और भी काम हैं चंद्रयान भेजने के सिवा, क्योंकि जमीन पर उतरने के बाद सरकार से कुछ पूछना दीवार से सर टकराना होगा

जब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यान छोड़ने के लिए उलटी गिनती कर रहा था, उस समय हमारी लोकसभा ने बहुमत से जनप्रतिनिधियों की लंबी लड़ाई के बाद मिले सूचना अधिकार के पर कतर डाले। जानकारों की राय है कि अब सूचना आयोग कमोबेश सरकार का ही एक विभाग बनकर रह जाएगा।

रेखाचित्रः डीडी सेठी
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मृणाल पाण्डे

भारत एक अजब देश है। जब आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा से रॉकेट विज्ञान के उच्चतम वैज्ञानिक हाथ चंद्रयान का सफल प्रक्षेपण कर रहे थे, तो दूसरी तरफ पड़ोसी राज्य के थियेटर में कई विधायकों के रहस्यमय तरीके से अचानक मुंबई जाकर पाला बदल की घोषणा से गठजोड़ सरकार गिराने-बचाने का एक शर्मनाक नाटक भी चल रहा था। यान सफलता से छूट गया। नाटक जारी है। पर प्रधानमंत्री ने इसरो वैज्ञानिकों को भरपूर दाद दे दी और कहा कि हमारा चंद्रयान अनुमान के मुताबिक अगले 25 दिनों में चांद पर सही तरह उतर गया तो वह वहां की सतह की बाबत भारत विश्व की जानकारियों में काफी इजाफा कर सकेगा।

अलबत्ता, जमीन पर उतरते हुए अब हम पा रहे हैं कि भारतीय नागरिकों के लिए अपनी चुनी सरकार से किसी तरह की विश्वस्त जानकारियां पाना हरचंद कठिन बन रहा है। जब इसरो यान छोड़ने के लिए उलटी गिनती कर रहा था, उस समय हमारी लोकसभा ने बहुमत से जनप्रतिनिधियों द्वारा एक लंबी लड़ाई के बाद बनवाए गए सूचना अधिकार के पर कतर डाले। जानकारों की राय है कि अब सूचना आयोग कमोबेश सरकार का ही एक विभाग बनकर रह जाएगा। सरकारी अफसर तय करेंगे कि कितनी जानकारियां किस विषय पर जनता को मिलें। यानी आने वाले समय में अब लोगों द्वारा किसी सरकारी विभाग से सरकार के विवादास्पद फैसलों की बाबत ब्योरे मांगना दीवार से सर टकराना बन जाएगा।

इसी के साथ सरकार के वित्तीय सलाहकार रथिन दत्त ने भी इस बरस जीएसटी के बावजूद सालाना कराधान में उम्मीद से कहीं कम आय सरकारी खजाने को मिलने की पुष्टि कर दी है। तब गरीब लोगों, किसानों, महिलाओं की बेहतरी के नाम घोषित तमाम योजनाओं का क्या होगा? आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया, कितनी दूर चलेगा? निश्चय ही यह मंजर उन विदेशी निवेशकों को आश्वस्त नहीं कर रहा जो इसकी बाबत ‘न्यूयार्क टाइम्स’ और ‘दि गार्जियन’ में पढ़ और सोशल मीडिया पर सुन और देख रहे हैं।

कंगाली में आटा गीला करते हुए इस बीच महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी के दो धड़ों के बीच सियासी जंग छिड़ी हुई है। नेता कहां हैं? पूछने पर खबर मिलती है कि सत्तासीन बीजेपी की महाराष्ट्र इकाई में सब कुछ ठीक नहीं। दो चोटी के नागपुरी नेताओं के बीच इतना तनाव बढ़ रहा है कि वे जरूरी मीटिंगों में जाने से कतरा रहे हैं।

बजट को लेकर 2019 में मीडिया और अर्थशास्त्रियों ने जब बोलना शुरू किया, तो सरकार ने अपने समर्थक मीडिया और अर्थजगत के कुछ बड़े कॉरपोरेट समर्थकों की मार्फत अपनी तोपें आलोचक बुद्धिजीवियों, मीडिया और अर्थशास्त्रियों के खिलाफ मोड़ दीं। लो कल्लो बात! पर अब तो खुद सरकार के तमाम मौजूदा और असमय त्यागपत्र देकर बाहर चले गए शीर्ष वित्तीय सलाहकार, जिनमें रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर भी शामिल हैं, कह रहे हैं कि विकास और सकल राष्ट्रीय आय, उत्पाद दर और बेरोजगारी पर चुनाव से अब तक पेश किए गए सरकारी आंकड़े कहीं न कहीं संदिग्ध हैं। सच यह है कि देश भीतर से खोखला होता जा रहा है।


इंडिया पॉलिसी फोरम की हालिया बैठक में (जो आर्थिक विषयों की प्रमुख शोध संस्था एनसीएईआर में हुई) सरकार के पूर्व मुख्य वित्तीय सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने विस्तृत आंकड़े देते हुए साबित किया कि यह तो सही है कि2012 में अर्थव्यवस्था की रफ्तार सुस्त पड़ने लगी थी, लेकिन 2015 तक वह सुधरने के लक्षण दिखाने लगी थी। इस बाबत बहुत ढोल भी पीटे गए।

लेकिन यह बात उजागर नहीं की गई कि 2015 के बाद से 2019 तक जीडीपी की विकास दर लगातार गिरी है। अब वह करीब 5.8 फीसदी की बहुत पुरानी दर पर आन टिकी है। यही नहीं, 2017-18 तक निर्यात दर की विकास दर भी जीरो रही। दूर क्या जाना, हम खुद देख सकते हैं कि देश में फलता-फूलता रहा वाहन निर्माण आज लगभग ठप्प है। रियल्टी उद्योग का यह हाल है कि निर्माता गाहकों को ऑफर दे रहे हैं कि फ्लैट ले लो किस्तों में, पैसा बाद को चुकाते रहना। इस्पात निर्माता सुन्न हैं कि मंदी झेलते बाजार में उनके उत्पाद की मांग ही नहीं। विमान कंपनियां दिवालिया हो रही हैं।

यह सब भारत सरीखी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की घंटियां हैं। इनकी अनसुनी करना घातक होगा। सरकार की प्रतिक्रिया वही रही जैसी अब तक आलोचकों के प्रति रही है। यानी गतिशील बनाने के लिए जबरन दिया जा रहा हर सरकारी धक्का जायज है। और आर्थिक या राजनीतिक फैसलों को लेकर सरकार को सूचना अधिकार में कतरब्योंत करके भी अपनी गोपनीयता बनाए रखने का पूरा हक है। सरकार जहां नाना कवचों में अपनी कार्यवाइयां गोपनीय रखने को आजाद है, वहीं आम जनता को अपनी सारी निजी जानकारियां सींग पूंछ समेट कर सरकारी आधार तथा पैन कार्डों में डालनी ही पड़ेंगी।

बजट प्रस्तुति किस तरह के बही-खाते में आई उसके स्वदेशी लुक की तारीफ कीजिये। भीतरी बातों की जानकारी, विचार और कार्रवाई पर अब सिर्फ सरकार का अधिकार है। जनमत हर हाल में कश्मीर से कर्नाटक तक सरकार के साथ है और रहेगा। माना पिछले 70 सालों की सारी सरकारें नाकारा थीं, पर क्या पांच साल से सत्तासीन वह एकछत्र केंद्रीय सरकार अच्छी कही जा सकती है जिसमें जनता को काबीना के सदस्य अकुशल मुनीम-गुमाश्ते नजर आने लगे हों? जहां सहयोगी दलों के क्षेत्रीय नेताओं की कोई आवाज न सुनाई देती हो? नियमित बिजली, ब्रॉडबैंड, एटीएम और बैंकिंग सरीखी सुविधाएं दो तिहाई आबादी के लिए दुर्लभ हों, वहां का अर्थतंत्र पांच बरस के भीतर पांच ट्रिलियन डालर का कैसे बन सकता है भाई?

देश का अर्थतंत्र गंभीर स्थिति में है, अब तो यह बात सरकार के पूर्व वित्तीय सलाहकार ही नहीं, सरकार और मोदी जी के अनथक प्रशंसक मोहनदास पई और गुरचरण दास जैसे वे कॉरपोरेट जार भी करने लगे हैं जिनको अपनी पूंजी डूबने की चिंता सताने लगी है। बांबे क्लब के धनकुबेरों को पनाह देती आई मुंबई महानगरी उफनाती बाढ़ के बीच ठप्प पड़ गई है। कई सिविक एजेंसियों के बीच एक दूजे पर दोषारोपण के बीच किसी को समझ नहीं आ रहा है, कि इस दई मारे शहर में, जिसकी महानगरपालिका का सालाना बजट कई राज्यों के सालाना बजट से भी अधिक है, अमीरों के लिए भी शहर की सड़कों, नागरिक सुविधाओं को रहन-सहन के काबिल बनाए रखने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है?

भारत अब पलटी खाकर पुरानी अर्थव्यवस्था पर लौट जाए यह तो मुमकिन नहीं है। लेकिन ताजा कराधान बढ़ोतरी और विकास योजनाओं के सुनहरे आर्थिक गणित पर चतुर घुमाऊ जुमले बोलकर इन महाधनपतियों का उपहास करना असंभव है। सरकारी वादे हमारे उद्योगपति पहले भी जानते थे अविश्वसनीय हैं। पर उनकी पूंजी शेयर बाजार से सोना उगल रही थी सो वे सरकार के जानबूझ कर सच छिपाने वाले विकास के आंकड़ों और रिजर्व बैंक के कोष की बाबत उसकी स्थापनाओं पर आंख मूंद कर भरोसे का नाटक करते रहे। पर नई कराधान व्यवस्था भ्रष्टाचार पड़ताल के नाम पर अब कॉरपोरेट जगत की कछुआ पीठ पर भी लाठी बरसा रही है। अइसा कइसे चलेंगा?


इंफोसिस के एक पूर्व संस्थापक उद्योगपति मोहनदास पई ने कह ही डाला कि यह सरकार नागरिकों और बिजनेस वालों को एक ऐसे कराधान सिस्टम से बचाने में नाकाम है जिसका कर गणना सिस्टम ही नहीं, गलत गणना के खिलाफ अपील सुनने वाला सिस्टम भी टूटा पड़ा है। आयकर विभाग सब करदाताओं को कर चोर और खुद को न्याय का फरिश्ता मानने लगा है! बहुत अच्छे! जब अनुभवी बैंक गवर्नर, वित्तशास्त्री और पत्रकार सरकार की बढ़ती गोपनीयता और अपारदर्शी नीतियों के मद्देनजर इसकी संभावना बताकर जनता को आगाह कर रहे थे, तब तो आप सोते रहे। अब आपका क्लब हठात् देख रहा है कि कराधान व्यवस्था और बढ़ती अनचुकाई राशि की जकड़ से आज तमाम बैंक श्रीहीनहैं, शेयर मार्केट रसातल को जा रहा है और दलीय कार्यकर्ता बाढ़-सुखाड़ के बीच गरीब बस्तियों और छोटे-बड़े शहरों में दंगे मचवा कर विदेशी निवेशकों को निवेश करने से बिदकाये दे रहे हैं।

जाते-जाते भी आरटीआई की एक याचिका बता गई है कि जिन चुनावी बॉन्डों का सर्वाधिक धन सत्तारूढ़ दल को गया, उन बॉन्डों को सबसे अधिक दिल्ली में ही भुनाया गया है। यानी हर दल का असल लक्ष्य जनसेवा या भ्रष्टाचार मिटाना नहीं, जनता को छल कर, धनबल या भुजबल दिखा कर येन-केन विपक्ष को कमजोर बनाना और चुनाव जीतना साबित हो रहा है।

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