खरी-खरीः कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...
आज भारतीय गणतंत्र और उसके कवच भारतीय संविधान को जैसा संकट झेलना पड़ रहा है उसने देश की सदियों पुरानी और स्वतंत्रता संग्राम की कोख से उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सर्वसम्मति पर ही एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। इसमेंकोई शक नहीं संघ बड़ी तेजी से भारतीय गणतंत्र को हिंदू राष्ट्र का स्वरूप दे रहा है।
भारतीय गणतंत्र पर पिछले 70 वर्षों में पहले कभी ऐसे काले बादल नहीं मंडराए जैसे इस गणतंत्र दिवस पर छाए हुए हैं। इसका कारण भी स्पष्ट है। इससे पहले भारतीय गणतंत्र का मौलिक स्वरूप बदलने का कोई प्रयास नहीं हुआ। लेकिन संशोधित नागरिकता कानून और एनपीआर/एनआरसी के मुद्दों ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भारत वर्ष को हिंदू राष्ट्र बनाने का काम प्रारंभ कर दिया है।
ऐसा नहीं कि भारत को स्वतंत्रता के पश्चात गहरे संकट का सामना नहीं हुआ। चीनी आक्रमण, पाकिस्तानी फौज का भारत को दबाने का प्रयास, फिर पंजाब और कश्मीर में पाक द्वारा आतंकवाद की समस्या उत्पन्न करना। ये सब भीषण समस्याएं बाहरी शक्तियों ने भारत पर लादीं। स्वयं देश में कभी सूखा तो कभी बाढ़, कभी आर्थिक व्यवस्था का इस कदर चरमरा जाना कि सरकार को विदेश में सोना गिरवी रखना पड़ा या फिर 1970 के दशक में आपातकाल का लगना। यह सब आंतरिक समस्याएं थीं। जिनसे देश को जूझना पड़ा। लेकिन सौ वर्षों से अधिक समय तक चलने वाले स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात देश के स्वरूप पर जो एक सर्वसमिति बनी थी उसको कभी कहीं से किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा।
परंतु आज हम भारतीय 26 जनवरी, 2020 में जब पुनः अपने गणतंत्र की एक और वर्षगांठ बांध रहे हैं, तो भारतीय गणतंत्र और उसके कवच भारतीय संविधान को जैसा संकट झेलना पड़ रहा है उसने देश की सदियों पुरानी तथा स्वतंत्रता संग्राम की कोख से उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सर्वसम्मति पर ही एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। अब इस बात में कहीं कोई शक की गुंजाइश नहीं बची है कि संघ बड़ी तेजी से भारतीय गणतंत्र को हिंदू राष्ट्र का स्वरूप दे रहा है।
नागरिकता संशोधन कानून के जरिए धर्म को नागरिकता का मापदंड बनाकर और मुस्लिम समाज को उस मापदंड से बाहर कर मोदी सरकार ने हिंदू राष्ट्र की नींव रखकर भारतीय संविधान पर सेंध भी लगा दी है। यह सदियों पुरानी हिंदू और भारतीय सभ्यता के विपरित एक नई पहल है जिसने केवल हमारे गणतंत्र ही नहीं अपितु भारतीय एकता और अखंडता पर भी एक सवालिया निशान लगा दिया है। क्योंकि उत्तर पूर्व और दक्षिण भारतीय राज्य अगर अभी नहीं तो भविष्य में हिंदू राष्ट्र से निःसंदेह बाहर निकल जाएंगे। फिर हमारी सभ्यता का कैसा स्वरूप हो यह अभी कह पाना कठिन है। परंतु इतना स्पष्ट है कि हिंदू राष्ट्र में सदियों पुरानी ‘सर्वधर्म समभाव’ के मेलजोल की मिठास और उसकी आधुनिकता निःसंदेह खतरे में पड़ जाएगी और देश ‘मॉब-लिंचिंग’ जैसी संस्कृति में प्रवेश कर जाएगा।
यह केवल एक समस्या ही नहीं अपितु सघन संकट है जिससे भारतीय गणतंत्र अपनी 71वीं वर्षगांठ पर जूझ रहा है। परंतु भारतवर्ष की हजारों वर्ष पुरानी ऐतिहासिक परंपरा और उसकी वेदों और पुराणों के समय से भारतीय संविधान तक फैली गंगा-जमुनी सभ्यता को क्या आरएसएस इतनी आसानी से मिटा पाएगा। संघ के लिए यह काम इतना सरल तो नहीं होना चाहिए। हालांकि साल 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के पश्चात से मोदी के राजनीतिक उदय तक संघ ने जिस तेजी से अपने एजेंडे को लागू किया उससे तो यह तय है कि संघ अपने मिशन में बहुत आगे निकल चुका है। अब संघ संविधान में सेंध लगाकर देश को हिंदू राष्ट्र का संवैधानिक रूप भी दे रहा है। तो फिर अब बचा ही क्या है।
अभी बहुत कुछ बचा है। और जो बचा है वह हजारों साल पुरानी भारतीय सभ्यता और उसमें रचा-बसा स्वयं भारतीय नागरिक है जिसको एक पाकिस्तान जैसा कट्टरपंथी भारत वर्ष स्वीकार नहीं है। जामिया, जेएनयू और शाहीन बाग उसी भारतीय सभ्यता तथा सर्वधर्म समभाव के प्रतीक हैं। यहां से उठने वाला सैलाब अब एक ऐसे जन आंदोलन का स्वरूप ले चुका है जिसकी कल्पना पहले किसी ने नहीं की थी। यह कोई केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं है। यह एक सामाजिक आंदोलन है, जिसका संचालन स्वयं भारतीय नागरिक कर रहा है। यह आंदोलन केवल भारतीय नागरिकता के नए कानून का विरोधी नहीं हैं, बल्कि यह आंदोलन तो भारत के सामाजिक और सभ्यता के मौलिक मूल्यों के सरंक्षण का आंदोलन है।
सत्य तो यह है कि यह आंदोलन भारतीय समाज को आधुनिक आयाम देने का एक संघर्ष है जिसका स्वरूप अपने में बिल्कुल नवीन है। जरा देखिए तो इस आंदोलन के प्रतीक क्या हैं। अभी तक इस आंदोलन की पहली पंक्ति में देश के युवा और महिलाएं खड़ी हैं। मैं कोई इतिहास का विद्वान तो नहीं हूं, लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष में इससे पूर्व किसी भी आंदोलन में महिलाओं की ऐसी भागीदारी नहीं रही, जैसा कि इस आंदोलन में है। निःसंदेह यह एक आधुनिक समाज की चेतना का प्रतीक है।
फिर इन आंदोलनकारियों के हाथों में संविधान है तथा उनकी कोई और मांग नहीं अपितु एक मांग है कि संविधान का मौलिक रूप नहीं बदलो। वह सरकार से अपने लिए कुछ नहीं मांग रहे हैं। आंदोलनकारी केवल संविधान के सरंक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जिस आंदोलन का प्रतीक संविधान हो उसको आप एक आधुनिक समाज का आंदोलन नहीं तो फिर और क्या संज्ञा देंगे। इस आंदोलन में कोई ‘अल्लाहो अकबर’ या ‘जय सियाराम’ की गूंज नहीं। इसमें मांग है कि धर्म को नागरिकता के मापदंड के साथ नहीं जोड़ा जाए।
क्या यह एक आधुनिकता से जुड़ी मांग नहीं है? फिर इस आंदोलन की मांग है कि भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बरकरार रखा जाए। आज हिंदुत्व के विरूद्ध धर्मनिरपेक्ष भारतीय जनता की मांग है। इसको जनता पर ऊपर से नहीं थोपा जा रहा है। अपितु आज भारतीय जनमानस स्वयं धर्मनिरपेक्षता अर्थात धर्मनिरपेक्ष राजनीति की मांग कर रहा है। यह सब वही लक्षण हैं, जो 18वीं एवं 19वीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप के एक आधुनिक समाज की रचना के लक्षण थे।
बस यही भारतीय गणतंत्र की विजय है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारा गणतंत्र एक जटिल समस्या से जूझ रहा है। परंतु इस समस्या से उत्पन्न जमीन पर भारतीय जनता ने सामाजिक स्तर पर एक आधुनिक भारत का निर्माण का जो संघर्ष छेड़ा है, वह संघ के षडयंत्र के विरोध में भारतीय आत्मा का संघर्ष है। क्योंकि भारतीय आत्मा हजारों साल से चली आ रही परंपराओं के साथ सकारात्मक आधुनिकता को अपने दामन में समा लेने की क्षमता रखती है। तब ही तो अल्लामा इकबाल ने अपनी मशहूर नज्म ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ में लिखाः-
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे ज़मां हमारा।।
भला संघ इस ‘सदियों पुरानी हस्ती’ को क्या मिटा पाएगा। इस आंदोलन में ऊंच-नीच हो सकती है। परंतु भारतीय समाज की आधुनिकता का यह आंदोलन जिसका प्रतीक महिलाएं, संविधान और धर्मनिरपेक्षता हो अब मिटाया नहीं जा सकता है।
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