कोरोना से पूरी दुनिया परेशान, लेकिन क्या जानबूझकर लोगों को डराया जा रहा ?
कोविड-19 का वायरस कोरोना वायरस परिवार का ही एक नया सदस्य है। इस नए सदस्य के 2019 के अंत में आगमन से पहले कोरोना वायरस से प्रतिवर्ष करोड़ों लोग संक्रमित होते रहे हैं। अनेक रिसपायरेटरी या श्वास की बीमारियों में लगभग 10 प्रतिशत मरीजों में कोरोना वायरस पाए जाते हैं।
कोविड-19 का वायरस कोरोना वायरस परिवार का ही एक नया सदस्य है। इस नए सदस्य के 2019 के अंत में आगमन से पहले कोरोना वायरस से प्रतिवर्ष करोड़ों लोग संक्रमित होते रहे हैं। अनेक रिसपायरेटरी या श्वास की बीमारियों में लगभग 10 प्रतिशत मरीजों में कोरोना वायरस पाए जाते हैं। कोरोना वायरस के बारे में पहले से यह पाया गया कि इससे संक्रमित अधिकांश लोगों के लिए कोई बड़ा खतरा नहीं है पर जो वृद्ध व्यक्ति पहले से अन्य बीमारियों से भी त्रस्त हैं उनके लिए यह खतरनाक सिद्ध हो सकता है। पश्चिम देशों में भी नर्सिंग होम में रहने वाले वृद्ध लोगों के लिए कोरोना वायरस अधिक खतरनाक रहा है और सामान्य लोगों, युवाओं और बच्चों के लिए इसका खतरा बहुत कम रहा है।
कोविड-19 के आगमन से पहले भी कोरोना वायरस के वैक्सीन पर कुछ काम हो चुका था और इससे जुड़े वैज्ञानिकों को पता चला था कि इस वैक्सीन को बनाने में अनेक जटिलताएं और कठिनाईया हैं।
इसके बावजूद कोविड-19 के आगमन से पहले ही तीन चर्चित अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने कोरोना वायरस पर आधारित एक बहुत खतरनाक सिद्ध होने वाली महामारी की साईमुलेशन अक्टूबर में अमेरिका में की। इसमें बहुत अधिक लोगों की मृत्यु की संभावना जताई गई और वैक्सीन बनाने से ही खतरे को दूर करने की स्थिति बताई गई। इसमें बताया गया कि ऐसी महामारी फैलने पर कैसी सख्त नीतियां अपनाई जाएंगी और इन पर व्यापक सहमति बनाई जाएगी और कैसा प्रचार-प्रसार किया जाएगा। यह सारी जानकारी व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार माध्यमों पर उपलब्ध करवा दी गई है।
जब दो महीनों में कोविड-19 की बीमारी वास्तव में फैलने लगी तो इन आयोजकों ने कहा कि यह तो सहज एक संयोग ही है कि उनके आयोजन के बाद ऐसी मिलती-जुलती बीमारी वास्तव में फैल गई। उन्होंने इस बारे में स्पष्टीकरण जारी किया कि दोनों में साम्यता न देखी जाए पर फिर भी इस बारे में कई सवाल उठते रहे हैं।
जब से कोविड-19 का संक्रमण आरंभ हुआ, तब से एक प्रवृत्ति बार-बार देखी गई कि शक्तिशाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों ने बार-बार कोविड-19 के अधिक खतरे के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बयान जारी किए और इनसे बचाव के लिए वैक्सीन पर अधिक जोर दिया, जबकि इलाज के सामान्य तौर-तरीकों पर कम ध्यान दिया या इन्हें हतोत्साहित भी किया।
दुनिया के अनेक विख्यात और प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने इसका विरोध किया। उन्होंने अनेक बयानों और अनुसंधानों में बताया कि कोविड-19 की फैटेलिटी रेट (संक्रमित लोगों में मुत्यु का प्रतिशत) बहुत कम है। जहां एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन ने आरंभ में 3.4 प्रतिशत का फैटेलटी रेट बताया था वहां इन वैज्ञानिकों ने 0.1 और 0.5 प्रतिशत के बीच का रेट बताया जो कि साधारण फ्रलू के फैटेलिटी रेट के नजदीक था।
उदाहरण के लिए जर्मनी के साक्ष्य आधारित इलाज नामक डाक्टरों और अनुसंधानकर्ताओं के नेटवर्क (नेटवर्क फाॅर एविडेंस बेस्ड मेडीसिन) ने बताया कि 2017-18 में जर्मनी में फ्लू सीजन के दौरान लगभग 15 सप्ताहों में 50 लाख लोगों को संक्रमण हुआ यानि प्रति 4.4 दिनों में संक्रमण दोगुना हुआ। फैटेलिटी रेट 0.5 प्रतशत था। कोविड-19 संक्रमण की रफ्तार भी काफी हद तक ऐसी ही रही जबकि फैटेलिटी रेट जर्मनी में 0.2 प्रतिशत रहा जो साधारण फ्लू के फैटेलिटी रेट के आधे से भी कम है। पर 2017-18 में फ्लू के समय में न तो लाॅक डाऊन हुआ, न अस्पतालों में अधिक मरीजों के दबाव की शिकायत आई न कोई बड़ी हलचल हुई।
अनेक वैज्ञानिकों और डाक्टरों ने इस बारे में सवाल उठाए हैं कि अनेक मृतकों में कोविड-19 के वायरस की उपस्थिति मात्र को मौत का कारण मान लिया गया है जबकि अनेक बीमारियों से पीड़ित वृद्ध व्यक्तियों की अन्य कारणों से मौत की संभावना को नजरअंदाज किया गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका के सेनेटर डाक्टर स्काॅट जैंसन ने बताया कि मौत के कारण की पहचान की दुविधा की स्थिति में कोविड-19 को ही मौत का कारण मानने के लिए निर्देश जारी हुए। वहां की बीमा आधारित चिकित्सा व्यवस्था में कोविड मरीजों के लिए अधिक धनराशि मिलने का असर भी देखा गया। राष्ट्रपति ट्रंप के इस बड़े विषय पर बड़े सलाहकार वैज्ञानिक पर आरोप है कि वह मान्यता प्राप्त रिसर्च पेपर में कुछ और कहते हैं, मीडिया में अतिश्योक्तिपूर्ण बयान कुछ और देते हैं।
इटली में कोविड-19 से अधिक मौतें बताई गई, पर मृत व्यक्ति की औसत आयु 79 वर्ष थी और अधिकांश अन्य बीमारियों से भी त्रस्त थे। अनेक वैज्ञानिकों ने इस प्रवृत्ति का विरोध किया है कि कोविड वायरस की उपस्थिति मात्र को मौत का कारण मान लिया जाए।
कोविड-19 वायरस के आगमन के बाद टैस्ट बहुत जल्दबाजी में तैयार किए गए। अनेक टेस्ट किट की गुणवत्ता की समस्या सामने आ चुकी है।
अनेक स्वतंत्र वैज्ञानिकों ने कोविड-19 के अतिश्योक्तिपूर्ण खतरों के प्रचार का विरोध किया है क्योंकि उससे दहशत फैलती है और जरूरत से अधिक सख्त कदम उठाए जाते हैं जिनसे आजीविकाएं तबाह होती है, गरीबी बढ़ती है। पर जैसे ही प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों के यह बयान आते हैं, तुरंत कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों के अधिकारी फिर कह देते हैं कि कोविड-19 का आगे खतरा बहुत अधिक है।
कोविड-19 के वैक्सीन की रेस में अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां औक उनसे जुड़े अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान हैं। पर इन कंपनियों और संगठनों का विश्व स्तर पर रिकार्ड रहा है कि उनके अनेक वैक्सीनों में सेफ्टी से जुड़ी गंभीर समस्याएं पाई गईं और लाखों लोगों में स्वास्थ्य की गंभीर समस्याएं उत्पन्न हुईं, सैंकड़ों की मौत हुई। इससे संबंधित वैज्ञानिक रिसर्च पेपर, अनुसंधान उपलब्ध हैं। कोरोना वायरस के वैक्सीन पर पहले से कार्य कर रहे वैज्ञानिकों ने इस वैक्सीन से जुड़ी अनेक जटिलताओं के बारे में बताया है। इसके बावजूद 10 महीने में कोविड-19 वैक्सीन तैयार करने के बारे में दाव किए गए हैं, जबकि वैक्सीन तैयार करने का सामान्य समय एक दशक यानि दस वर्ष है। अभी तक प्रमाणिक जानकारियों में वैक्सीन की रेस में लगी कंपनियों ने यह नहीं बताया कि 10 वर्ष का कार्य 10 महीने में पर्याप्त सेफ्टी की सावधानियों के साथ कैसे पूरा हो सकता है। अनेक वैज्ञानिकों ने इस बारे में सवाल उठाए हैं।
ऐसी अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां और इनसे जुड़े संस्थान प्रयास कर रहे हैं कि कानूनी तौर पर सेफ्टी की जिम्मेदारी से उन्हें राहत दे दी जाए और कुछ देशों में उन्हें यह प्राप्त भी हो गई है।
विकासशील और गरीब देशों में स्वास्थ्य बजट की प्रायः कमी होती है पर करोड़ों डालर के अपने संदिग्ध उपयोगिता के कम्बीनेशन वैक्सीनों को किसी तरह स्वीकृत करवा कर यह कंपनियां बहुत मुनाफा पहले ही कमा चुकी हैं, जबकि विकासशील देशों की अपनी वैक्सीन बनाने वाली अनेक सार्वजनिक कंपनियों को क्षति पंहुची है और इनका कार्य सिमट चुका है।
इन सब स्थितियों और तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही कोविड-19 संबंधी नीतियां बनानी चाहिए ताकि जन-हित की रक्षा हो सके।
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Published: 07 Jun 2020, 6:04 PM