दूसरा इस उम्मीद में परेशानियां खड़ी करता रहा कि हम अपने नैतिक और रणनीतिक जगह को छोड़ने के लिए बाध्य हो जाएं। हमने यह सोचकर सैन्य क्षमता नहीं बढ़ाई कि दुनिया के किसी कोने में अपनी बात मनवाने के लिए इसका इस्तेमाल करें। अचानक ऐसा लगने लगा है कि एक सिद्धांतवादी और सह-अस्तित्व वादी देश के रूप में भारत की जो पहचान लंबे अरसे से थी, उसकी जगह सैन्य हस्तक्षेप करने वाली एक ताकत लेने जा रही है। यह कहना मुश्किल है कि देश इस रणनीतिक बदलाव को आसानी से पचा पाएगा या नहीं और क्या अपनी सीमाओं के बाहर जाकर सैन्य ताकत आजमाने का नतीजा वैसी दिक्कतों में नहीं होगा, जिससे दुनिया के तमाम देश दो-चार हो रहे हैं?
एक और बात है जिस पर हम बात नहीं करते। वह है चीन। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि इस मोर्चे पर सबकुछ ठीक नहीं। भारत-चीन के रिश्तों को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली कारक है अर्थव्यवस्था, लेकिन यह जल्दबाजी ही होगी अगर पाकिस्तान के लिए हर मौसम के दोस्त के तौर पर हम चीन की भूमिका को नजरअंदाज कर दें। हाल-फिलहाल में अमेरिका के खिलाफ मोर्चेबंदी में चीन को जिस तरह रूस से समर्थन मिल रहा है, उससे हमारे लिए भविष्य की दिशा तय करने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। क्या हमारी सोच यह है कि कुछ समय के लिए एक से दोस्ती हो, कुछ समय के लिए किसी और से, लेकिन हमेशा के लिए किसी से दोस्ती न हो?
हमारे पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि आतंकवाद के खतरे के खिलाफ लड़ाई के प्रति पूरी दुनिया दृढ़प्रतिज्ञ है। जब तक हम पीड़ित थे, किसी ने हमारी नहीं सुनी। जैसे ही दूसरे भी पीड़ित होने लगे, सब कुछ बदल गया। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वैश्विक राजनीति का पेंडुलम बड़ी तेजी से घूमता है। अगर हमारी नीति आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई और मानवाधिकार के बीच के नाजुक संतुलन को नजरअंदाज नहीं करने की है तो हमें इससे जुड़े सभी आयामों पर नजर डालनी होगी।
अगर मानवाधिकार के पैरोकार फिलहाल आतंकवाद विरोधी कार्रवाई की हिमायती ताकतों के सामने निस्तेज पड़े हैं, तो हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह स्थिति अनिश्चितकाल तक हमारे पक्ष में ऐसी ही बनी रहेगी। अभी स्थितियां हमारे पक्ष में हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे अहाते में ही चिंगारी सुलग रही है। इससे निपटने के लिए पहले हमें अपने घर को आर्थिक और राजनीतिक तरीके से दुरुस्त करना होगा। हम जानते हैं कि दानव बुरे हैं लेकिन यह भी सच्चाई है कि जहां देवता जाने से भी कतराते हैं, मूर्ख उस ओर दौड़ जाते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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