आकार पटेल का लेख: दल-बदल विरोधी कानून पर फिर से विचार करने की जरूरत
दल-बदल विरोधी कानून को इसलिए उचित ठहराया गया था क्योंकि कई विधायकों ने मंत्रालयों या रुपये की पेशकश के कारण अपना दल बदला था। 1960 के दशक के अंत में, हरियाणा के एक कांग्रेस विधायक गया लाल ने कुछ दिनों के अंदर तीन बार अपना दल बदला था। इसने ही ‘आया राम, गया राम’ की कहावत का निर्माण किया था।
1985 में कांग्रेस के 400 से ज्यादा सीटों की भारी जीत हासिल करने के तुरंत बाद राजीव गांधी ने संसद से दल-बदल विरोधी कानून पारित कराया था। संक्षेप में इस कानून में कहा गया है: कोई भी विधायक जो किसी मतदान में अपने पार्टी नेतृत्व की अवहेलना करता है, वह दल-बदलू माना जाएगा और अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। इसका मतलब है कि एक बार जब पार्टी ने एक व्हीप जारी कर दिया (किसी विशेष मतदान के लिए अपने विधायकों को उपस्थित रहने का अनुरोध करते हुए एक लिखित नोटिस) तो वह विधायक अपनी पसंद के मुताबिक वोट नहीं दे सकता, बल्कि उसे पार्टी के आदेश के अनुसार वोट करना होगा। यहां तक कि अगर विधायक मतदान से अनुपस्थित भी हो जाता है, तो भी उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है। जरूरी नहीं है कि यह मतदान किसी सरकार का विश्वास मत हो। यह दलबदल कानून पार्टी द्वारा तय किये गए किसी भी मतदान के लिए कानून लागू किया जा सकता है।
वास्तव में सभी विधायकों में से एक तिहाई के अपने पार्टी के खिलाफ वोट करने की स्थिति में यह कानून ऐसे विधायकों की रक्षा करता है। लेकिन 2004 में इस पहलू को भी निकाल दिया गया। इसके लिए तर्क यह दिया गया कि एक तिहाई का कानून 'थोक' में दल-बदल को प्रोत्साहित करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2007 के एक मामले में (बहुजन समाज पार्टी में दलबदल से संबंधित राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य का मामला) कहा था कि राज्यपाल को दिये गये विपक्षी पार्टी को समर्थन करने वाले पत्र पर हस्ताक्षर करना भी दल-बदल के बराबर था। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस या जनता दल सेक्यूलर के उन सदस्यों का नाम नहीं लिया, जो कर्नाटक में उसका समर्थन कर सकते थे। अगर राज्यपाल को दिए अपने पत्र में बीएस येदियुरप्पा द्वारा उनके नाम और हस्ताक्षर जोड़े गए होते तो यह उन विधायकों के लिए घातक हो सकता था।
कर्नाटक में बीजेपी के पक्ष में बहस करने वाली केंद्र सरकार ने दावा किया कि कर्नाटक के विधायकों ने क्योंकि अभी तक शपथ नहीं लिया है, इसलिए दलबदल विरोधी कानून लागू नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह दावा "विसंगतिपूर्ण" है और "खरीद-फरोख्त को खुला निमंत्रण" है। इस कानून के कारण पिछले कुछ सालों में न्यायपालिका विधायिका के इस विशेषाधिकार पर खुद को लागू कर पाने में सक्षम हुयी है। कुछ लोगों द्वारा इसे आवश्यक माना जा सकता है लेकिन एक संसदीय लोकतंत्र में यह सही नहीं है।
पिछले कुछ दशकों में इस कानून के तहत भारत भर में 100 से अधिक विधायक और 2 दर्जन से अधिक सांसदों को अयोग्य घोषित किया जा चुका है। दूसरे महान लोकतंत्रों में भी सदस्यों द्वारा अपनी पार्टियों के व्हीप की अवहेलना करने की समस्या है, लेकिन इस समस्या का उनका समाधान या सजा हमारे यहां की तरह कठोर नहीं है। यूनाइटेड किंगडम में एक सांसद जो तीन पंक्ति वाले व्हीप (जिसका मतलब है कि एक लिखित नोटिस जिसकी तात्कालिकता को दर्शाने के लिए उसे तीन बार रेखांकित किया जाता है) की अवहेलना करता है, उसे पार्टी से निष्कासित किया जा सकता है, लेकिन उसकी सीट बरकरार रहती है। भारत के विपरीत, जहां ऐसे सदस्य पार्टी से भी निष्कासित किये जाते हैं और अपनी सदस्यता भी गंवा बैठते हैं। ऑस्ट्रेलिया में व्हीप की अवहेलना करने की सजा के तौर पर पार्टी के कुछ संसाधनों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी जाती है। अमेरिका में सदस्यों को राजनीतिक दलों से निष्कासित नहीं किया जा सकता है और इसलिए ऐसी किसी सजा का सवाल ही नहीं उठता है। भारत एकमात्र ऐसा बड़ा लोकतंत्र है जहां अपने पार्टी के निर्देशों के विरुद्ध मतदान करने का नतीजा इस तरह की कठोर कार्रवाई है।
1992 में सुप्रीम कोर्ट ने (किहोटो होलोहन बनाम जाचिल्हू का मामला) फैसला दिया था कि दल-बदल विरोधी कानून बोलने की आजादी या किसी अन्य स्वतंत्रता के खिलाफ नहीं था और संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ भी नहीं था। अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि "दल-बदल विरोधी कानून को कुछ सैद्धांतिक धारणाओं के परे राजनीतिक और व्यक्तिगत आचरण रखने की व्यावहारिक आवश्यकता को पहचानना चाहिए।"
इस बात से सहमत होना किसी के लिए जरूरी नहीं है, लेकिन अगर कोई ऐसा करता है, तो अन्य गंभीर प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। अगर कोई पार्टी चुनाव के बाद उस पार्टी के साथ गठबंधन करती है, जिसकी विचारधारा का विधायक ने विरोध किया था, तो इस स्थिति में क्या होगा? क्या उसे अपने मतदाताओं को सिर्फ इसलिए धोखा देना चाहिए क्योंकि उसके पार्टी नेतृत्व ने इस तरह का फैसला लिया है? इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है और दल-बदल विरोधी कानून इसकी अनदेखी करता है।
दल-बदल विरोधी कानून को इसलिए उचित ठहराया गया था क्योंकि उस दौरान कई विधायकों ने मंत्रालयों या रुपये की पेशकश के कारण अपना दल बदला था। 1960 के दशक के अंत में, हरियाणा के एक कांग्रेस विधायक गया लाल ने कुछ दिनों के अंदर तीन बार अपना दल बदला था। इस घटना ने ऐसे विधायकों के लिए ही 'आया राम, गया राम' की कहावत का निर्माण किया था, जिनकी वफादारी किसी भी पार्टी के प्रति नहीं थी, बल्कि वे पूरी तरह से अपने लिए राजनीति में थे।
दल-बदल विरोधी कानून इस तरह की गतिविधियों को रोकने के लिए था। और इसने बहुत हद तक ऐसा किया भी है। हालांकि, अनिवार्य रूप से नैतिकता की एक समस्या के लिए यह एक बहुत व्यापक समाधान था। अगर एक विधायक उस पार्टी की अवहेलना करता है जिसके नाम पर उसे वोट मिला था, तो निश्चित रूप से उसको सजा पार्टी को नहीं, उन मतदाताओं को देना चाहिए, जिन्होंने उसे वोट दिया था।
इस दल-बदल विरोधी कानून ने वास्तव में एक निर्वाचित प्रतिनिधि के अपने विवेक को खत्म कर दिया और इसलिए यह लोकतंत्र और संवैधानिकता को एक झटका था। इसने एजेंसी और विधायक की स्वतंत्रता को भी खत्मम कर दिया। इस कानून ने हम नागरिकों को दो सबसे महत्वपूर्ण तरीकों से विफल किया है। पहला, वह वफादारी है जो अपनी पार्टी के उलट एक विधायक का अपने मतदाताओं और उसके क्षेत्र के लोगों के प्रति होती है। और दूसरा, यह धारणा कि पार्टी हमेशा सही होती है, जो कि झूठ है। स्वतंत्र भारत का इतिहास बताता है कि कोई भी पार्टी पूर्णतः सही नहीं है और उनके नेता भी गलतियां कर सकते हैं। दल-बदल विरोधी कानून इस तरह की कार्रवाई के प्रतिरोध को भोथरा करता है।
लोकतंत्र में संसद सबसे प्रबल और सबसे शक्तिशाली मंच है। दल-बदल विरोधी कानून ने इसमें सभी प्रकार के आंतरिक असहमति का मुंह बंद कर दिया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कर्नाटक विवाद में कौन किस तरफ है, हम सभी को गंभीरता से इस कानून पर फिर से विचार करना चाहिए और इसके लाभों को स्वीकार करते हुए इससे हुए नुकसानों की जांच करनी चाहिए।
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