खरी-खरी: जंग टलती रहे तो बेहतर है...लेकिन सवाल यही है कि यह रुके तो कैसे रुके
क्या यह युद्ध टल सकता था? इतिहास में कोई ऐसा युद्ध नहीं जो टल नहीं सकता है। युद्ध आम तौर पर सिद्धांतों के लिए नहीं बल्कि वर्चस्व के लिए होते हैं इसलिए टल नहीं पाते हैं। यूक्रेन युद्ध भी वर्चस्व का युद्ध है।
टैंक आगे बढ़ें कि पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है।
फतेह का जश्न हो कि हार का सोग
जीस्त (जीवन) मय्यतों पे रोती है।
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है।
आप और हम सभी के आंगन में
शम्आ जलती रहे तो बेहतर है।
-साहिर लुधियानवी
अफसोस तो यह है कि इंसान कितना ही ‘शरीफ’ हो जाए, साहि रजैसे शायर की शराफत के पैमाने पर पूरा नहीं उतर सकता है। तभी तो यूक्रेन में टैंक आगे-पीछे दौड़ रहे हैं, ‘जीस्त’ (जीवन) लाशों परआंसू बहा रही है और यूक्रेन के शरीफ इंसानों के आंगनों में ‘शम्आ’ बुझ चुकी है। लोग घुप अंधेरे में बंकरों के अंदर छिपे मौत और जिंदगी के बीच की जंग लड़ रहे हैं। इस तरह दूसरे महायुद्ध के बाद यूरोप की सरजमीं एक बार फिर लहूलुहान हो उठी है।
किसी को पता नहीं, रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ा युद्ध क्या करवट लेगा। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन एक खतरनाक व्यक्तित्व के नेता हैं। उनके बारे में यह भी कहा जा रहा है कि यदि रूस इस जंग में फंस गया, तो वह न्यूक्लियर हथियारों का प्रयोग करने से भी संकोच नहीं करेंगे। इसलिए इस जंग का खतरा अब केवल यूरोप ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर मंडरा रहा है।
यूक्रेन युद्ध अपने में वे सभी बातें समेटे हुए हैं जो दूसरे महायुद्ध के समय थीं। यदि उस समय हिटलर जर्मनी की ‘रक्षा’ की आड़ में अपने पड़ोसी पोलैंड पर चढ़ बैठा था और फिर देखते-देखते युद्ध की चपेट में सारा यूरोप आ गया था, वैसे ही इस समय रूस के राष्ट्रपति पुतिन रूस की ‘सुरक्षा’ के हित में यूक्रेन पर चढ़ बैठे हैं। और अब इस युद्ध के शोले अमेरिका की छोर तक पहुंच रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन यह घोषणा कर चुके हैं कि ‘पुतिन को इस युद्ध का भारी खामियाजा भुगतना पड़ेगा’।
जाहिर है कि यह युद्ध अब दो महाशक्तियों का युद्ध बन चुका है। अमेरिका के इशारे पर यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमिर जेलेंस्की ने यह घोषणा कर दी कि उनका देश अमेरिकी फौजी ब्लाक नाटो की सदस्यता लेगा, पुतिन और रूस को असुरक्षित कर दिया। जाहिर है कि इस प्रका रनाटो फौजें रूस के सिर तक पहुंच जातीं। यह रूस को मंजूर नहीं था। बस, असुरक्षित पुतिन यूक्रेन पर चढ़ बैठे और देखते-देखते युद्ध एक ऐसे मोड़ पर आ पहुंचा कि अब यह पूरी दुनिया के लिए खतरा बन चुका है।
लेकिन क्या यह युद्ध टल सकता था? इतिहास में कोई ऐसा युद्ध नहीं जो टल नहीं सकता है। युद्ध आम तौर पर सिद्धांतों के लिए नहीं बल्कि वर्चस्व के कारण होते हैं इसलिए टल नहीं पाते हैं। यूक्रेन युद्ध भी वर्चस्व का युद्ध है। पुतिन को यह मंजूर नहीं कि पश्चिमी यूरोप की नाटो फौजें उनकी सरहद तक पहुंचें क्योंकि उससे रूस के पड़ोसी देशों पर रूस का वर्चस्व जाता रहेगा। उधर, अमेरिका के नेतृत्व में नाटो ब्लाक इस घात में है कि किसी प्रकार सोवियत यूनियन के टूटने के बाद पूर्वी यूरोप से भी रूस का वर्चस्व पूरी तरह समाप्त हो जाए। इसलिए रूस को चारों तरफ से घेरने का प्रयास है। इस प्रकार यह लड़ाई अब रूस और अमेरिका की नाक की लड़ाई बन गई है। और जब बात नाक की हो जाए तो कुछ भी हो सकता है।
नाक का सवाल अब दो महाशक्तियों का है इसलिए सारा संसार ही चपेट में आ सकता है। आ भी चुका है। बात यह है कि इस इक्कीसवीं शताब्दी में संसार आर्थिक रूप से इस हद तक जुड़ा हुआ है कि कहीं भी बात बिगड़ी तो संसार प्रभावित हुआ। सबसे पहले तो पत्ता भी खड़कता है तो तेल के दाम आसमान पर पहुंच जाते हैं। युद्ध के बाद तेल 110 डॉलर प्रति बैरल बिक रहा है। तेल महंगा तो हर चीज महंगी, अर्थात संसार के हर व्यक्ति पर महंगाई की मार शुरू हो चुकी है। कल को यही युद्ध बढ़ा तो फि रकिस देश से आने वाला कौन सा माल आना बंद हो जाए, कहना मुश्किल है, अर्थात आयात और निर्यात- दोनों ही खतरे में होंगे। इस प्रकार हर देश की औद्योगिक गतिविधि खतरे में होगी। कितने धंधे ठप हो जाएं, कितने नौजवान बेरोजगार हो जाएं, कुछ पता नहीं। फिर कौन कब कहां मार दिया जाए, किसी को मालूम नहीं है। इस लेख के लिखे जाने तक एक भारतीय नौजवान यूक्रेन में मारा जा चुका था। यह कहिए कि यूक्रेन युद्ध हमारे दरवाजे तक पहुंच ही चुका है।
स्पष्ट है कि यूक्रेन युद्ध दुनिया के लिए एक बड़ा संकट बन चुका है। अब इस नाक की लड़ाई को कैसे नकेल दी जाए, कहना कठिन है। रूस, अमेरिका और संपूर्ण पश्चिमी देशों से अब इस मामले को सुलझाने की अपेक्षा करना ही बेकार है। यूएनओ इराक जंग के समय से ही अपनी साख खोकर अब किसी काम का नहीं बचा। छोटे-मोटे देश को रूस एवं अमेरिका अब खातिर में लाने वाला नहीं है। फिर स्विटजरलैंड-जैसे देश ने रूस के खिलाफ आर्थिक पाबंदी लगाकर अपने को अपंग बना लिया है। अब केवल भारत एवं चीन ही दो ऐसे देश हैं जो कुछ कर सकते हैं। पर भारत एवं चीन के बीच भी हालात अच्छे नहीं हैं। इसलिए अब क्या हो। फिर चीन अभी तक रूस के पक्ष में दिखाई पड़ रहा है। ले-देकर भारत अकेला देश है जिसने अभी तक किसी का पक्ष नहीं लिया है। इसलिए शांति प्रयासों में भारत अहम भूमिका निभा सकता है।
सवाल यह है कि किसी भी शांति प्रयास का आधार क्या हो! जाहिर है कि सबसे पहले युद्ध विराम की कोशिश हो। लेकिन रूस की कोशिश यही होगी कि वह कम-से-कम यूक्रेन की राजधानी पर अपना कब्जा जमा ले ताकि वार्ता के समय उसका पलड़ा भारी रहे। कीव में जो परिस्थिति है, उससे तो ऐसी स्थिति में बहुत मौतें हो जाएंगी। ऐसे में पहली चुनौती यही है और भारतीय विदेश मंत्रालय को सबसे पहले यही कोशिश करनी चाहिए। इस संबंध में भारत को मतभेद के बावजूद चीन के नेतृत्व से तुरंत बात करनी चाहिए ताकि यह दोनों देश मिलकर तुरंत युद्ध विराम की अपील करें।
सवाल यह है कि अब रूस युद्ध विराम के लिए तैयार कैसे और क्यों होगा। रूस की केवल एक मांग है और वह यह कि यूक्रेन यह घोषणा कर दे कि वह नाटो का सदस्य नहीं बनेगा। एक बार रूसी फौजों के यूक्रेन में दाखिले के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति के लिए यह कठिन है। फिर भी भारत को यूक्रेनियन नेतृत्व से तुरंत संबंध जोड़ने होंगे। पर ये सारे प्रयास तभी सफल होंगे जब नाटो देश अमेरिका सहित युद्ध विराम के लिए राजी हों। नाटो में केवल जर्मनी एवं फ्रांस दो ही देश ऐसे हैं जो मानवता के हित में अमेरिका पर दबाव डाल सकते हैं। इसलिए फ्रांस एवं जर्मनी के नेतृत्व से तुरंत तार जुड़ने चाहिए। और फिर इन सबकी सहमति से एक शांति फार्मूला निकल सकता है जिससे शायद कुछ बात बन जाए। लेकिन रूसी फौजों को कीव में घुसने से रोकने के लिए नाटो ब्लाक के देशों के दिग्गज नेताओं को रूस से तुरंत यह अपील करनी चाहिए कि वह मानवता के हित में ऐसा नहीं करे।
यूक्रेन ही नहीं पूरी दुनिया एक महायुद्ध की कगार पर है। यूक्रेन में लगी आग ने वहां हर घर में जलती शम्आ को बुझा दिया है। कहीं यह आग फैलकर दुनिया के दूसरे देशों में भी युद्ध का अंधेरा न फैला दे। इसको रोकने के लिए भरपूर प्रयास हों कि जंग आगे न बढ़े ताकि ‘आप और हम सभी के आंगन में शम्आ जलती रहे, तो बेहतर है।’
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