गांधी से बड़ा कोई हिंदू नहीं, जिनके ‘हे राम’ से दूसरे धर्म के लोगों को कभी डर नहीं लगा

गांधीजी के लिए अहिंसा एक नैतिक मूल्य के तौर पर ही अहम नहीं थी बल्कि इसलिए कि इससे आमलोगों को बड़े उपक्रम से जोड़ना संभव था। गांधी की सोच थी कि कोई आंदोलन तभी सफल हो सकता है जब इसमें बड़ी जन-भागीदारी हो और जनभागीदारी तभी हो सकती है जब आंदोलन अहिंसक हो।

फोटोः सोशल मीडिया
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मृदुला मुखर्जी

पूरी दुनिया गांधी मार्ग के जरिए रास्ता तलाश रही है। लेकिन, अपने ही देश में लोकतंत्र पर जिस तरह से खतरे बढ़ते जा रहे हैं, उसमें महात्मा गांधी के संदेश पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। हमने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र संडे नवजीवन केे दो अंक गांधी जी पर केंद्रित करने का निर्णय लिया। इसी तरह नवजीवन वेबसाइट भी अगले दो सप्ताह तक गांधी जी के विचारों, उनके काम और गांधी जी के मूल्यों से संबंधित लेखों को प्रस्तुत करेगी। इसी कड़ी में पेश है वरिष्ठ इतिहासकार मृदुला मुखर्जी का विशेष लेख।

वैसे कौन अनिवार्य सत्य थे जिन्हें आत्मसात कर गांधीजी अमर बन गए? इसके कई जवाब हो सकते हैं, लेकिन मैं वैसे कुछ पहलुओं को रखूंगी जो गांधीजी को आज भी उतना ही प्रासंगिक बनाते हैं जितना वे अपने जीवनकाल में थे।

गोखले जिन्हें गांधीजी अपना ‘राजनीतिक गुरु’ कहते थे, ने उनके बारे में एक बार लिखा: ‘उनके पास ऐसी जबर्दस्त आध्यात्मिक शक्ति है कि अपने आसपास के आमलोगों को नायकों और बलिदानियों में बदल दें।’ इसके लिए गांधीजी ने सत्याग्रह नाम का अस्त्र निकाला था। इसी ने गांधीजी को भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के इतिहास को निर्णायक तरीके से प्रभावित करने की सामर्थ्य दी। गांधीजी के लिए सत्याग्रह या सत्य की शक्ति कोई निर्विकार दार्शनिक अवधारणा नहीं थी बल्कि यह अस्त्र संघर्ष की अग्नि में तपकर तैयार हुआ था और अनुशासित राजनीतिक आचरण की सान पर इसने धार पाई थी।

सत्याग्रह का हृदय और आत्मा प्रतिरोध है। किसी भी गलत- कर्म या परतंत्रता का प्रतिरोध- चाहे नस्लवाद, उपनिवेशवाद और लोकतंत्र का ह्रास हो या फिर सांप्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, पितृसत्ता, असमानता और आर्थिक अभाव। अहिंसा की सीमाओं से बंधे सत्याग्रह में संघर्ष के विभिन्न तरीके निहित हैं। गांधीजी की सत्याग्रह की अवधारणा में आक्रामक संघर्ष की जटिल रणनीति अंतर्निहित है, अहिंसा तो उसका एक हिस्सा मात्र है। इसमें आधुनिक राज्य की प्रकृति, संघर्ष करने की लोगों की क्षमता, विभिन्न परिस्थितियों के लिए संघर्ष के उपयुक्त तरीकों पर गूढ़ विचार सन्नहित था। सत्याग्रह में असहयोग से लेकर, नागरिक अवज्ञा, चरखे पर सूत काटने से लेकर विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, अदालतों के बहिष्कार से लेकर करों का भुगतान नहीं करना, प्रतिबंधित साहित्य के प्रसार से लेकर नमक बनाने पर रोक को नहीं मानना, हड़ताल से लेकर आमरण अनशन तक सबकुछ था। इसमें रैली निकालना, जनसभा करना, धरने देना, कैंडिल मार्च निकालना और विरोधियों को फूल भेंट करना भी शुमार था।

गांधीजी का मानना था कि अगर आमलोग राजनीतिक रूप से सक्रिय हो जाएं तो वे कोई भी लक्ष्य पा सकते हैं। उनके लिए अहिंसा एक नैतिक मूल्य होने के नाते ही महत्वपूर्ण नहीं थी बल्कि इसलिए कि इससे आमलोगों को बड़े उपक्रम से जोड़ना संभव हो जाता था। गांधीजी की सोच थी कि कोई आंदोलन तभी सफल हो सकता है जब इसमें बड़ी संख्या में जन-भागीदारी हो और जनभागीदारी तभी हो सकती है जब आंदोलन अहिंसक हो। जैसा कि बिपिन चंद्रा कहते हैं, “अहिंसा में संपन्न वर्ग के पक्ष में झुकाव जैसा कुछ भी नहीं था बल्कि नैतिक बल पर एक व्यापक जनाधार वाले संघर्ष के लिए यह जरूरी था और इसमें निहत्थे लोग सरकार के मुकाबले किसी भी तरह नुकसान की स्थिति में नहीं होते।” गांधीजी कहते थे कि एक योग्य जनरल अपने समय और अपनी पसंद के मैदान पर लड़ाई लड़ता है और अहिंसा यह सुनिश्चित करती है कि यह मैदान नैतिकता का होना चाहिए।


साल 1930 में दांडी मार्च शुरू होने से एक दिन पहले आश्रम पहुंचे लोगों को गांधीजी ने बताया कि कैसे अहिंसा ने व्यापक जनभागीदारी सुनिश्चित की और सरकार को बुरी तरह असमंजस में डाल दिया: “हालांकि यह लड़ाई कुछ दिनों में शुरू होनी है, लेकिन यह कैसे हुआ कि आप यहां इतनी निडरता से आ गए? मुझे नहीं लगता कि अगर आपको राइफल की गोलियों या बम का सामना करना होता तो यहां उपस्थित आप में से कोई अभी यहां होता। लेकिन आपको राइफल की गोलियों या बम का कोई डर नहीं है। क्यों? मान लें मैंने कहा होता कि मैं हिंसक अभियान शुरू करने जा रहा हूं, तो सरकार ने अब तक मुझे आजाद छोड़ा होता? क्या आप मुझे इतिहास में एक उदाहरण भी दिखा सकते हैं जहां राज्य ने एक दिन के लिए भी हिंसक प्रतिरोध को बर्दाश्त किया हो? लेकिन यहां सरकार उलझन में है।”

अहिंसक नागरिक अवज्ञा के बारे में वह कहते हैं: “मान लें, सात लाख गांवों में से प्रत्येक से दस-दस लोग नमक बनाने और नमक अधिनियम की अवज्ञा करने के लिए आगे आएं तो आपको क्या लगता है, सरकार क्या कर सकती है? क्रूर से क्रूर तानाशाह भी शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे लोगों को तोप के मुंह से बांधकर उड़ाने की हिम्मत नहीं कर सकेगा। यदि आप अपने आप को थोड़ा प्रेरित कर लें, तो मैं विश्वास दिलाता हूं कि हम इस सरकार को बहुत कम समय में थका देने की स्थिति में होंगे।”

गांधीजी ने एक के बाद एक आंदोलनों से दिखाया कि कैसे अहिंसक सत्याग्रह ने सरकार को उत्कट दुविधा में जकड़ डाला। अगर वह आंदोलन को नहीं दबाती तो कानूनों का खुलेआम उल्लंघन करने वाले इन आंदोलनों को सरकार के क्षीण होते प्रशासनिक नियंत्रण के तौर पर देखा जाता और अगर इन्हें ताकत से दबा दिया जाता तो इसे क्रूर, जन-विरोधी प्रशासन के रूप में देखा जाता। दोनों ही स्थितियों में सरकार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचना तय था। 1930 में मद्रास में तैनात एक अंग्रेज अधिकारी सी.एफ.वी. विलियम्स इस असमंजस को बयां भी करते हैं, “अगर हम सख्ती करेंगे तो कांग्रेस ‘दमन’ का मुद्दा उठाएगी और अगर हम ऐसे ही होने देंगे तो कांग्रेस इसे अपनी ‘जीत’ बताएगी।”

गांधीजी खुद कहा करते थे कि अहिंसक संघर्ष बहादुरों की पसंद है, कमजोरों की नहीं। हिंद स्वराज में, गांधीजी ने लिखा: “आप क्या सोचते हैं? साहस की आवश्यकता कहां है- दूसरों को तोप के पीछे रहकर टुकड़े कर देने में, या मुस्कुराते हुए तोप के आगे बढ़ते रहने और टुकड़े हो जाने में? विश्वास करो, साहस से रहित आदमी कभी धैर्ययुक्त विरोधी नहीं हो सकता।” गांधीजी का अहिंसा पर जोर उनमें गहरे बैठे इस भरोसे पर आधारित था कि आप साधन को साध्य से अलग नहीं कर सकते। उनका मानना था कि साधन ही लक्ष्य को आकार देता है। हिंसा की डगमगाती बुनियाद पर आप मानवीय, सरोकारी, समावेशी और मुक्त समाज के निर्माण की आशा नहीं कर सकते।


गांधीजी का जीवन, उनके विचार, उनके आदर्श और उनका व्यवहार भारत और दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं। ऐसे तमाम व्यक्ति और आंदोलन हैं जिन्होंने उनसे प्रेरणा पाई। मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में अमेरिका में अश्वेत नागरिक अधिकार आंदोलन ने खूब सोच-समझकर अहिंसक संघर्ष के गांधीवादी तरीकों को अपनाया। कई वर्षों बाद पोलैंड में उस सत्ता के खिलाफ लेक वालेसा के नेतृत्व में आंदोलन हुआ, जिसे पूर्वी यूरोप में सबसे कठोर शासन के रूप में जाना जाता था।

गांधी के तरीके उत्तरी अमेरिका के लोकतांत्रिक माहौल से लेकर स्तालिनवादी रूढ़िवाद में भी प्रभावी साबित हुए। यूरोप में शांति आंदोलन के साथ-साथ दुनियाभर में हरित आंदोलन ने गांधीवादी तरीकों का पालन किया है। 20वीं सदी के अंतिम दौर में दुनिया भर में तानाशाहों के खिलाफ और लोकतंत्र के समर्थन में आंदोलन हुए- दक्षिण कोरिया, फिलीपीन्स, सोवियत संघ से लेकर पूर्वी यूरोप तक। हर जगह गोलियां और बम नहीं बल्कि मोमबत्ती और गुलाब के फूल हथियार बने। भारत में भी गांधीवादी अहिंसा के आधार पर तमाम आंदोलन हुए जैसे, विनोबा भावे का भूदान आंदोलन, उत्तराखंड में जंगलों को बचाने का चिपको आंदोलन, बड़े बांधों के कारण विस्थापितों के हितों के लिए मेधा पाटकर के नेतृत्व में चला नर्मदा बचाओ आंदोलन और कम चर्चित रहे ऐसे छोटे-छोटे तमाम आंदोलन।

जब मैं यह लेख लिख रही हूं, भारत में छाई हताशा-निराशा के बीच मैं घुप्प अंधेरे को चीरती रोशनी की दो किरणों को देखती हूं। एक अमेरिका से आती है तो दूसरी भारत के सबसे पवित्र शहर से। सोलह साल की स्वीडिश ग्रेटा थन्बर्ग 23 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुतरेज द्वारा बुलाई गई यूएन क्लाइमेट एक्शन कमिटी की बैठक को संबोधित करती हैं। जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई की मांग को लेकर साल भर चले छात्र आंदोलन की परिणति ग्रेटा के स्वीडन की संसद के सामने 20 अगस्त से 9 सितंबर, 2018 तक चले धरने में हुई। इस धरने में ग्रेटा अकेली बैठीं और वह रोजाना स्कूल जाने की जगह धरने पर बैठ जातीं। इससे प्रेरित होकर हर शुक्रवार को स्कूली छात्र विरोध प्रदर्शन करते और धीरे-धीरे यह आंदोलन दुनियाभर में फैल गया। इसे नाम दिया गया ‘फ्राइडेज फॉर फ्यूचर’ और इसमें भाग लेने वाले स्कूली छात्रों की संख्या लाखों में पहुंच गई।

इधर, भारत में कुछ दिनों पहले बनारस के 11वीं के छात्र आयुष चतुर्वेदी का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। आयुष ने स्कूल में गांधी पर दिए भाषण की शुरुआत यह कहते हुए की कि “ये किसने कहा मैं आंधी के साथ हूं, मैं गोडसे के दौर में गांधी के साथ हूं”। समझा जा सकता है कि उनका वीडियो क्यों वायरल हुआ। इस युवा ने कहा, “मैं कहना चाहता हूं कि गांधी से बड़ा कोई हिंदू नहीं। लेकिन दूसरे धर्म के लोगों को उनके ‘हे राम’ से डर नहीं लगता क्योंकि गांधी धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक थे।”


यह आज के आक्रामक हिंदुत्व को पूरी ताकत के साथ कठघरे में खड़ा करता है जिसके कारण राम के नाम पर गैर-हिंदुओं की लिंचिंग हो जाती है। क्या उन्हें प्रतिघात का अंदेशा है, इसके जवाब में आयुष जिस तरह कहते हैं: “जो होगा, देख लेंगे”, उससे स्पष्ट है कि गांधीवादी भावनाओं को उन्होंने कितने सही अर्थों में लिया है। “अगर आपको गांधी के बारे में कहना है तो ऐसे कहना होगा कि असर हो।”

क्या मुझे 21वीं सदी में गांधी की प्रासंगिकता पर और तर्क देने चाहिए?

(लेखिका जेएनयू में इतिहास की प्रोफेसर और नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी की निदेशक रहीं। वह चर्चित पुस्तक ‘इंडियाज स्ट्रगल फॉर फ्रीडम’ की सह-लेखिका भी हैं)

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