तुषार गांधी का लेख: पहले बापू को मारा, अब उनकी विरासत को खत्म करने पर तुले हैं हिंदुत्ववादी
बापू के खिलाफ नफरत का अभियान आज भी जारी है।। उन्होंने 75 साल पहले बापू की हत्या की और तब से उन्होंने उनकी विरासत की हत्या में कोई कसर नहीं छोड़ी है
स्वतंत्रता से एक सप्ताह पहले अगस्त, 1947 में मोहनदास गांधी ने लिखा था: 'अगर मैं अकेला भी पड़ जाऊं तो भी मेरे भरोसे का दीपक प्रज्ज्वलित रहेगा और जब तक मुझमें उम्मीद जिंदा रहेगी, मैं कब्र के भीतर भी जिंदा रहूंगा।' आजादी के महज छह महीने के भीतर 30 जनवरी, 1948 की शाम को बापू की हत्या कर दी गई। बेशक गोडसे की गोलियों से बापू की मौत हुई लेकिन वह केवल एक ‘हिटमैन’ था। वह हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सक्रिय सदस्य था और उसने इस काम को अपने गुरु सावरकर के आदेश पर अंजाम दिया। जैसा कि इन संगठनों की कायरतापूर्ण प्रथा है, वे लोगों का इस्तेमाल कर उनकी ओर से मुंह फेर लेते हैं। बापू की हत्या के बाद उन्होंने नाथूराम गोडसे के साथ भी ऐसा ही किया। वे बापू की हत्या कराने में तो सफल रहे लेकिन उनकी बेचैनी इस कारण है कि इसके बावजूद महात्मा की विरासत अब भी जिंदा है।
यही वजह है कि गांधी के हत्यारों ने उनके खिलाफ दुर्भावनापूर्ण दुष्प्रचार अभियान चला रखा है। चरित्र हनन, झूठ और आधे सच का अभियान। उन्होंने अदालत में गोडसे के बयान के साथ इस अभियान की शुरुआत की थी। उसके बाद लाल किले के मुकदमे में और फिर पंजाब उच्च न्यायालय में की गई अपील में इस नृशंस कार्य को सही ठहराने का भावुक प्रयास किया। गोडसे के उस बयान की संघियों को सख्त जरूरत थी और उन्होंने अपने मजबूत भूमिगत नेटवर्क के माध्यम से इसे खूब प्रसारित किया। उनके संगठन और दुर्भाग्य से नाथूराम के बयान पर भारत सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया, इससे दोनों को वैधता हासिल करने में मदद मिली।
यह समझना चाहिए कि नाथूराम का बयान ‘काम पूरा’ होने के बाद अच्छी तरह सोच- विचार के बाद लिखा गया था। इस जघन्य हत्याकांड के मुख्य रणनीतिकार और आरोपी सावरकर को लगा होगा कि सार्वजनिक मुकदमे ने उन्हें अपने मन की बात कहने का अनूठा मौका दे दिया है। फिर, गुरु और शिष्य ने इसका फायदा उठा लिया। चूंकि अदालत में मीडिया को मौजूद रहने की इजाजत थी और एक कैमरा क्रू ने पूरी अदालती कार्यवाही को फिल्माया था, इस केस की रोजाना की कार्यवाही को पूरे विस्तार से मीडिया में कवर किया जा रहा था। नाथूराम के बयान के मामले में भी ऐसा ही हुआ और नाथूराम ने इसका पूरा फायदा उठाया। अदालत में दिए गोडसे के बयान की शैली जोरदार, अपमानजनक और धमकी देने वाली थी। गोडसे की भाषा पर वैसी पकड़ नहीं थी लेकिन उसके गुरु सावरकर में ही इस तरह की भाषाई काबलियत थी। इसलिए गोडसे ने जो अदालत में कहा, उसे सावरकर ने तैयार किया होगा।
फिल्माया गया वह बयान पूरे देश में हिट हो गया। तब सरकार जागी और इसे प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन इससे इसे अधिक विश्वसनीयता और लोकप्रियता हासिल करने में मदद मिली। अब सोशल मीडिया, राजनीतिक आईटी सेल, गोदी मीडिया, सरकारी संरक्षण और ओटीटी प्लेटफॉर्म के युग में उनके पास खुलकर अपने दुष्प्रचार को फैलाने का मौका है।
हालांकि बापू के खिलाफ नफरती अभियान जिसकी वजह से आखिरकार उनकी हत्या हुई, 1944 के बाद ही शुरू हुआ था। बापू ने 1920 के दशक के अंत में जब जातीय उत्पीड़न और अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन शुरू किया, ठीक उसके बाद से। बापू पर पहला दर्ज हमला 1934 में पूना में हुआ जब एक समारोह में जाते समय उनकी कार पर हथगोला फेंका गया था। तब वे ‘निम्न जातियों' और ‘अछूतों' के लिए मंदिर और गांव के कुएं खुलवाने के लिए गए थे जिससे सवर्ण हिन्दुओं में गुस्सा था। हथगोला कार के बोनट से टकराया और बीच सड़क पर फट गया जिससे कुछ लोग घायल हो गए। इस हमले के लिए जिन लोगों की पहचान हुई, उनमें से ज्यादातर की पहचान सवर्ण जातियों से थे, उनमें भी पूना और नागपुर के बहुसंख्यक ब्राह्मण अधिक थे। इन ब्राह्मणों को उन्हें शासक राजकुमारों और उनके दरबार का संरक्षण और संरक्षण प्राप्त था।
नाथूराम पहले भी कई बार गांधीजी पर हमले का प्रयास कर चुका था। पंचगनी में हुए हमले में नाथूराम पकड़ा गया और सेवाग्राम आश्रम में हाथ में 'जंभिया' चाकू लेकर बापू पर हमला करने के लिए दौड़ते हुए उसे एक बार फिर पकड़ा गया। इन्हीं लोगों ने करजत से आगे 'गांधी स्पेशल' ट्रेन को पटरी से उतारने के लिए पटरियों को तोड़ दिया। बापू ने शाम की प्रार्थना सभा में इसका उल्लेख किया और विनोदी अंदाज में कहा- ‘मैं उन लोगों को बताना चाहता हूं जो मेरे जीवन पर इतने हमले कर रहे हैं, वे असफल ही होंगे क्योंकि मैं एक सौ पच्चीस साल जीने जा रहा हूं!’ कुछ दिनों बादहिन्दूमहासभा द्वारा आयोजित एक जनसभा में नाथूराम ने कहा- 'गांधी कहते हैं कि वह एक सौ पच्चीस साल जीने वाले हैं। लेकिन कौन उन्हें इतना लंबा जीने देगा!' बापू के प्रति ऐसी दुश्मनी थी और वह उनकी हत्या के बाद भी बरकरार है। कभी 'मैं नाथूराम गोडसे बोलतोय' तो कभी 'मैंने गांधी को क्यों मारा' में नाथूराम अपने कृत्य को सही ठहराता है।
आम धारणा के विपरीत, बापू की हत्या एक अकेले कट्टरपंथी द्वारा की गई घटना नहीं थी। यह एक सुनियोजित साजिश थी। हत्या से पहले एक साल तक तैयारी की गई थी, कई टीमों को प्रशिक्षण दिया गया था और वे हथियारों से लैस थीं। ऐसे दो हथियार प्रशिक्षण शिविरों के बारे में तब की आईबी रिपोर्ट में उल्लेख मिलता है- एक अलवर में और दूसरा ग्वालियर में।
बापू की हत्या के बाद उनकी आवाज को दबाने और उनकी विरासत की भी हत्या का अभियान शुरू हुआ। शुरू में वे सफल नहीं हो सके लेकिन 90 के दशक के बाद कट्टरपंथी सोच को जगह बनाने में कामयाबी मिली और 2014 के बाद तो उन्हें सरकार से संरक्षण मिलना भी शुरू हो गया। जब भोपाल से सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने नाथूराम गोडसे की तारीफ की और बापू का मखौल उड़ाया तो प्रधानमंत्री ने बड़ा ही भावुक बयान दिया और दिखावटी आंसू भी बहाए। लेकिन वह तो बड़े आराम से उसी सदन में बैठे रहते हैं जहां उनके पीछे उनकी पार्टी की निर्वाचित सदस्य के रूप में प्रज्ञा ठाकुर बैठती हैं।
अब एक महीने से अधिक हो गया है जब हरिद्वार और फिर छत्तीसगढ़ में बापू को बुरा- भला बोला गया लेकिन पीएम के कानों तक बात नहीं पहुंची। अगर यह वक्त उनकी किसी विदेश यात्रा का होता, तो हो सकता है कि उनके आंसू बड़े ही उपयुक्त तरीके से उनकी आंखों से लुढ़कते और उनके ‘प्रशिक्षित’ फोटोग्राफरों के कैमरे में कैद भी हो जाते। लेकिन फिलहाल तो उनका दिल पत्थर-सा हो गया है।
वे जिस तरह बापू की उपासना करते हैं, उसमें हमेशा पाखंड रहा और यह पाखंड काफी हद तक ईमानदारी के साथ रहा। लेकिन अब तो यह विशुद्ध रूप से एक 'तमाशा' हो गया है। जो स्थायी है, वह है बापू के खिलाफ नफरत का अभियान। उन्होंने 75 साल पहले बापू की हत्या की और तब से उन्होंने उनकी विरासत की हत्या में कोई कसर नहीं छोड़ी है
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