आकार पटेल का लेख: दुनिया को दिख रही हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगातार गिरावट, लेकिन सरकार मस्त है
हर लोकतांत्रिक पैमाने पर हमारी गिरावट को दुनिया देख रही है और इसे लेकर आगाह भी कर रही है, लेकिन आश्चर्य यह है कि भारत में हम पर इसका कोई असर नहीं हो रहा है और हम रोजमर्रा के कामों में हस्बे मामूल व्यस्त हैं।
बीते साल यानी 2020 में मोदी सरकार ने फैसला किया कि शासन के जिन-जिन सूचकांकों में भारत में गिरावट आ रही है उनमें सुधार किया जाएगा। इन सूचकांकों को गैर-सरकारी और गैर-लाभकारी संस्थाओं ने तैयार किया है जो संयुक्त राष्ट्र, वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और इकोनॉमिस्ट जैसी बहुभाषी और विशेष क्षेत्रों में काम करने वाली संस्थाएं हैं। इनमें सरकार के अपने आंकड़े भी शामिल हैं।
जाहिर है सरकार को इस सबसे बड़ी चिंता हो रही थी। हमें यह इसलिए पता है क्योंकि सरकार ने खुद ही एक प्रेस रिलीज जारी किया था जिसका शीर्षक था, “नीति आयोग ने चुनिंदा 29 वैश्विक संकेतों में देश के प्रदर्शन की समीक्षा के लिए वर्चुअल वर्कशॉप का आयोजन किया।” इस वर्कशॉप में तय किया गया क सरकार सभी 29 वैश्विक सूचकांकों के बारे में एक सिंगल, इंफॉर्मेटिव डैशबोर्ड तैयार करेगी, ताकि इन सूचकांकों को सरकारी आंकड़ों और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के साथ मॉनिटर किया जा सके।
इस मॉनिटरिंग प्रक्रिया का मकसद सिर्फ “विश्व सूचकांकों में भारत की स्थिति सुधारना ही नहीं बल्कि सुधार की शुरुआत कर निवेश आकर्षित करना और भारत को लेकर नजरिए में बदलाव लाना होगा।“
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार को लगा कि यह मुद्दा देश की छवि से जुड़ा है न कि जमीनी हकीकत से। इसके अगले महीने जारी एक रिपोर्ट में कहा गया, “सरकार सभी 29 वैश्विक सूचकांकों पर देश की रैंकिंग सुधारने के लिए काम कर रही है और वह यह संदेश सभी तक स्पष्ट रूप से पहुंचाना चाहती है।” इसके लिए सरकार बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान का सहारा लेगी जिससे भारत की छवि में सुधार हो। इसमें एडवरटाइजिंग और मंत्रालयों की माइक्रो साइट को भी इस्तेमाल किया जाएगा। साथ ही इन सूचकांकों से जुड़ी समस्याओं और आंकड़ों को भी प्रमुखता से सामने रखा जाएगा।
लेकिन सवाल है कि क्या इससे समस्या का समाधान हो जाएगा? शायद नहीं। क्योंकि मुद्दा छवि या पूर्वाग्रह का नहीं है, बल्कि तथ्यों का है। दुनिया भारत को किसी खराब छवि में दिखाने की साजिश नहीं रच रही है। समाधान तो इस हकीकत को स्वीकारने में है कि भारत 2014 के बाद से ही कई मोर्चों पर गिरावट का सामना कर रहा है और उन्हें सुधारने की कोशिश कर रहा है। किसी मीडिया अभियान पर पैसा खर्च करने से आंकड़े तो नहीं बदल सकते। भारत द्वारा इन सभी वैश्विक एजेंसियों के आंकड़ों को नकारने से वह राय तो नहीं बदल सकती जिससे हकीकत का पता चलता है।
मोदी शासन में भारत की रैंकिंग तीन सूचकांकों (विश्व बैंक की डूइंग बिजनेस इंडेक्स समेत) बढ़ी है, दो सूचकांकों पर पहले जैसी ही है, लेकिन 41 ऐसे सूचकांक हैं जिनमें भारत की रैंकिंग गिरी है। और ये गिरावट इतनी स्पष्ट है कि अलग-अलग संगठनों ने अलग-अलग प्रक्रियाओं को अपनाकर इन्हें जांचा-परखा है। लेकिन नतीजे हर बार एक जैसी ही आए। 2014 के बाद से भारत उन 6 सूचकांकों में नीचे गिर रहा है जिनमें नागरिक स्वतंत्रता और बहुलतावाद शामिल है, 5 सूचकांक जिनमें जन स्वास्थ्य और सातक्षरता को आंका जाता है, धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकार वाले दो सूचकांक, इंटरनेट तक पहुंच रोकने वाले दो सूचकांक, कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले 4 सूचकांक, पर्यावरण से जुड़े 4, लिंगभेद मुद्दों और उनकी सुरक्षा से जुड़े 4, आर्थिक हालात और नागरिक स्वतंत्रता वाले 4 सूचकांक और शहरी क्षेत्रों के सिकुड़ने से जुड़े 4 सूचकांक शामिल हैं।
जो कुछ भी आंकड़े सामने आए हैं उन पर कोई विवाद ही नहीं है। शासन में जिस तेजी से गिरावट आ रही है वह जगजहारि है। लेकिन इसमें सुधार के लिए मोदी सरकार द्वारा “” “बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान” का विचार हैरान करता है। लेकिन इस सरकार की कार्यप्रणाली ऐसी ही है। बेहतर तो यह होता कि सरकार इन समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करती क्योंकि सिर्फ छवि सुधारने से कुछ नहीं होने वाला।
लेकिन किसी कारणवश सरकार की पब्लिसिटी की योजना ठंडे बस्ते में चली गई। इसके बाद 2020 के अंत में सरकार ने सभी मंत्रालयों को निर्देश दिया कि सभी अपने-अपने विभाग के आंकड़े अपडेट करें इससे इन वैश्विक सूचकांकों में सुधार सामने आएगा। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि सरकार का मानना था कि उसने काम तो अच्छा किया है लेकिन आंकड़े अपडेट नहीं हुए और इसके चलते वैश्विक सूचकांकों में गिरावट दिखी। लेकिन यह मानना भी गलत ही था क्योंकि इसके बाद भी जो आंकड़े सामने आए उनमें भी गिरावट का ही रुख नजर आया।
अभी ताजा रिपोर्ट फ्रीडम हाऊस की आई है जिसमें कहा गया है कि भारत सिर्फ आंशिक तौर पर ही स्वतंत्र है यानी सिर्फ आंशिक आजादी ही नागरिकों को है। यह कोई ओपीनियन या राय नहीं है, बल्कि तथ्यों और आंकड़ों पर आधारित है। भारत कहता है कि वह लोकतंत्र है, फ्रीडम हाऊस भी इससे सहमत है। उसने राजनीतिक अधिकारों के मामले में भारत को 40 में से 34 नंबर दिए हैं, यानी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में, बिना किसी भेदभाव के चुनाव आयोजित कराने वाले चुनाव आयोग के लिए, सभी राजनीतिक दलों के लिए समान अधिकार हैं। लेकिन मतदान हिंसा से और सांप्रदायिक तनाव से प्रभावित होते हैं इस पर पूरे अंक नहीं दिए हैं। लेकिन ये सब तो हमें पता है। तथ्य यह है कि हम राजनीतिक अधिकारों के मामले में तो ठीक काम कर रहे हैं और सरकार को पारदर्शिता के मामले में तीन चौथाई अंक मिले हैं, लेकिन यह सही तथ्य नहीं है।
समस्या यह है कि फ्रीडम हाऊस के अंकों में राजनीतिक अधिकारों के लिए सिर्फ 40 फीसदी अंक ही मिलते हैं। बाकी 60 फीसदी नागरिक स्वतंत्रता के सूचकांकों के होते हैं। इस मोर्चे पर हमारा प्रदर्शन ( 60 में से सिर्फ 33 अंक) खराब रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी, धार्मिक और शिक्षा का अधिकार, लोगों के शांतिपूर्वक एक जगह जमा होने का अधिकार, गैर सरकारी संस्थाओँ को काम करने की छूट (रिपोर्ट में मेरी पूर्व संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल पर हमले का भी जिक्र है), कानून व्यवस्था, स्वतंत्र न्यायपालिका, पुलिस द्वारा सही प्रक्रिया अपनाना आदि मामलों में हमारी स्थिति खराब है। क्या हम इससे इनकार कर सकते हैं? नहीं, क्योंकि ये सब सही है। लेकिन इसका जवाब इस सबसे इनकार करना या इसे एक पन्ने के बयान से खारिज करना नहीं है। इससे काम नहीं चलेगा क्योंकि अगले सप्ताह एक और रिपोर्ट आने वाली है जो गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठित वैराइटीज़ ऑफ डेमोक्रेसी रिपोर्ट है। पिछले साल इस रिपोर्ट में कहा गया था कि, “भारत स्वतंत्रता के सभी मोर्चों पर गिरावट दिखा रहा है और यह गिरावट इस हद तक है कि एक लोकतांत्रिक देश होने का इसका रुतबा ही खतरे में पड़ गया है।”
हर लोकतांत्रिक पैमाने पर हमारी गिरावट को दुनिया देख रही है और इसे लेकर आगाह भी कर रही है, लेकिन आश्चर्य यह है कि भारत में हम पर इसका कोई असर नहीं हो रहा है और हम रोजमर्रा के कामों में हस्बे मामूल व्यस्त हैं।
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