वे भारत को फासीवादी हिंदुत्व राष्ट्र बनाना चाहते हैं, इसीलिए असहमति की जगहों पर हो रहे हमले
देश में कभी ऐसा नहीं हुआ कि लोकतांत्रिक बहस के लिए जगह न हो, लेकिन अब मोदी सरकार में ऐसा माहौल नहीं रहा। असल में ये सरकार दलितों, आदिवासियों और गरीबों की पहुंच से शिक्षा को बाहर करना चाहती है।
व्यापक संदर्भों में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) पर हमला तार्किक सोच पर हमला है। सरकार चाहती है कि सत्तारूढ़ पार्टी या उसकी विचारधारा या सरकार के कामकाज के तरीके के खिलाफ किसी भी तरह के विमर्श या आलोचना का मुंह बंद कर दिया जाए। आज जरूर जेएनयू पर हमला हुआ है लेकिन यह जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, जाधवपुर यूनिवर्सिटी और हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में हुए हमलों की पृष्ठभूमि में हुआ है। ये सभी संस्थान निशाने पर हैं।
दूसरा मुद्दा यह है कि पूरा खेल शिक्षा के निजीकरण का है और इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि इन सबसे फायदा किसे होगा। यह मामला कुछ लोगों के मुनाफा कमाने का ही नहीं है बल्कि समस्या तो यह है कि इससे शिक्षा आम लोगों की पहुंच से बाहर हो जाएगी। संस्थानों में आज जो भी आरक्षण है, खत्म हो जाएगा। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित दलित, कमजोर आय वर्ग के लोग और आदिवासी होंगे। और वे यही चाहते हैं।
उनका एक वैचारिक उद्देश्य है जिसे हिंदू राष्ट्र कहा जाता है, आज यह हिंदुत्व राष्ट्र हो गया है। वे अपने हिंदुत्व राष्ट्र के साथ भारतीय संविधान और भारत सरकार के स्वरूप को भी बदलना चाहते हैं। आज की सारी स्थितियां उसी दिशा में बढ़ रही हैं। हमारे समय राजनीति में ऐसी कड़वाहट नहीं थी। हमारी पीढ़ी ने लोकतंत्र के लिए कई बड़ी लड़ाइयां लड़ीं और सत्ता की चुनौतियों का सामना किया। भले ही उस वक्त माहौल सख्त, कड़वा था और तब असामाजिक तत्व भी थे, लेकिन फिर भी, लोकतांत्रिक विमर्श के लिए जगह थी। आज वह स्थिति नहीं रही। यही सबसे बड़ा अंतर है। विपरीत राजनीतिक स्थितियां होने पर भी हमने जेएनयू में हड़तालें कीं और अपने शिक्षकों को भी हमें समर्थन देने के लिए समझाया-बुझाया।
हकीकत तो यह है कि मेरी राजनीतिक संबद्धता के कारण मेरी सुपरवाइजर- कृष्णा भारद्वाज, जो स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज की डीन भी थीं, को सीधे तौर पर बता दिया गया था कि वह मेरे यूजीसी नेशनल स्कॉलरशिप के कागजात पर दस्तखत नहीं करें। उस समय स्कॉलरशिप पेपर पर हर महीने दस्तखत किया जाता था। कृष्णा भारद्वाज ने यह कहते हुए वह निर्देश नहीं माना कि उनका काम छात्रों के शैक्षणिक कार्यों की चिंता करना है, उनकी राजनीतिक संबद्धता के बारे में सोचना उनका काम नहीं। इस तरह वह मेरे स्कॉलरशिप पेपर पर दस्तखत करती रहीं। और उन पर सरकार का दवाब भी नहीं पड़ा।
छात्रों के गुटों में जो भी विवाद होता हो, इससे पहले कभी हालात इस हद तक नहीं बिगड़े। हमारे समय में भी कड़ी प्रतिद्वंद्विता होती थी। मुझे ही 10 महीने में तीन बार चुनाव का सामना करना पड़ा। लेकिन कभी इस तरह की हिंसा नहीं हुई। अप्रैल, 1977 में मैं जेएनयू छात्रसंघ का अध्यक्ष चुना गया। स्टूडेंट बॉडी इलेक्शन अक्तूबर में हुआ करता था और उसमें मैं दोबारा निर्वाचित हुआ। उसके बाद एक बड़ा आंदोलन इस बात को लेकर हुआ कि पिछले दो साल के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच हो और इस वजह से यूनिवर्सिटी एक माह तक बंद रही।
उस दौरान चूंकि वाइस चांसलर को यूनिवर्सिटी में घुसने नहीं दिया जा रहा था, हमने यूनिवर्सिटी और मेस का कामकाज खुद चलाया। हमने कुछ प्रोफेसरों से अनुरोध किया कि वे क्लासेज लें। उस दौरान लॉन में क्लासेज लगती थीं। मेस के लिए आम लोगों से पैसे इकट्ठे करने के लिए हम ‘यूनिवर्सिटी इज ओपन, वीसी इज ऑन स्ट्राइक’ नारे लिखी तख्तियां लेकर घूमते थे। यह नारा मैंने ही दिया था। जब स्ट्राइक खत्म हुई तो छात्रों ने कहा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन के साथ संयुक्त बयान जारी करके मैंने गलती की, क्योंकि यह यूनियन आरएसएस चला रहा था। जनरल बॉडी की वोटिंग में मैं हार गया और मुझे इस्तीफा देना पड़ा।
यह दिसंबर में हुआ और उसके तुरंत बाद सर्दी की छुट्टियां हो गईं। छुट्टियों के बाद फिर चुनाव हुआ और मैं फिर जीत गया। यह मेरे लिए गर्व का एक बड़ा मौका था। दस माह में मेरे तीन बार चुनाव का सामना करने के दौरान तमाम कड़वे क्षण आए लेकिन हिंसा कभी नहीं हुई। शिक्षकों के साथ मारपीट जेएनयू में कभी नहीं हुई। मैं जेएनयू की राजनीति से जुड़ा रहा हूं और मेरे जैसे तमाम लोग हैं लेकिन कड़वी प्रतिद्वंद्विता के दौरान भी स्थिति कभी सीमा से बाहर नहीं हुई, किसी शिक्षक या किसी और पर हमला नहीं हुआ।
अब वैसा माहौल नहीं क्योंकि इस सरकार का समर्थन करने वालों का संविधान में भरोसा नहीं। उन्होंने भारत में हिंदुत्व राष्ट्र की फासीवादी अवधारणा को जमीन पर उतारने का बीड़ा उठा रखा है। इसी उद्देश्य के मद्देनजर असहमति की जगहों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं। पांच घंटों तक जेएनयू के वीसी कुछ नहीं करते, जब हथियारबंद लोग हमला करते हैं तो वीसी पुलिस को स्थिति को सामान्य बनाने के लिए नहीं बुलाते। जेएनयू में जो कुछ भी हुआ, वीसी की चुप्पी उन्हें भी इसका गुनाहगार बनाती है। जेएनयू प्रशासन ट्वीट करता है कि सशस्त्र बाहरी लोग कैंपस में घुसे, उन्होंने तोड़फोड़ की, छात्रों और शिक्षकों के साथ मारपीट की।
लेकिन यह ट्वीट वापस ले लिया जाता है और उसके बाद एक बड़ा बयान जारी किया जाता है। यह बताने की कोशिश की जाती है कि कैंपस के भीतर छात्रों के दो गुटों की लड़ाई थी। वे यही बात फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन सच, सच है और कोई भी व्यक्ति सोशल मीडिया से इसे जान सकता है। वाट्सएप ग्रुप पर हुई बातचीत बता रही है कि हमलावर बाहरी थे। एक खास गेट से वे कैसे घुसे, इसमें किसने उनकी मदद की, इसका अंदाजा उन नारों से लगाया जा सकता है जो वहां बुलंद किए जा रहे थे। निःसंदेह यह एक सुनियोजित हमला था और यह केवल शिक्षा पर नहीं बल्कि सरोकार, तार्किकता और लोकतंत्र पर हमला है। इस हमले को छात्र-गुटों की लड़ाई के तौर पर पेश करना सरासर गलत है।
मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि भारतीय संविधान और इसकी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक बुनियाद के प्रति इस पीढ़ी के छात्रों की प्रतिबद्धता निश्चित ही बड़ी खुशी की बात है। इन आंदोलनों के दौरान उनकी यह प्रतिबद्धता उभरकर सामने आई है। आज के संदर्भ में यह एक सकारात्मक बात है और इसी में देश का भविष्य है।
छात्रों का राजनीतिकरण पहले ही शुरू हो चुका है। हमारी सभी नीतियां तभी बनीं जब हम छात्र थे। विरोध प्रदर्शन परिपक्व हो रहा है। मैं ठीक-ठीक तो नहीं बता सकता लेकिन इस प्रदर्शन में ऐसे तमाम लोग भी शामिल हो रहे हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी को वोट दिया। ऐसे लोग खुद अपनी बात कहेंगे। वे महसूस कर रहे हैं कि उन्होंने तो यह सोचकर इस सरकार को वोट दिया कि यह भारत के लिए अच्छा रहेगा, लेकिन अब उन्हें अपनी गलती का अहसास हो रहा है। उनके अपने बच्चे पीटे जा रहे हैं। जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष आयशी घोष की मां कहती हैं कि वह अपनी बेटी का समर्थन करती हैं।
ये सभी मध्य आय वर्ग के परिवारों से हैं और इस तबके में भी जागरूकता आ रही है। ये परिवार रोज-रोज का संघर्ष झेल रहे हैं। आज लोग बिना प्याज बिरयानी खा रहे हैं। कभी इसके बारे में सोचना भी मुश्किल था, लेकिन जीवन इस स्तर तक नीचे गिर गया है। खैर, यह याद रखना चाहिए कि एक आंदोलन ऐसे ही खड़ा होता है। इसकी गति के अपने नियम होते हैं और इसकी दशा-दिशा पांच साल के कार्यकाल से तय नहीं होती। यह आकार ले रहा है, परिपक्व हो रहा है। जल्द ही इसका एक केंद्र बिंदु भी उभरेगा।
(लेखक सीपीएम के महासचिव और जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। यह लेख ऐशलिन मैथ्यू से बातचीत पर आधारित)
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