यूं ही नहीं निकला जिन्ना की तस्वीर का जिन्न, ये हिंदुत्ववादी राजनीति का माहौल तैयार करने की विधियां हैं

हिन्दुत्वादी हर एक चीज को हिन्दू बनाम ईसाई, मुस्लिम और कम्युनिस्ट में विभाजित करने की कोशिश करते है। बिरयानी मुस्लिम हो जाती है और हरा रंग भी मुसलमान। और तो और गिरगिट हिन्दू है और मकड़ी मुस्लिम

फोटो : सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

भारत और पाकिस्तान के रुप में इंडिया के बंटवारे से पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्र संघ के दफ्तर में लगी जिन्नाह की तस्वीर पर हिन्दूत्ववादी एतराज जाहिर कर रहे हैं। उससे पहले एक वाक्या सामने आया कि एक टैक्सी को किराये पर लेने वाले एक हिन्दुत्वादी ने उस टैक्सी में सफर करने से महज इसीलिए इनकार कर दिया कि उस टैक्सी का ड्राइवर मुसलमान था। उससे पहले एक समाचार पत्र ने बहस चलाई जिसमें कई ने ये फरमाया कि मुसलमान बुर्का टोपी पहने एक जगह एक साथ जमा हो जाते है तो उससे हिन्दुओं को हिन्दुत्व की तरफ मोड़ने में हिन्दुत्ववादियों को कामयाबी मिल जाती है।

जब कभी कोई घटना घटती है तो हम उस पर बहस करने लगते हैं। घटनाओं पर बहस का कोई अंत नहीं। एक सूची तैयार करें कि किन किन बातों को लेकर पिछले सौ वर्षो में यह कोशिश की गई है कि समाज में हिन्दू का और मुसलमान, ईसाई विरोध का दिमाग तैयार किया जाए। घटनाएं खत्म नहीं होंगी, क्योंकि यह विचारधारा बनी हुई है कि राजनीति का हिन्दूकरण करना होगा और हिन्दूओं का सैन्यकरण। इसके साथ यह भी जोड़ा गया है कि देश में खतरा आंतरिक है और ईसाई, मुस्लिम और कम्युनिस्ट ही आंतरिक दुश्मन है। इस नारे के तहत ही हिन्दुत्वादी हर एक चीज को हिन्दू बनाम ईसाई, मुस्लिम और कम्युनिस्ट के रुप में विभाजित करने की कोशिश करते है। हरेक चीज का मतलब हरेक चीज। बिरयानी को मुस्लिम करार दिया गया। हरे रंग को मुस्लिम करार दिया गया और तो और गिरगिट को हिन्दू और मकड़ी को मुस्लिम करार दिया गया।

उत्तर प्रदेश के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के नाम के पहले अक्षर को मिलाकर ‘कसाब’ बना दिया गया, तो गुजरात में चुनाव के दौरान हार्दिक पटेल, अलपेश ठाकुर और जिग्नेश मेवाणी के नाम के पहले अक्षरों को मिलाकर ‘हज’ बना दिया गया। माहौल में जो राजनीतिक प्रतिद्धंदी है उन्हें आतंरिक दुश्मन की छवि में पेश करना हिन्दुत्ववादी राजनीति का अहम उद्देश्य होता है। छत्तीसगढ़ में वह ईसाई के रुप में होता है तो दूसरे हिस्से में मुसलमान के रुप में। बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट , ईसाई, मुसलमान को एक साथ मिला दिया जाता है।

मैं 1971 में लौटना चाहता हूं। मैं छोटी उम्र का था और हर बच्चे की तरह अपने आसपास के जीवों, जन्तुओं से बेहद प्यार करता था। मुहल्ले के कुत्ते उतने ही प्यारे थे, जितनी कि पड़ोस में रहने वाली बड़की माई की बिल्ली के साथ खेलता था। कुत्ते के बच्चे जब पैदा होते थे तो अपनी मां से गरम गरम तेल में बना हलवा बनवाकर उस कुतिया को हम खिलाते थे। लेकिन अनाचक एक दिन स्कूल से हमें दो तीन किलोमीटर दूर एक लंबे जुलूस में रेलवे मैदान में ले जाया गया और हम नारे लगा रहे थे, याहिया खान की तीन दवाई , लत्तम, जूतम और पिटाई। हमने याहिया खान का पुतला जलाया और पाकिस्तान को बांटकर बांग्ला देश बनने का स्वागत किया और सैनिकों के वीर रस की गाथाएं सुनी।

लेकिन, इसी बीच हमारे आसपास एक कहानी घुस गई। हमें बताया गया कि मकड़ी मुसलमान होती है और गिरगिट हिन्दू होता है। इस को इस तरह से पुष्ट किया गया कि बांग्लादेश में जब हिन्दुस्तानी सेना (कहानी में भारत नहीं कहा गया) पाकिस्तानी सेनाओं का पीछा कर रही थी, तब पाकिस्तानी सैनिक भागते भागते अचानक अदृश्य हो गए। पीछा करते हिन्दुस्तान के सैनिकों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक पाकिस्तानी सैनिक कैसे गायब हो गए। हुआ यह था कि पाकिस्तानी सैनिक भागते भागते एक गड्डे के पास पहुंचे और उसमें कूद गए। उनके कूदने के बाद मकड़ी ने उस गड़्डे के ऊपर जाला बना दिया। जब हिन्दुस्तानी सैनिक वहां पहुंचे तो उन्होने समझा कि पाकिस्तानी सैनिक इस गड्डे में तो कूद नहीं सकते क्योंकि उपर मकड़ी का जाला लगा हुआ है। लेकिन तभी वहां मौजूद एक गिरगिट ने अपनी गर्दन हिलाकर हिन्दुस्तानी सैनिकों को यह इशारा किया कि पाकिस्तानी सैनिक इसी गड्डे में छिपे हुए हैं। तब हिन्दुस्तानी सैनिकों ने उस जाले को काटकर पाकिस्तानी सैनिकों को बाहर निकाला और उन्हें मार डाला।

इस कहानी ने मकड़ी और गिरगिट के बहाने न केवल हमारे दिमाग में हिन्दू और मुसलमान की एक दीवार खड़ी कर दी बल्कि हिन्दू होने और मुसलमानों के खिलाफ एक घृणा की मानसिकता का बीज रोप दिया। हमने उसके बाद मकड़ियों को मारने की हिंसक कारर्वाईयां शुरु कर दीं। हमारे हाथों में संघ का डंडा तो नहीं होता था, लेकिन उस डंडे की तरफ आकर्षण पैदा कर दिया। तौकीर के साथ पहले एक दोस्त की तरह लड़ाई होती थी ।बाद में मैं हिन्दू की तरह लड़ने लगा और तौकीर को मुसलमान होने की गालियां निकालने लगा। फिर न जाने मेरे बचपन के साम्प्रदायिक हमले और दंगे की कितनी कहानियां है। वह एक अलग किताब का विषय है। .

जब थोड़ा बड़ा हुआ तो ईद और दूसरे मुस्लिम त्यौहार के दिन यह बात खासतौर से प्रचारित की जाती थी कि आज के दिन सरकारी नल में पानी देर तक मिलेगा और बिजली भी नहीं जाएगी। तीसरे तरह की बात यह भी बताई गई कि शहर में पाकिस्तानी मुहल्ले कितने हैं और उस तरफ रात को जाना खतरे से खाली नहीं । साथ ही सवर्णों के मुहल्ले को आजाद हिन्दुस्तान कहा जाता था, जिस मुहल्ले का नाम गोरक्षणी था। उस मुहल्ले में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं थे। ईसाईयों के ब्रिटिशकालीन कब्रगाह थे, जिसके इर्द गिर्द यह मुहल्ला बसा हुआ था।

हिन्दुत्वकरण की राजनीतिक प्रक्रिया में टोपी और बुर्का या तीन तलाक अब ज्यादा मुखर हुआ है। आजादी से पहले गाय और अंतरधार्मिक विवाहों जैसी घटनाओं को हिन्दुत्वकरण का माध्यम बनाया जाता था। हमें जब पाकिस्तानी सैनिकों के खिलाफ हिन्दुस्तानी सैनिकों की कामयाबी की कहानी सुनाई गई थी, तो वह हमें एक साथ मुस्लिम विरोधी राष्ट्रवादी हिन्दुत्ववादी सैनिक बनाने की ही प्रक्रिया का हिस्सा थी।

मुसलमानों की हालत इस देश में बुर्का और टोपी पहनने के कारण नहीं हुई है। जो लोग राजस्थान की महिलाओं के जीवन के अनुभवों से वाकिफ है वे कह सकते हैं कि बुर्का केवल काले रंग का नहीं होता है और उसका डिजाईन केवल वहीं तक सीमित नहीं है जो शहरों और मुहल्लों में मुस्लिम महिलाएं पहनी दिखती है। मैं पिछले दिनों बीकानेर में अपने विद्यार्थी की छोटी बहन की शादी में गया था। वहां हिन्दू बुर्के की एक कहानी एक व्यक्ति ने सुनाई। उसने बताया कि उसके परिवार में एक महिला रसोई घर में घूंघट में बैठी थी और उसकी पीठ के सामने उनके श्वसूर बैठे खाना खा रहे थे। उस महिला को बिच्छू ने पांव पर काटा लेकिन वह महिला टस से मस नहीं हुई। यदि वह खड़े होकर अपने कपड़े झाड़ती और चिल्लाती तो यह घर की हिन्दू संस्कृति का अपमान होता।

बुर्का भी एक बहाना है। बुर्के को पिछड़ेपन का कारण मानकर उसे पिछड़ेपन से निकालने की चिंता यहां नहीं होती है। बल्कि समाज में एक साम्प्रदायिक दिमाग तैयार करने के लिए उसका इस्तेमाल किया जाता है।

एत हिन्दूत्ववादी ने बताया कि वे अपने लिए मुद्दे कैसे भी बना लेते हैं। सफेद कूर्ते, पैजामे के साथ टोपी पहनकर जब ईद व दूसरे त्यौहारों पर धर्म निरपेक्ष पार्टियों के नेता मुसलमानों के साथा रोजा इफ्तार के लिए जाते हैं, तो हम हिन्दूओं के सामने ये सवाल खड़े करते हैं कि क्या ये नेता दिवाली और दूसरे त्यौहारो पर हिन्दू की तरह टीका लगाकार और भगवा रंग के कपड़े पहनकर आते हैं?

असुरक्षा के बोध को आक्रमकता के खतरे के रुप में पेश करना ही साम्प्रदायिक राजनीति का सबसे बड़ा हथियार है। दरअसल धर्म को साम्प्रदायिकता की तरफ ले जाने का यह सबसे कारगर सूत्र है कि असुरक्षा को कैसे आक्रमकता में बदल दिया जाए। जब अल्पसंख्यक असुरक्षा बोध से घिरता है तो वह बचाव करने की कोशिश करता है और जब बहुसंख्यकों को असुरक्षा बोध से घेरा जाता है तो वह आक्रमकता की तरफ बढ़ता है। यह आक्रमकता ही सैन्यकरण की प्रक्रिया को पूरी करता है।

मुस्लिम एक साथ वोट देने निकलते हैं या रैलियों में दिख जाते हैं, यदि इस दृश्य को ठीक ठीक समझना हो तो भारत के गांवों में शाम के वक्त या सूर्य के उगने से पहले की घड़ी में जाकर महिलाओं को देखें। महिलाएं वहां एकजूट होकर खेतों मैदानों में शौच क्रिया के लिए जाती है। महिलाएं असुरक्षा बोध में क्या क्या करती है? उनके एक साथ बैठने की आदत या अपने लिए मैट्रो में एक सुरक्षित डिब्बे की तलाश में भी देखी जा सकती है।

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Published: 04 May 2018, 8:15 PM